— अरुण कुमार डनायक —
क्या भारत कभी हिन्दू राष्ट्र बन सकता है? क्या ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ का नारा कभी धरातल पर उतर सकता है? ये यक्ष प्रश्न हैं। इनका उत्तर 1947 के बहुत पहले, शायद सौ वर्षों से खोजा जा रहा है, लेकिन अभी तक जवाब नहीं मिला है। इस परिकल्पना में जीते अनेक हिंदूवादी संगठन अपना अस्तित्व अतीत को भेंट कर चुके हैं, जनता ने उन्हें कई बार सिरे से नकार दिया है, लेकिन एक संगठन जिसे हम फासिस्टवादी हिटलर और मुसोलिनी से प्रेरित बताते हैं, जिसका विस्तार आजादी की पूर्व संध्या तक केवल महाराष्ट्र के कतिपय ब्राह्मणों तक सीमित था और बॅंटवारे के समय वह कुछ सिंधी और पंजाबी शरणार्थियों पर असर डालने में सफल हुआ, आज भारत का सबसे प्रभावशाली संगठन बन गया है। उपरोक्त नारे इसी संगठन की दिमागी उपज हैं और एक मोटे अनुमान से कहा जा सकता है कि देश की पच्चीस से तीस प्रतिशत आबादी का विश्वास इन नारों में है। भारत की इस आबादी के मनो-मस्तिष्क में यह बात भर दी गई है कि हिंदुत्व और भारतीयता एक-दूसरे के पर्याय हैं।
हिन्दू शब्द का अस्तित्व वैदिक या पौराणिक नहीं है। इसकी उत्पत्ति ही पश्चिमी आक्रान्ताओं के, सिन्धु नदी को इंडस और इस भूभाग को इंडिया कहने से हुई। यही इंडस और इंडिया आगे चलकर हिन्दू और हिन्दुस्तान हो गए।
इस आधार पर अगर विदेशी विद्वान यहाँ के सभी निवासियों को हिन्दू मानते हैं तो भला क्या आपत्ति हो सकती है, लेकिन आपत्ति तो उन लोगों को सबसे ज्यादा है जो ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ का नारा देते हैं। उनकी निगाह में हमारी धार्मिक मान्यताओं से परहेज रखने वाले अहिंदू हैं। ये अहिंदू उनके साथ बैठ तो सकते हैं, लेकिन उनका स्थान बराबरी का नहीं होगा। जब तक यह समानता स्वीकार नहीं की जाएगी, अहिंदू स्वयं को भारतीय कहलाने में तो गर्व महसूस करेंगे, लेकिन हिन्दू कहलाना कतई पसंद नहीं करेंगे।
फिर भारत तो ऐसा देश है जहां धर्म, अध्यात्म, संस्कृति और सामाजिक विचारों की अनेक धाराएं आकर समाहित हो गई हैं। हमारे देश में ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं जो किसी धर्म को नहीं मानते। उस वैदिक संस्कृति, आर्य सभ्यता पर भी उनका विश्वास नहीं है जिसे हिन्दुत्ववादी संगठन राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़कर देखते हैं। इसलिए हमारी राष्ट्रीय पहचान हिंदुत्व व हिन्दू की जगह भारतीय रहनी चाहिए। भाषा को भी संस्कृत, उर्दू, हिन्दी के पचड़े से दूर रखना चाहिए। हमारे पूर्वज भले चाहे किसी भी भाषा को सम्प्रेषण का माध्यम मानते रहे हों, लेकिन यदि हम जिस भाषा को पढ़-लिख नहीं सकते वह हमारी मातृभाषा नहीं हैं। ऐसा मानने में क्या हर्ज है?
जब हम अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हुए तब विभाजन का दंश झेलना पड़ा। पाकिस्तान का जन्म धर्म के आधार पर हुआ, लेकिन हमारे तत्कालीन नायकों ने बहुसंख्यक हिन्दू आबादी वाले देश को हिंदुस्थान मानने की बजाय ‘इंडिया दैट इज भारत’ कहा। हमने धार्मिक आधार पर बॅंटवारे को सिरे से नकार दिया। हम लम्बे समय तक भारत विभाजन के लिए जिन्ना की कट्टरवादिता और हिन्दू-मुस्लिमों के बीच अविश्वास की गहरी खाई को दोषी मानते रहे, लेकिन इसके लिए हमारे इतिहासकारों ने कभी भी सुल्तानों और मुग़ल बादशाहों के अत्याचारों, धर्म परिवर्तन, आस्था स्थलों की तोड़-फोड़ को दोष नहीं दिया, वरन हमने अंग्रेजों की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति को हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्यता का दोषी माना।
अब जो प्रयास इतिहास पुनर्लेखन को लेकर हो रहे हैं वे इन स्थापित धारणाओं के विपरीत हैं। विभाजन के आधार को यदि पुनर्जीवित कर इसे धार्मिक आधार देने का प्रयास सफल होता है तो इसका मतलब यही होगा कि जिन्ना, गोलवलकर, सावरकर एक ही हैं। जिन्ना ने यदि भारत को इस्लाम के नाम पर विखंडित कर दिया तो हिंदुत्व के नाम से यह नया प्रयास एक और विखंडन को जन्म देगा।
भारतीय मानसिकता, जिसका मूलाधार वेदान्त में निहित है, राज धर्म की बात करती है। वह शासक से अपेक्षा करती है कि धर्म, जाति, विचारों के आधार पर प्रजा के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए।
भारत के संविधान निर्माताओं में बहुसंख्यक सदस्य वेद-पुराण में वर्णित राजनीतिक सिद्धांतों व नीति उपदेशों से प्रेरित थे। वे महात्मा गांधी के अनुयायी नहीं, तो प्रशंसक अवश्य थे। उन्होंने जिस संविधान की रचना कर भारत के लोगों को समर्पित किया था उसमें धर्म आधारित राज्य को तरजीह देने की जगह धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढाँचे में शामिल किया गया था।
यदि भारत के संविधान का आधार हिन्दू धर्म होता तो क्या होता? यह कल्पना ही मन को झकझोर देती है। हमारे दिमाग में सीरिया, सऊदी अरब, ईरान, पाकिस्तान के अवाम का चित्र आ जाता है। भारत का संविधान भारतीय लोगों का संविधान है, वह हिन्दू संविधान नहीं है। इसीलिए यह देश हिन्दुस्थान नहीं भारत है और यहाँ के निवासी भारतीय हैं।
इतना कहने मात्र से हम साम्प्रदायिकता के जहर से मुक्त नहीं हो सकते। देश की बहुसंख्यक आबादी को यह भरोसा दिलाने की आवश्यकता है कि भले संविधान के अनुच्छेद 25 (धर्म को मानने और प्रचार करने का समान हक), अनुच्छेद 26 (धार्मिक संस्थाओं की स्थापना और पोषण की स्वतंत्रता), अनुच्छेद 28 (शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 29 (नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार) आदि प्रावधान अल्पसंख्यकों में भेदभाव-रहित राज्य की कल्पना के लिए जोड़े गए हैं, लेकिन वे बहुसंख्यकों के अधिकारों का हनन नहीं करते और इन अनुच्छेदों के प्रावधान उन्हें भी अपने धर्म का पालन करने संबंधी पर्याप्त छूट देते हैं।
अल्पसंख्यकों को भी कतिपय मामलों में अपने विचार बदलने होंगे। वे भले ही हिन्दू आदर्शों को अपना नहीं मानें, लेकिन कुतबुद्दीन ऐबक, अलाउद्दीन खिलजी, औरंगजेब जैसे धर्मान्ध मुस्लिम शासकों को, जिन्होंने राजधर्म निभाने में चूक की, अपना आदर्श नहीं बताएं। उन्हें गैर-कानूनी व आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त अपने सजातीय बंधुओं की न केवल भर्त्सना करनी होगी, वरन उन्हें प्रश्रय देना भी बंद करना होगा। ऐसा करने में यदि उनकी जान भी चली जाय तो उन्हें उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। देश की एकता और अखंडता अक्षुण्ण रखने के लिए कम-से-कम इतने बलिदान की अपेक्षा तो की जा सकती है।
मुसलमानों में भी बहुत सी सामाजिक कुरीतियाँ, जैसे-बहु-पत्नी प्रथा, पर्दा प्रथा, उत्तराधिकार, तलाक, असमानता आदि हैं। उन्हें इन पुरातन नियमों में परिवर्तन के लिए स्वयं आगे आना होगा। कुरआन ईश-निंदा की इजाजत नहीं देता। बहुसंख्यक समुदाय भी प्राय: अल्लाह, पैगम्बर साहब के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करता है, लेकिन कुछ मामलों में चूक हो ही जाती है। ऐसे में मुस्लिम समुदाय को फतवा देने से बचना चाहिए। अगर ऐसे कुछ उपाय मुसलमान करेंगे और सरकारें भी धार्मिक आधार पर आयोजनों से परहेज करेंगी तो यह देश भारत के संविधान के अनुसार चलता रहेगा। (सप्रेस)