— प्रभात कुमार —
(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)
कर्पूरी ठाकुर प्रतिपक्ष में रहे हो या सत्ता में एक जैसे रहे। जमीनी स्तर पर इतना ही फर्क दिखा कि जब वह सत्ता से बेदखल हो गए, तब उनके पास शासन की शक्तियां नहीं रहीं। लेकिन वह जमीन पर हमेशा एक जैसे दीखे। जो रहन-सहन, पहनावा, आहार-विहार और व्यवहार एक विधायक और विरोधी दल के नेता के रूप में रहा वही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद भी बना रहा। उनके कुर्ते और धोती में क्रीज कभी नहीं देखी। एक ही कुर्ते में वह कई-कई दिन तक दीखते थे। एक पुरानी कोट वह बरसों पहनते रहे।
उनके साथी सहयोगी बताते हैं कि 1952 में जब यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो थे, तब एक संसदीय दल के शिष्टमंडल के साथ कर्पूरी ठाकुर भी वहां गए थे। मार्शल टीटो की नजर कर्पूरी ठाकुर की रफू की हुई कोट पर पड़ी तो वह अंदर से उनकी महानता पर हिल से गए थे। उन्होंने वापसी में कर्पूरी ठाकुर को एक कोट भेंट की थी जिसे वह बरसों पहनते रहे। जब पहली बार विदेश जाना हुआ तो उन्होंने किसी से मांग कर कोट का जुगाड़ किया था। अपने लिए 1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद भी एक कोट नहीं खरीदा। वह एक जोड़ा-धोती कुर्ता से ही अपना काम चलाते थे; उनके पैरों में लोकल मोची की बनायी चप्पल होती थी। उनका अंदर-बाहर सब एक जैसा था। जब तक वह जीवित रहे उनका घर झोंपड़ी का ही बना रहा। उन्होंने अपने जीवन में कहीं भी कोई आलीशान मकान न गिफ्ट में स्वीकार किया और न खड़ा किया। आज भी उनका पुराना मकान अपनी उसी शक्ल में खड़ा है। यह बड़प्पन है उनके परिवार के सदस्यों का, कि अभी तक उसको अमानत की तरह सुरक्षित रखा है।
बिहार के देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद की चर्चा एक बड़े राजनीतिक साधक के रूप में होती है। उनकी भी सादगी, सच्चाई और चरित्र पर कोई धब्बा नहीं है। लेकिन समाज के निम्न वर्ग और जाति में पैदा हुए झोंपड़ी के लाल कर्पूरी ठाकुर की सादगी, ईमानदारी और सहज व्यवहार किसी से कम प्रेरणादायी नहीं। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं रहा। जो दीखते थे वास्तव में वही थे। मेरे पिता जो उनके मित्र थे उनके मित्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कर्पूरी जी को कई-कई दिन तक एक ही कुर्ते में देखकर अच्छा नहीं लगता था। उसकी मैल और पसीने से लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी काफी दुखी होते थे। लेकिन वह उनके स्वभाव को भी जानते थे।
1977 में जब कर्पूरी जी मुख्यमंत्री थे लोकनायक की जयंती मन रही थी। कर्पूरी जी अपने कार्यालय से अस्त-व्यस्त हालत में वहां पहुंचे और उनके बिखरे बाल एवं एवं गंदे कपड़े को देखकर कई नेताओं ने जब तंज कसा तब चंद्रशेखर ने (जो तब जनता पार्टी के अध्यक्ष थे) अपने लंबे कुर्ते को फैलाकर कर्पूरी जी के कुर्ते और धोती के लिए समारोह में उपस्थित नेताओं से चंदा मांगना शुरू कर दिया। लेकिन वह पैसा कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री राहत कोष में डाल दिया।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद कुमार बताते हैं कि 1972 में मुजफ्फरपुर के जलालाबाद स्थित जेपी के आश्रम में उन्हें जाना था। उनकी धोती काफी मैली हो गई थी और वह जानते थे कि मैला कपड़ा जेपी को पसंद नहीं है। तब उन्होंने सुबह-सुबह खादी ग्रामोद्योग पहुंचकर पहले धोती खरीदी फिर धोती बदली। उसके बाद जलालाबाद मुसहरी जेपी के पास पहुंचे। वहीं उन्होंने नाश्ते के बाद अपनी मैली धोती खुद धोई और उसे सुखाकर अपनी झोली में डाला। जेपी यह सब देखकर मुस्कुराते रहे। प्रमोद कुमार बताते हैं कि कर्पूरी जी को दरअसल अपने कपड़ों का ध्यान नहीं रहता था। वह सबके शरीर पर कपड़ा देखना चाहते थे। जब कपड़े की बात चलती थी तो उन्हें गरीबों के नंगे शरीर की याद आ जाती थी।
उनके कई मित्र नेता कभी-कभी खुद जब आते थे तो उनके लिए कुर्ती और धोती ले आते थे लेकिन बहुत जद्दोजहद के बाद इसे स्वीकार भी करते तो कई बार उसे अपने जरूरतमंद राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच बांट देते। कर्पूरी जी साधारण रूप में एक असाधारण व्यक्ति थे। उनके बारे में ऐसी कई कहानियां और संस्मरण हैं जो उनके असाधारण व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करते हैं। 70 के दशक में वह कई बार शाम में पटना से दानापुर एक्सप्रेस पकड़कर समस्तीपुर आते और रेलवे जंक्शन से रिक्शा पकड़कर आधी रात को मथुरापुर स्थित मेरे डेरे पर आ जाते। रात्रि में पिताजी से मिलने और गपशप और विश्राम करने के बाद सुबह-सुबह क्षेत्र में निकल जाते थे। रिक्शा की सवारी उन्हें खास पसंद थी।
वह अपने साथियों का बहुत खयाल रखते थे। मुजफ्फरपुर के मुसहरी में समाजवादी नेता रामकरण साहनी की बेटी की शादी थी। उसमें हिस्सा लेने के लिए एक जीप से आधी रात को वहां पहुंचे तो चारों तरफ बरसात और बाढ़ का पानी था। फिर कई किलोमीटर पीछे अपनी जीप को छोड़कर लालटेन की रोशनी में एक ग्रामीण की मदद से उनके घर तक पहुंचे। रात्रि में उनके आवास पर ही एक खाट पर आराम किया और सुबह में लौटे। तब वह बिहार सरकार के उप मुख्यमंत्री थे। इसी समय की बात है। उनके क्षेत्र में किसी कार्यकर्ता की तबीयत अचानक खराब हो गई थी और वह उसे अपनी जीप से हॉस्पिटल ले जा रहे थे। रास्ते में जीप खराब हो गई तो उन्होंने उसे कंधे पर लाद कर 5 किलोमीटर दूर अस्पताल तक पहुंचाया। एक समय वह था और एक आज है, जब अधिकांश मंत्री, विधायक अपने कार्यकर्ता के बीमार होने की खबर मिलने पर अनसुनी कर देते हैं। उन्हें किसी दुकान के उदघाटन में जाना तो पसंद है लेकिन किसी कार्यकर्ता का हाल-चाल जानने उसके घर जाना पसंद नहीं है।
कर्पूरी ठाकुर की खासियत रही कि उनके चेहरे पर पूर्व मुख्यमंत्री होने, विरोधी दल का नेता होने या देश के बड़े समाजवादी नेता होने का अक्स कभी नहीं दिखा। वह दूर जाने के लिए ही किसी मित्र की जीप की सवारी पसंद करते थे। आसपास की यात्रा के लिए रिक्शा ही उन्हें ज्यादा पसंद था।
वह 1971 में जब पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब उन्हें अपनी पुत्री के लिए एक लड़का देखने रांची जाना था। लेकिन वह सरकारी गाड़ी से वहां नहीं गए। वहां जाने के लिए भाड़े पर गाड़ी मंगाई। वह भत्ते के पैसे से ही अपने जीवन की तमाम जरूरतें पूरी करते थे। वेतन का भी पैसा राजनीति में इधर-उधर खर्च हो जाता था। वह अपनी पुत्री की शादी भी देवघर मंदिर में करना चाहते थे लेकिन पत्नी ने मुख्यमंत्री आवास की जगह पितौझिया से शादी की। मुख्यमंत्री की बेटी शादी थी, लेकिन यह पेट्रोमैक्स की रोशनी में संपन्न हुई। इस शादी में न किसी राजनेता और न किसी अधिकारी को आने की अनुमति मिली। हवाई अड्डे पर भी पुलिस का पहरा लगा दिया गया कि कोई मंत्री आ ना जाए। दामाद के एमबीबीएस डॉक्टर होने के बावजूद शादी बेहद सादगी के साथ हुई।
आज भी प्रायः लोगों को पता है कि उनके पिता हजामत और खेती से अपना घर चलाते थे। उन्होंने अपने जीवन में पिता पर हुए जुल्म का जवाब भी देना उचित नहीं समझा। आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान अगड़ी जातियों के आक्रोश को भी बड़ी सहजता से स्वीकार किया। अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ भी अपनी शालीनता को बनाए रखा। उन्होंने संसदीय मर्यादाओं का हमेशा पालन किया। उनका कहना था कि लोकतंत्र में संसद का विशेषाधिकार जरूरी है लेकिन जनता का अधिकार भी उतना ही जरूरी है।
आज के नेताओं की तरह कभी उनके साथ गाड़ियों का काफिला और तामझाम नहीं दीखा। उनकी सादगी बेमिसाल थी। मुजफ्फरपुर के पूर्व डिप्टी मेयर विवेक कुमार बताते हैं कि मेरे पिता सुरेश अचल से गहरा राजनीतिक संबंध था। वह बताते हैं कि 1984 में मुजफ्फरपुर में एक बुद्धिजीवी सम्मेलन का आयोजन किया गया था। जिसमें देश भर से जुटे बुद्धिजीवियों के रहने की व्यवस्था साहू रोड स्थित पोद्दार स्मृति भवन में की गई थी। मैं छात्र था और अपने पिताजी के साथ वहां गया था। कर्पूरी जी आयोजन से एक दिन पहले सारी व्यवस्था देखने के लिए वहां पहुंचे थे। वह रहने खाने और अन्य व्यवस्थाओं को देखकर तो कुछ नहीं बोले लेकिन जब हॉल के बाहर हजामत के लिए कुर्सी लगी देखी और बूट पॉलिश का एक काउंटर देखा तब वह कुछ देर के लिए स्तब्ध हो गए। फिर कहा कि बुद्धिजीवी अपनी दाढ़ी खुद बनाते हैं!
मजदूर नेता स्व सहदेव राम के सहयोगी रहे रामसगुन पोद्दार बताते हैं कि कर्पूरी जी मजदूर नेता भी थे। 1960 में बिहार के केंद्रीय कर्मचारियों की हड़ताल का नेतृत्व किया था। वह 1960 तक अखिल भारतीय डाक-तार कर्मचारी संघ के प्रांतीय अध्यक्ष थे। 1960 में, हड़ताल के बाद, सरकार की नीतियों के कारण उन्हें इस पद से हटना पड़ा। तब उनकी जगह कर्पूरी जी की राय से सहदेव बाबू उनकी जगह प्रांतीय अध्यक्ष बने। यही कारण था कि दोनों में अभिन्न मित्रता बनी रही। जब वह समस्तीपुर में होते थे तो नाश्ते के लिए शाम में प्राय: पोस्ट ऑफिस या उनके घर पर आ जाते थे। उनका नाश्ता यहीं होता था। भूजा अनिवार्य था। वह भूजा के साथ नमक प्याज से ही खुश हो जाते थे। अगर कचरी बन जाती तो इसमें चार चांद लग जाता था।
इमरजेंसी में जब कर्पूरी जी अज्ञातवास में थे, सहदेव बाबू तब तक समस्तीपुर के पोस्टमास्टर बन चुके थे। तभी उन्होंने एक दो बार बढ़ी हुई दाढ़ी में रातें बितायी थीं। देश में इमरजेंसी थी और हम लोगों का हाथ कलेजे पर ही रहता था। कई बार पुलिस भी परेशान करती थी। 1977 में चुनाव जीतने के बाद भी सबसे पहले पोस्ट ऑफिस ही आए। यहीं उनका भव्य स्वागत हुआ और और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की खबर रेडियो पर सुनकर लौटे। फिर कई नेताओं से टेलीफोन पर बात की। फिर अपनी जीत का सर्टिफिकेट लेने बगल में स्थित काउंटिंग हॉल लौटे। कर्पूरी जी ने 1970 में टेल्को के मजदूरों के लिए 28 दिन तक आमरण अनशन किया था। उन्हें मजदूरों से बेहद लगाव था और उनके संघर्ष में हमेशा साथी रहे।
गायघाट के पूर्व विधायक महेश्वर प्रसाद यादव बताते हैं कि उनकी छोटी से छोटी सभा में भी लोगों की काफी भीड़ दीखती थी। मैंने भी उनको कई बार गंवई शैली में अपनी ही भाषा में बेहद सहज और सरल ढंग से तीखा से तीखा संवाद करते सुना था। उनके निधन के बाद कुछ हद तक समाजवादी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह में कुछ इसका अक्स दीखा। अलबत्ता बाद में वह बात नहीं रही।
जननायक कर्पूरी ठाकुर का निधन 17 फरवरी 1988 को पटना में दिल का दौरा पड़ने के कारण हुआ। वैसे उनके निधन को लेकर कुछ रहस्य की गुत्थियां अभी भी उलझी हुई हैं। कई नेता उनकी मौत के कारणों की जांच की मांग कर चुके हैं। वह मात्र 64 साल की आयु में ही चल बसे लेकिन बिहार की ही नहीं पूरे देश की राजनीति में जो छाप छोड़ गए हैं वह अमिट है।
उनकी प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है। वह 1952 से लेकर 1988 तक लगातार विधायक रहे। उनकी मृत्यु भी विरोधी दल के नेता के रूप में हुई। दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उपमुख्यमंत्री रहे। इसके अतिरिक्त कई बार विधानसभा में विरोधी दल के नेता रहे। कभी भी पिछले दरवाजे से सदन में जाना पसंद नहीं किया। अपने 36 साल के संसदीय जीवन में सिर्फ 1984 में समस्तीपुर से लोकसभा का चुनाव एक बार हारे। श्रीमती इंदिरा गांधी के निधन से उपजी सहानुभूति लहर के कारण वह कांग्रेस के प्रत्याशी रामदेव राय से पराजित हुए।
1977 में बिहार में जब जनता पार्टी की सरकार के गठन के लिए नेता पद का चुनाव हुआ तब वह सत्येंद्र नारायण सिंह उर्फ छोटे साहब को 84 मतों से हराने में कामयाब रहे। लेकिन 36 साल के संसदीय सफर के बावजूद वह न अपने लिए एक मकान बना सके और न कहीं भी एक इंच जमीन खरीदी। उनके पुत्र सांसद रामनाथ ठाकुर बतात हैं कि वह पत्र लिखते थे तब भी और बातचीत में भी हमेशा यह कहना नहीं भूलते थे कि तुम लोग किसी के भी लोभ लाभ के चक्कर में कभी नहीं आना। अन्यथा मेरी बड़ी बदनामी होगी।
वह एक ऐसे राजनेता थे, जिन्होंने जीवन भर अपमान, तिरस्कार और उपेक्षा की घूंट पीकर सामाजिक न्याय की इबारत लिखी।