— राजकुमार सिन्हा —
धरती पर पानी की कुल मात्रा लगभग 13,100 लाख घन किलोमीटर है। इस पानी की लगभग 97 प्रतिशत मात्रा समुद्र में खारे पानी के रूप में और लगभग 3 प्रतिशत मात्रा (390 लाख घन किलोमीटर) स्वच्छ पानी के रूप में धरती पर अनेक रूपों में मौजूद है। इस साफ पानी का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा धरती के ऊपर और लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा धरती के नीचे विभिन्न गहराइयों में मिलता है। भारत की धरती पर पानी की मात्रा 4000 लाख हेक्टेयर मीटर आँकी गयी है तथा भूजल भंडार की मात्रा 396 लाख हेक्टेयर मीटर है।
इस सब के बावजूद जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व में लगभग तीन अरब लोग जल संकट की चपेट में हैं। नीति आयोग के अनुसार 2030 तक भारत के 40 प्रतिशत लोगों की पहुँच पीने के पानी तक नहीं होगी। देश में 15 वर्ष पहले 15 हजार नदियाँ और 75 साल पहले 30 लाख कुएँ, तालाब और झील थे जिनमें से 4500 नदियाँ सूख गयीं और 20 लाख कुएँ, तालाब और झील गायब हो गए।
पाताल में प्रतिवर्ष जा रहे 120 घन किलोमीटर भूगर्भीय जल के बदले प्रतिवर्ष लगभग 190 घन किलोमीटर जल निकाला जाता है। यानी वर्षा आदि से भूमि के अंदर जाने वाले और निकाले जाने वाले पानी में 70 घन किलोमीटर का अंतर रह जाता है। मध्यप्रदेश में हर साल भूजल करीब 4 इंच नीचे जा रहा है। पिछले दस साल में 40 इंच यानी सवा तीन फीट तक नीचे जा चुका है। यह इसलिए कि पानी क्षमता से ज्यादा निकाला जा रहा है, लेकिन रीचार्जिंग पर ध्यान नहीं है, जबकि प्रदेश की जमीन में 75 लाख घन मीटर (एमसीएम) पानी को समाने की क्षमता है।
भारत की जल नीति में पानी के उपयोग की प्राथमिकताओं का उल्लेख तो है, परंतु विभिन्न कामों में लाए जाने वाले पानी की सीमाओं का उल्लेख नहीं है। नतीजे में हर साल करीब 90 खऱब लीटर पानी बिना उपयोग के बह जाता है। भूजल विशेषज्ञ जॉन शेरी (2020 के ‘स्टॉकहोम वाटर प्राइज’ के विजेता) के शब्दों में ‘भूजल पृथ्वी की रक्षा प्रणाली है।’
जाहिर है, ऐसे में प्रकृति के प्रसाद की तरह मुफ्त मिलने वाला पानी बिकाऊ माल में तब्दील हो रहा है। पीने के पानी का कारोबार 1.80 लाख करोड़ रु का हो गया है जो अगले कुछ सालों में 4.5 लाख करोड़ का हो जाएगा। बोतलबंद पानी में सर्वाधिक 40 प्रतिशत हिस्सेदारी अकेले बिसलेरी की है। जैसे-जैसे बोतलबंद पानी का बाजार बढ़ रहा है, कंपनियाँ भूजल दोहन, भूमि उपयोग, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन, कार्बन उत्सर्जन आदि को प्रभावित कर रही हैं।
ऐसा नहीं है कि हमारे पूर्वज पानी के मामले में लापरवाह थे। गोंडकाल में अधिकांश लोगों की आजीविका का आधार खेती और उससे जुड़ी सहायक गतिविधियाँ थीं, लेकिन गोंड राजाओं द्वारा बनाए गए अधिकांश तालाब नहर-विहीन थे। इसका मतलब है कि तालाबों का उपयोग आधुनिक तरीके से खेतों की सिंचाई के लिए नहीं, बल्कि मुख्यतः नमी और भूजल स्तर बढ़ाने, जलवायु का संतुलन कायम रखने, पेयजल स्रोतों को भरोसेमंद बनाए रखने, आजीविका (मछली, सिघाड़ा, कमलगट्टा और खेती) को स्थायित्व प्रदान करने के लिए होता था। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर, जबलपुर, सागर और दमोह जिलों की गहरी काली मिट्टी में नमी संचित करने और इसी आधार पर रबी में बिना सिंचाई बढ़िया फसल लेने की देशज व्यवस्था प्रचलित थी।
कहते हैं कि पौराणिक राजा विराट ने मंडला जिले के मवई इलाके में अधिकांश तालाब बनवाए थे। इस मामूली-से कस्बे में 150 तालाबों का जिक्र तो अंग्रेजों के गजेटियर में भी मिलता है। बैगाओं की खास जीवन शैली, खेती-पाती और समाज-व्यवस्था को देखते हुए अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी में उन्हें एक खास इलाका ‘बैगाचक’ बनाकर उसमें बसाया था। बैगा एक तरह से घुमंतू समाज के लोग रहे हैं इसलिए पानी का उनका साधन हर साल नदी-नालों के किनारे झिरिया खोदकर ही रहा है। इन झिरियों के किनारे ही बैगाओं की संस्कृति, समाज फला-फूला है।
भारतीय संविधान में पानी के मामले में केंद्र और राज्य सरकारों के दायित्वों को रेखांकित किया गया है और अंतरराज्यीय नदियों के संचालन एवं विकास का उल्लेख किया गया है, परंतु इस पूरी इबारत में समाज का कोई उल्लेख नहीं है। इसी तरह जलनीति में पानी के उपयोग का नियोजन और क्रियान्वयन की प्राथमिकताओं का जिक्र है पर इसमें से समाज गायब है।
अर्थव्यवस्था में भूमंडलीकरण के बाद 1999 में विश्व बैंक ने भारत में पानी के परिदृश्य पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत आनेवाले दिनों में जल प्रबंधन की चुनौतियों का मुकाबला नहीं कर सकेगा। इसलिए आवश्यक है कि वह विश्वबैंक द्वारा सुझाई तकनीक का पालन करे। लोग मानते हैं कि भारत की ‘राष्ट्रीय जलनीति 2002’ में निजीकरण का उल्लेख विश्वबैंक की इसी रिपोर्ट के बाद आया। विश्वबैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के प्रभाव में दुनिया भर में नीतिगत बदलाव हुए हैं। भारत में भी तकनीकी सहायता के कारण जलक्षेत्र में बड़े नीतिगत बदलाव किये गए हैं जिससे जलप्रदाय व्यवस्था के परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव आया है।
इस नीति का एक प्रभाव ‘छोटे तथा मझोले नगरों की अधोसंरचना विकास योजना’ (यूआईडीएसएसएमटी) के तहत मध्यप्रदेश की खंडवा और शिवपुरी की जलप्रदाय योजनाओं को पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरिशप) मॉडल के तहत निजी कंपनियों को सौंपा जाना है। इन योजनाओं में लगने वाला 90 प्रतिशत धन देश की जनता का है, लेकिन छोटा निवेश करने वाली कंपनियों को मालिक बना दिया गया है जिसे स्थानीय समुदाय ने स्वीकार नहीं किया है।
अब इस योजना को समाप्त कर ‘मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना’ बनाई गयी है। 2013 में प्रदेश सरकार ने ‘मध्यप्रदेश जल विनियमन कानून’ पारित किया था। इस कानून के तहत बनने वाला ‘जल नियामक आयोग’ प्रदेश में पानी का बाजारू उपयोग निर्धारित करेगा। समुदाय की आर्थिक हैसियत बिजली की तरह जलक्षेत्र को भी उनकी पहुँच से दूर कर देगी।
वैश्विक आर्थिक संकट का लाभ उठाते हुए अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थान पानी के निजीकरण पर जोर दे रहे हैं। यूनान, पुर्तगाल, इटली और आयरलैंड में इन प्रयासों का तीव्र विरोध हुआ, जिससे उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा है। यह संघर्ष बोलीविया के कोचाबाम्बा और अमरीका के अटलांटा में पानी के निजीकरण के खिलाफ हुए संघर्ष की तरह सफल हुआ है।
ऐसे में पानी सरीखे बुनियादी संसाधन को लेकर क्या किया जाए? अव्वल तो जलस्रोतों को चिह्नित करके उनके संरक्षण, प्रबंधन के लिए ग्राम सभा में चर्चा कर इसकी जिम्मेदारी गाँव समिति को दी जाए। दूसरे, समाज के पारंपरिक जल संरक्षण, प्रबंधन और नियंत्रण के तरीके के लिए गाँव स्तर के अध्ययन दलों का गठन किया जाए। तीसरे, पास के नदी-नाले के पानी को बरसात में रोकने हेतु बोरी बंधान या अन्य उपाय किये जाएँ, और चौथे, वर्षाजल को रोकने के लिए गाँव के आसपास जल संचय व्यवस्था कायम की जाए। संभव है, इन उपायों से हम अपने पानी को लंबे समय तक बचा पाएँ।
(लेखक बरगी बाँध विस्थापित संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं)
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