1. झुठ्ठा
शब्द आत्मा के वस्त्र होते हैं
और आप जितनी बार झूठ बोलते हैं
यह वस्त्र उतनी बार
उतरते हैं
आपने इतने-इतने-इतने झूठ बोले हैं कि
मंच पर फूहड़ अभिनय करते हुए
जनता के बीच आप
नंगे खड़े हैं।
2. यहाँ सबको सबसे भय है
दुख, करुणा, छल, प्रपंच और कमीनेपन के बीच
अपने-अपने घरों में घिर गये हैं लोग
दलाल बन चुकी नैतिकता के पुजारी
तमाम चाटुकार राजनीतिज्ञ खिलाड़ी-ब्यापारी
सब अपनी आत्मा पर लगी कालिक छुटा रहे हैं
और राजा के हर तीर को
ठीक निशाने पर
बता रहे हैं
हमारी समस्याओं और सवालों के जवाब में
कुछ लोगों के पास अश्लील हँसी और मिथ्या गर्व है
एक परिचित दरिंदगी जो दृश्य के पीछे थी इन दिनों
भाषा और आँखों से साफ टपक रही है
जबकि अखबार और टीवी चीख रहे कि–
‘राजा का देशहित में यह महान कार्य है
एक नये किस्म का विधान है
जनता के प्रति संवेदना है
प्रतिबद्धता है।’
मैं पूछता हूँ क्या पूर्वजों ने इसी लोकतंत्र के लिए
हड्डियों को गलाया कि कोई आए
और नींव में बारूद भर दे
प्रेम-सद्भाव के पक्षियों का चौराहों पर
राजनीतिक कत्ल कर दे
लोगों को बेघर कर
पहचान छीन ले?
महान कृतघ्नता से भरा है यह समय
वर्तमान को पूरी बर्बरता से लहूलुहान करता समय
मनुष्यता के भविष्य की हत्या रचता समय
यह वह समय है जब हर तरफ
अविश्वास की लहर है
यहाँ सबको सबसे
भय है।
3. उन्माद
कुछ लोग युद्ध के उन्माद में हैं
तो कुछ विकास के
कुछ धर्म के
उन्माद में राजा सैनिकों की बलि दे सकता है
उन्माद में राजा चरण धो सकता है
उन्माद में राजा नंगा हो सकता है
कहते हुए कि नंगई जरूरी है
राष्ट्रहित में
उन्माद समुद्र का हो या तूफान का
उन्माद युद्ध का हो या विकास का
धर्म का हो अथवा राष्ट्र का
उन्माद बुरा है
हे मेरी तुम!
रोग है उन्माद प्रेम का ।
4. वे कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे
वे कोशिश करेंगे लेकिन कुछ बिगाड़ नहीं पाएँगे
उन्हें अचरज होगा जब देखेंगे कि
हम अभी टूटे नहीं हैं
वे बार-बार हमला करेंगे हमारे सपनों पर
हमारी भाषा पर
वे हमारे चरित्र के पंप्लेट छपवा देंगे
गलियों-सड़कों पर बिखरा देंगे
दीवारों पर चिपका देंगे
ठट्ठा करेंगे
हम सोचेंगे कि ये हमारे रिश्तेदार हैं, पड़ोसी हैं, दोस्त हैं
हमारे दुख-सुख को समझने और जानने वाले हैं
समाज के ज़िम्मेदार नागरिक हैं
भला अब इससे नीचे क्या गिरेंगे?
लेकिन सोचने के बीच ही वे थोड़ा और गिर जाएँगे
गिरते चले ही जाएँगे चारों ओर
गुबरैले नज़र आएँगे
और तब ‘शब्द’
जो हमने अर्जित किए हैं
हमारी अपनी पहचान बचाएँगे
यकीन करो वे किसी का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे…

5. बच्चे बोलने से नहीं डरते हैं
पूर्वजों ने रक्त की धार से असंख्य बेड़ियों को काटा है
हड्डियों को गलाकर खेतों में छींटा है
स्वप्नों को तपा बीज बनाया
हजारों पीढ़ियों के संचित आंसुओं के समुद्र से
पृथ्वी को सींचा और बनाया अन्नदा
आज कुछ विचार हमारी आत्मा को बॉंधना चाहते हैं
आवाज दबाना चाहते हैं
मनुष्यता के हत्यारे चाहते हैं कि वह जो दिखाऍं –
हम वही देखें, जो सुनाएँ वही सुनें,
जो कहें वही समझें और उनकी
जय-जयकार करें
वे डराते हैं अपनी महान संस्कृति-जय से
वे डराते हैं पीछे खड़ी हत्यारी भीड़ के भय से
दरअसल वे हमें बाँटना चाहते हैं
भविष्य के किसी अंधे कुँए में
डुबाना चाहते हैं
वे डरते हैं हमारे साझा दुखों के हथियार बनने से
वे डरते हैं हमारे बच्चों के एकसाथ चलने से
वे डरते हैं सोचने और लिखने वालों से
वे डरते हैं कि बच्चे अब बोलते हैं
और बोलने से नहीं डरते हैं!
6. राजकीय नौकर मित्र से संवाद
अधिकारियों के प्रेम से पुचकारने/पुकारने पर
हम कुनमुनाते हैं, एक इशारे की प्रतीक्षा
और दौड़ जाने की मुद्रा में
बैठ जाते हैं
हमारे शीश उनके देवत्व के सामने झुकते हैं
और परम चूतियापे को अद्भुत सराहते
उपलब्धि बताते हैं
उनका विशेषत्व बना और दिखता रहे इसलिए
वे कुछ को बीच-बीच में दुरियाते हैं
और हम भी कूँ-कूँ करते
यहाँ से उठकर
वहाँ बैठ जाते हैं
(कभी-कभार मन में गरियाते हैं)
जब वे विचलित मुद्रा में आगे-आगे चलते हैं
हम अपना कूल्हा मटकाते पीछे-पीछे
जाते-आते हैं
वे हमारे समर्पण को समझें
इसलिए उनकी चरणधूलि को माथे पर लगाते हैं
उनकी अपानवायु को चुप सूंघ सह जाते हैं
वे मुस्कुराते हैं
हममें से कुछ की तो मजबूरी है कि एक अदद पूँछ नहीं
अन्यथा वे हिला-हिलाकर लोट जाते
अपनी टाँगें उठाते
चाटते
मैंने कहा
वह सब तो ठीक है साथी
लेकिन असल विडम्बना यह नहीं है
कि हम कूकूर हुए जाते हैं
बल्कि यह है कि जिनको हमें चहेट कर खदेड़ना था
उन पर भौंक भी नहीं पाते हैं
चुप रोटी खाते हैं…
7. पत्ती भर छाँव
मैं ज्यादा कुछ नहीं चाहता बस इतना कि
कोई गुजरे मेरी कविताओं से
तो कम हो जाए उसकी
कौर भर भूख
प्यास चुल्लू भर बुझ जाए
थके हुए हाथों में कुछ बल आए
हत्यारों के चाकू में कुछ जंग लग जाए
और मिले भूले-भटकों को कुछ ठांव
पत्ती भर छांव…
संभव है कविताएँ बेहतर दुनिया न रच पाएँ
परचम न बन पाएँ
लेकिन जब कोई आए
तो चुप ले जाए
कम से कम उतना प्रकाश
जितना जुगनूं साथ लिये चलते हैं
ॲंधेरे रास्तों में जो जन-मन के काम आए
और इसी तरह शायद मेरी और कविता की
लाज कुछ बच जाए…
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