सत्यकेतु की सात कविताऍं

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पेंटिंग- सूर्यनाथ पांडेय
पेंटिंग- सूर्यनाथ पांडेय

1. जीवन की आस

जब साधन इफ़रात होता है
और काम कोई नहीं
तो समय काटे नहीं कटता है
घर का एक कोना
दूसरे पर खीझता
अनचाही फ़ुर्सत की लंबाई पर
कुढ़ता रहता है
दरवाजे को दहलीज़ से
आंगन को किनारे से
बड़ी शिकायत रहती है
कि दायरे को किस कदर दबा कर रखा है
भागती दुनिया से बचकर
सुरक्षित घर में पनाह लेते मन की
अकुलाहट भी अजीब होती है
जब कोई नहीं मिलता तो पुकारना चाहता है
जब सारे हाज़िर होते हैं तो कहीं और भागना चाहता है
संपन्नता से उपजी निराशा
किसी ट्रेंड से नहीं मिटती
सड़क पर रोटी की उम्मीद लगाए बैठे
मज़दूरों की भूख मिटाने से जाती है
भूख परिहास नहीं
जीवन की आस है
श्रम, शक्ति और सौंदर्य का उल्लास है
भूख मन की अकुलाहट का शमन करती है
और समय का सदुपयोग भी।

2. सौंदर्य

जीवन की आस में
सैकड़ों ग्रह ढूंढ़ निकाले
एक एक कर
सौर परिवार से बाहर
मगर पृथ्वी जैसा कोई नहीं होता है
जीवन देने की क्षमता
सांस चलाए रखने की शक्ति
न ऐश्वर्य के वलय से मिलती है
न अनेक चंद्रमाओं का केंद्र बनने से
वह तो आंतरिक सौंदर्य है
जो ज्वालामुखी को सागर से
बड़वानल को कानन से दूर रखकर
विक्षोभों का रुख बदलता है
झाड़ झंखार का लबादा ओढ़े
अनवरत गतिशील रहने वाले की सेहत
द्रुत वाहनों में श्लथ बैठे
लम्बी खर्चीली यात्रा करने वालों से
बेहतर और ताज़गी भरी होती है
पानी भरी आंखें
द्रवित हृदय की दुहाई होती हैं
मन के सारे शोले
मुस्कान के अंकुरण पर उड़ेल देती हैं
दिनभर नाचकर भी स्थिर रहना
चेतना के वैभव का संवाहक होना है
इन्हीं खूबियों से
पूरे ब्रह्मांड में
पृथ्वी का सबसे चमकीला कोना है।

3. उम्मीद

सुबह उठकर
दिन के द्वार कौन खोलता है?
जो रातभर सोया हो
या जो बिलकुल नहीं सोया हो

दिन देखकर
सांझ का स्वागत कौन करता है?
जो जुटकर काम करता रहा हो
या जो काम तलाशता रह गया हो

सांझ बिताकर
रात में तारे कौन गिनता है?
जो राहत की छत पर लेटा हो
या जो उम्मीद भरी सुबह की प्रतीक्षा में हो

बहती आंखों को होती है उम्मीद
रोते दिल को भी आएगी नींद
पेट पकड़े हाथों को मिलेगा काम
मीलों नापते पैरों को होगा आराम
सांझ चाहेगी रात को मिले दिन का साथ
चाहत की ओर बढ़े निर्बाध राहत का हाथ।

4. खेत और मेड़

पानी लगे खेतों में
धान के बीजों की सजी पंगत
पाक उम्मीद
और सामूहिक श्रम की
आह्लादकारी तस्वीर होती है
मजदूर या कि मेठ मां के साथ आया शिशु भी
बीज पौधों की अहमियत समझता है
हुलसकर बीजों को मेड़ों पर सहेजता है
गीत गाती
पंक्तिबद्ध धान रोपती
दीदियों, बुआ और काकियों तक
गिरते पड़ते
बीजों के बंडल पहुंचाता है
यह उसका काम नहीं है
न ही उसके लिए आवंटित है
मगर नन्हें दिमाग़ का स्वत:स्फुरण है
अपने हिस्से की मेधा का पूरा प्रदर्शन करता है
मेधा मिट्टी की थाती होती है
सूचीबद्ध हो या अतिरिक्त
मेधा हर हाल में
सम्मान का हक़दार होती है
धान की फ़सल लहलहाने में
एक एक बीज हिस्सेदार होती है
सच्चा किसान इस हक़ीकत को जानता है
इसलिए खेत में रोपने के लिए
मेड़ों पर रखे
बीज के हर बंडल का इस्तेमाल करता है।

पेंटिंग - जगदीश स्वामीनाथन
पेंटिंग – जगदीश स्वामीनाथन

5. बारिश की प्रत्याशा

बारिश की प्रत्याशा
बाढ़ को निमंत्रित करती है
सौ टके की बात है
बारिश की पुकार में
क्षुधा शांति की कामना होती है
तौली हुई बात है
कामनाएं कहां नहीं होतीं
कोठियों में भी
झोंपड़ियों में भी
मगर तासीर भिन्न होती है
अट्टालिकाओं से झांकते उत्फुल्ल चेहरे
बारिश की तस्वीरें खींचते हैं
बातरह असर पर चर्चा करते हैं
बस्तियों में बसर करते बाशिंदे
भीगते असबाब को बचाने के लिए
पन्नियों और बोरियों पर
दिहाड़ी खर्चा करते हैं
ऋतु चक्र में
वैशाख-जेठ का तमतमाता सूरज
किसी खलनायक सा दिखाई देता है
उसकी रश्मियों की तपिश से बचने के लिए
बारिश का इंतज़ार होता है
उम्मीद होती है कि वह अपनी फुहारों से
बाहरी ऊष्मा को
आंतरिक शीतलता में तब्दील कर देगी
धूल गर्द से मटमैली हुई आबोहवा को
नयनाभिराम हरीतिमा प्रदान करेगी
करती भी है
कोई शक नहीं
मगर राहत के वे दिन
बहुत थोड़े होते हैं
जनवासे में मुफ्त के रसगुल्ले चांपने की तरह
बाकी समय
कष्टों का कचूमर निकाल देती है
बारिश हो या धूप
सबके आका आसमानी हैं
तबीयत से झुलसाते भी हैं
और भरदम भिगोते भी हैं
लौटने का जो रास्ता चुनती है बारिश
वह नदियों को रास नहीं आता
नाराजगी में किनारों को तोड़ देती हैं
घरों को इनारों में बदल देती हैं
तब बारिश को पुकारने वाले पिकनिक मनाते हैं
और बाढ़ भोगती आंखें
सावन भादों बन जाती हैं।

6. युद्ध

युद्ध
सम्वादहीनता का वीभत्स रूप
और सोचने की क्षमता पर
पूर्ण विराम है।

युद्ध
सहने की कूवत का क्षरण
और दूसरों की हैसियत मिटाने की
अनधिकार चेष्टा है।

युद्ध
आंगन की ख़ुशियां छीनने
दरवाज़े को बेरौनक करने का
भयानक और क्रूर ज़रिया है।

7. धर्म का डंडा

रंग-बिरंगी पताकाओं से आंखें चौंधियाती हैं
उनमें लगे डंडों को देखकर देह कांपती है
उनके नीचे और पीछे लग रहे नारों से
फटने लगते हैं कान के परदे
दहशत से बढ़ जाती हैं धड़कनें

गांव-गांव
शहर-शहर
बंटते हैं पर्चे
गूंजते हैं धर्मादेश
तो बन्द हो जाते हैं हाट-बाज़ार
खेतों की राह भूल जाते हैं हल-बैल
थम जाते हैं खदानों में हाथ
तालों के हवाले हो जाते हैं स्कूल-कॉलेज

बचपने में पढ़ी थी
सम्वेदनाओं से भरी धर्म पुस्तकें
चरित्रों से टपकते थे आदर्श
आज उन्हीं चरित्रों के नाम पर
मची है मार-काट
हुहकार रही हैं धर्म पताकाएं ….
धर्म के बाज़ार में खड़े नंगों से
बचानी होंगी पीढ़ियां
जो तोड़ सकें उनके वहशी डंडे
सहेज सकें टूटी-बिखरी सम्वेदनाएं।

2 COMMENTS

  1. समता मार्ग में मेरी कविताएं प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। सूर्यनाथ जी और जगदीश जी की पेंटिंग भी भावानुकूल है। राजेन्द्र राजन का बहुत आभार🌺

  2. सत्यकेतु जी लाजवाब रचनायें
    सड़क पर रोटी की उम्मीद लगाए बैठे
    मज़दूरों की भूख मिटाने से जाती है.

    मगर पृथ्वी जैसा कोई नहीं होता है
    जीवन देने की क्षमता
    सांस चलाए रखने की शक्ति
    न ऐश्वर्य के वलय से मिलती है
    न अनेक चंद्रमाओं का केंद्र बनने से,

    सुबह उठकर
    दिन के द्वार कौन खोलता है?
    यह बात दिल छू जाती है .
    आज के शहरी परिवेश में भी
    माटी की गंध है निम्न पंक्तियों में
    मजदूर या कि मेठ मां के साथ आया शिशु भी
    बीज पौधों की अहमियत समझता है.

    “तब बारिश को पुकारने वाले पिकनिक मनाते हैं” शहरी और विकसित समाज पर गहरी चोट है .

    सदियों से पूरी धरा को अपने क़ब्ज़े में कर लेने की चाहत रखने वाले कुछ लोगों की सोच है युद्ध
    युद्ध
    सहने की कूवत का क्षरण
    और दूसरों की हैसियत मिटाने की
    अनधिकार चेष्टा है।
    समयानुकूल अच्छी पंक्तियाँ

    अंतिम कविता की अंतिम चार लाईन इसे कोई प्रबुद्ध व्यक्ति , बुद्धिजीवी और जागरूक कवि ही कह सकता है .
    बहुत अच्छी रचनायें 👌👌👏

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