अमृत काल में नागरिक आजादी पर चलता बुलडोजर

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— राजेन्द्र राजन —

ज का दिन बेशक हमारे देश के लिए एक गौरवशाली दिन है। यह उन सुज्ञात और अल्पज्ञात स्वाधीनता सेनानियों को स्मरण करने का भी दिन है जिनके त्याग, साहस, समर्पण और कुरबानियों की बदौलत हमारे देश को 15 अगस्त 1947 के दिन अंग्रेजी हुकूमत से आजादी मिली थी। लेकिन खुशी और गौरव के साथ-साथ यह अपने गिरेबान में झाँकने का भी अवसर होना चाहिए कि हमारे स्वाधीनता सेनानियों का सपना क्या था और उस कसौटी पर आज हम कहॉं खड़े हैं।

इसमें दो राय नहीं कि स्वाधीनता संघर्ष के सभी नायकों को विचारधारा के लिहाज से एक ही पाले में नहीं रख सकते। उनमें संघर्ष का साधन जैसे व्यावहारिक मसले से लेकर आजाद भारत के नवनिर्माण के लिए अपनायी जाने वाली नीतियों तक, हर बात पर मतभेद थे। लेकिन उनमें चाहे जितनी वैचारिक भिन्नताएं रही हों, अलग अलग राह भी चुनी हो, लेकिन भावी भारत यानी आजाद भारत को लेकर कुछ सर्वानुमति भी थी।

इस सर्वानुमति में यह शामिल था कि स्वतंत्र भारत एक लोकतांत्रिक देश होगा। वह धर्मनिरपेक्ष भी होगा यानी राज्य धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं करेगा, सभी धर्मों का सम्मान करेगा, नागरिकों को अपने अपने धार्मिक विश्वासों का पालन करने की आजादी होगी। स्वतंत्र भारत का अर्थ सिर्फ बाहरी अंकुश से देश की आजादी से नहीं होगा बल्कि नागरिक अधिकार और नागरिक आजादी से भी स्वतंत्र भारत परिभाषित होगा। महात्मा गांधी और भगत सिंह, महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष बोस, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू, नेहरू और पटेल, और अन्य भी आजादी के नायकों के बीच और बातों को लेकर चाहे जितने मतभेद रहे हों, आजाद भारत को लोकतांत्रिक, सेकुलर, समतामूलक देश बनाने के ध्येय पर मतभिन्नता नहीं थी। उनका यह सपना संविधान में प्रतिबिंबित भी हुआ, अलबत्ता कुछ मामलों में यह नीति निर्देशक तत्त्वों में सिमटकर रह गया। लेकिन वह गलत राह पकड़ लेना नहीं है, वह क्रियान्वयन की चुनौती है।

बहरहाल, जब भारत ने राष्ट्रीय स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे कर लिये हैं और उसकी 77वीं वर्षगाँठ मना रहा है, तब एक बार फिर उस कसौटी पर, यानी स्वाधीनता संग्राम की उस सर्वानुमति पर, जिसका ऊपर किया गया है, स्वयं को जॉंचने-परखने की जरूरत है। हमारी राष्ट्रीय स्वाधीनता तो अक्षुण्ण है लेकिन क्या यही बात नागरिक स्वाधीनता के बारे में भी कही जा सकती है? क्या हम सेकुलर भारत – जिसके लिए नेताजी सुभाष बोस और भगतसिंह भी उतने ही प्रतिबद्ध थे जितने कि जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आजाद – की रक्षा के लिए तत्पर हैं? या, उसे रोज जख्मी होते देखकर भी खामोश हैं? फिर, भारत समतामूलक समाज बनने की ओर अग्रसर है, या विषमता की खाई और चौड़ी हो रही है? अगर हम इन कसौटियों पर आज के भारत को कसने को तैयार नहीं हैं तो आजादी के दिवस को मनाने की एक रस्म अदायगी भर कर रहे होंगे।

बहुत पीछे न जाऍं, हाल की ही कुछ घटनाओं को देखें तो साफ हो जाएगा कि हम छोटे-मोटे विचलन के शिकार नहीं हैं बल्कि उलटी दिशा में चल रहे हैं। नागरिक आजादी रोज कुचली जा रही है। यह कैसी आजादी है और कैसा लोकतंत्र है, जिसमें हर तरफ कदम कदम पर खौफ का आलम है। हर कोई देश में व्याप्त भय की बात करता है। हो सकता है कल हम भय का रोना भी ना रो पाऍं। आपकी नजरों के सामने कुछ भी हो रहा हो, पर आपके चेहरों पर भय या चिंता की लकीरें नहीं, खुशी दीखनी चाहिए!

9 अगस्त, भारत छोड़ो दिवस पर, इक्यासी साल से मुंबई में अगस्त क्रांति यात्रा निकलती आ रही थी। इस बार पुलिस ने इसकी इजाजत नहीं दी और 99 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी डॉ जी जी परीख, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी, दत्ता गांधी और मानवाधिकारों व सेकुलरिज्म की वीरांगना तीस्ता सीतलवाड़ को शांति मार्च निकालने से रोक दिया। किसी को घर में नजरबंद रखा, किसी को थाने में। यह कैसा देश बन रहा है कि हम अगस्त क्रांति दिवस मनाने के लिए तरस जाएंगे!

खबर आयी कि गुजरात विद्यापीठ में 4 अगस्त को‌ वहॉं की छात्राओं को सर्व धर्म प्रार्थना करने से रोक दिया गया। इस मनाही के विरोध में उन छात्राओं ने कल सोमवार को विरोध प्रदर्शन किया। महात्मा गांधी द्वारा स्थापित इस शिक्षा संस्थान में सर्व धर्म प्रार्थना होती आयी है, जो कि स्वाभाविक ही है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन गुजरात‌ विद्यापीठ में सर्व धर्म प्रार्थना करने पर रोक लग जाएगी। प्रधानमंत्री के गृहराज्य में यह हो रहा है, जो विदेश जाते हैं तो बताते हैं कि मैं गांधी के देश से आया हूँ।

और प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में क्या हुआ? महात्मा गांधी के अनन्य अनुयायी आचार्य विनोबा भावे, ‌डॉ राजेन्द्र प्रसाद, लालबहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण जैसे महापुरुषों की पहल और प्रयासों से स्थापित सर्व सेवा संघ – साधना केन्द्र को बुलडोजर चलाकर जमींदोज कर दिया गया। अब इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि यह प्रधानमंत्री के इशारे पर, उनके ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ के लिए किया गया। लेकिन कोई ड्रीम प्रोजेक्ट न होता तो भी, गांधी संस्थाओं को हड़पने और मिटाने का खेल पहले से चल ही रहा था। जो सर्व सेवा संघ के साथ हुआ, कल किसी और गांधीमार्गी संस्था के साथ हो सकता है। जो विदेश जाकर कहते हैं कि मैं गांधी के देश से आया हूँ, दरअसल गांधी उनके निशाने पर हैं। जिन्हें गांधी के विचार पसंद नहीं, न सही, स्वाधीनता आंदोलन के महानायक का सम्मान न करना कृतघ्नता होगी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि स्वाधीनता संग्राम की तीन महालहर थीं – असहयोग, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो – और ये तीनों लहरें गांधी ने उठाई थीं।

जिन्हें गांधी के बजाय किसी और के विचार पसंद हों, उनकी मर्जी, सवाल है कि हमारे लोकतंत्र को भय के राज में परिणत करने का अधिकार आपको किसने दिया? बहुमत कोई बुलडोजर नहीं होता कि इसके दम पर आप सारे नियम-कायदों, सारी मर्यादाओं और लोक-लिहाज को रौंद डालें। बहुमत गवर्नेंस के लिए होता है, संविधान के दायरे में रहकर अलग नीतियां बनाने की भी छूट रहती है। लेकिन बहुमत को बर्बरता का हथियार बनाया जा रहा है। हर गलत को सही ठहराने का लाइसेंस।

आज हम एक बौरायी हुई सत्ता के मुकाबिल खड़े हैं। और देश की आजादी के साथ हमें जो नागरिक आजादी की गारंटी मिली थी वह गहरे खतरे में है। हमारी आजादी की स्थिति उस परिन्दे जैसी हो गयी है जिसके पंख कतर दिये गये हों। रोज ऐसे नियम-कानून बनाए जा रहे हैं जो हमारे नागरिक अधिकारों में कटौती करते हैं। सूचना के अधिकार का गला घोंटने के‌ लिए पर्सनल डिजिटल डेटा प्रोटेक्शन कानून बनाया गया। आदिवासियों के वनाधिकार पर कुठाराघात करने के लिए वन संरक्षण कानून में संशोधन कर दिया गया। निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए संविधान पीठ ने जो निर्देश दिया था उसे पलीता लगाने की तैयारी कर ली गयी है। संविधान पीठ ने दिल्ली में सेवाओं में नियुक्ति का अधिकार दिल्ली राज्य की निर्वाचित सरकार का माना था, लेकिन दिल्ली सेवा कानून बनाकर इस मामले में भी संविधान पीठ को ठेंगे पर रख दिया गया। अब भारतीय दंड संहिता में एक से एक खतरनाक संशोधन की तैयारी है।

दलील दी जा रही है कि संसद सर्वोच्च है और वह जो चाहे सो कानून बना सकती है। उसे संविधान पीठ के फैसलों को उलटकर भी कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन संसद की सर्वोच्चता आती कहॉं से है? संसद सर्वोच्च इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च है। फिर संसद को क्या हक है कि वह जनता के सशक्तीकरण के बजाय जनता के निर्बलीकरण के कानून बनाए? ऐसा करना तो नागरिक का तख्ता पलट करना होगा। वही हो रहा है। सत्ता नागरिक का तख्ता पलट कर रही है। यह लोकतंत्र नहीं है। नागरिक के प्रति सत्ता का द्रोह है।

नागरिक को रोजाना निरीह बनाने के ही फैसले और काम हो रहे हैं। पूर्व नौकरशाह अगर सार्वजनिक मसलों पर आलोचनात्मक कुछ बोलेंगे तो उनकी पेंशन रोक दी जाए इसका कानूनी इंतजाम करने में कार्मिक मंत्रालय जुट गया है। सरकार एक कानून यह भी बनाना चाहती है कि कोई भी सरकारी अवार्ड पाने से पहले, पाने वाले को, यह लिखित वचन देना होगा कि वह किसी भी सूरत में अवार्ड लौटाएगा नहीं। अगर लौटा ही दिया, तो सज़ा क्या मिलेगी इसके बारे में अभी कोई संकेत उपलब्ध नहीं है।

किसी विश्वविद्यालय परिसर में एक छोटी सी गोष्ठी करनी हो तो उसके लिए इजाजत लेनी होगी और इजाजत लेने में आपका सिर चकरा जाएगा। गोष्ठी का वि विषय क्या है? उद्देश्य क्या है? वक्ता कौन कौन होंगे? उनकी विचारधारा क्या है? बताइए। एक छोटा जुलूस निकालना हो, दस लोगों को धरने पर बैठना हो, प्रशासन से अनुमति मांगिए। जो कि अमूमन नहीं मिलेगी। प्रायः धारा 144 लगी रहती है। किसी विरोध प्रदर्शन में शामिल होने जा रहे हैं, आपको घर से बाहर न जाने देने के लिए, पुलिस पहले से पहरा डाले बैठी मिलेगी। असहमति और विरोध बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे से निपटने के नाम बनाए गए कानून आपका भला करने और आपको जिन्दगी भर जेल में सड़ा देने के लिए तैयार हैं। और गुजरात विद्यापीठ के विद्यार्थियों को तो अपने विद्यापीठ की परंपरा का पालन करते हुए सर्व धर्म प्रार्थना करने का भी हक नहीं है। क्या हम एक स्वाधीन देश के स्वाधीन नागरिक हैं? ये महज कुछ बानगियॉं हैं, जो यह दिखाती हैं कि हम कितने आजाद रह गये हैं और हमारी आजादी पर रोज किस तरह हमले हो रहे हैं, उन्हीं लोगों के द्वारा जिन्हें हमने चुना है। चुने जाकर वे सर्वोच्च हो गये और चुनने वाले रसातल में चले गए।

हमारी नागरिक आजादी पर बौरायी हुई सत्ता का बुलडोजर चल रहा है। यह कैसा दौर है? वे कहते हैं यह अमृत काल है। हम यह कैसा देश बना रहे हैं? वे कहते हैं यह न्यू इंडिया है।

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