शहंशाह आलम की आठ कविताएँ

1
पेंटिंग- मनु पारेख
पेंटिंग- मनु पारेख

1. असल लतीफ़ा

मैंने कुछ लतीफ़े सुनाए

पहला था : राजा सर्वव्यापी होता है
दूसरा था : हर राजा को यही लगता है
कि वह सर्वगुण है और सर्वज्ञाता भी
तीसरा था : हर राजा को उसका भ्रम
उसे एक न एक दिन ले डूबता है

मेरा दुर्भाग्य कि मेरे राजा को लगा
ये सारे लतीफ़े उसी के लिए हैं

असल लतीफ़ा यही था कि सारे लतीफ़े
मेरे राजा के लिए ही तो थे।

2. डुगडुगी

डुगडुगी मुनादी करने का छोटा नगाड़ा
जिसे मैंने मध्यप्रदेश के कटनी स्टेशन पर
खिलौने बेचने वाले के हाथों में बजते हुए देखा

खिलौने बेचने वाले की यह मुनादी
उसके अपने पेट के लिए थी
उसकी बीवी के लिए बच्चों के लिए
उसके वाल्दैन होंगे तो उनके लिए भी थी

चमड़ा चढ़ा हुआ छोटे मुँह का यह बाजा
जिसे बंदर को नचाने वालों को
भालू को नचाने वालों को
जादू का खेल दिखाने वालों को
बजाते हुए मैंने देखा था बहुतों दफ़ा
पेट का व्याकरण सुधारने की ख़ातिर

पेट का व्याकरण सबसे कठिन जो होता है

सारे व्याकरण को छोड़
यह डुगडुगी
आज मैं बजाना चाहता हूँ
उस खिलौने बेचने वाले के एवज़
सबके भीतर की मुहब्बत को जगाने के लिए
जो मुहब्बत सोई पड़ी दिखाई देती है
आदमी को मदद पहुँचाने के हर बुरे वक़्त में।

3. दरवेश

मैं जिस दरवेश से मिला दिन के उजाले में
या रात की नदी के बहते सन्नाटे के पास
उन्हें बस दूसरों के लिए दुआएँ करते देखा

उनकी दुआएँ दरख़्त को हरा रखतीं हमेशा
ऊबड़-खाबड़ पहाड़ को मीठे पानी का स्रोत बनातीं
खॅंडहर को अबाबील के रहने का ठिकाना कर देतीं
और कश्ती को तेज़ हवाओं से बचे रहना सिखातीं

मैंने हर दरवेश से अपनी मुलाक़ात के वक़्त
जब कहा बस यही कहा लरज़ते होंठों से
कि मुझे दुआएँ कहाँ माँगनी आईं अपने ख़ुदा से
जैसे आप माँगते हैं ख़रगोश के नरम बालों-सी दुआएँ

दरवेश ने मुझसे बस यही कहा अपनी चदरिया सॅंभाले
कि ख़ुदा से माँगने वाले का उच्चारण जितना बिगड़ा हो
उसकी दुआएँ उतनी जल्दी सुनी जाती रही हैं अमूमन

सच में, मेरा भी उच्चारण कितना ख़राब रहा है
मेरे बचपने से लेकर दाढ़ी के सुफ़ैद होने के दिनों तक

तभी मेरी कोई दुआ ख़ाली नहीं गई कभी

तभी हत्यारा किसी की हत्या करके बच निकलता है
तब भी उसकी तस्वीर मेरी नज़्म में उभर आती है
हू-ब-हू उसकी असली शक्ल के साथ।

4. निर्वासन

मैं खोजता हूँ तट पर पड़े हुए टूटे हुए जहाज़ के अवशेष
मुझे मिलता है सन्नाटा साँय-साँय करता हुआ किनारे पर

अब मैं उस टूटे हुए जहाज़ को कहाँ ढूँढ़ता फिरूँ
जिस पर चढ़कर मैं एक अलग रंग से रॅंग जाता था

दरज़ी के घर जाता हूँ तो उसकी सिलाई मशीन ख़ामोश मिलती है
बढ़ई के यहाँ या मोची के यहाँ जाता हूँ तो जोश ठंडा पड़ जाता है

छाता बनाने वाले के पास जाता हूँ तो वह भी ख़ुश कहाँ लगता है
चाय वाली के पास जाता हूँ तो उसके चेहरे की चमक ग़ायब मिलती है

हमारी ख़ुशियों में भूख की दहशत ने अपनी जगह बना ली है धकियाते

सन्नाटे और भूख की यह अनुगूँज मैं नहीं चाहता हूँ
किसी दरज़ी किसी बढ़ई किसी मोची के दिन-रात में

मज़ेदार बात यह है कि हमारी ख़ुशियों का यह निर्वासन
बहुत सारे लोगों को बस इसलिए पसंद है कि
किसी छाता बनाने वाले की या चाय बेचने वाली की ख़ुशियों में
सेंधमारी करके उनकी ख़ुशियाँ इस तरह बची रह जाती हैं
उनके अपने बनाए हुए समुद्र के हर हिस्से में।

पेंटिंग- कौशलेश पांडेय
पेंटिंग- कौशलेश पांडेय
5. गेरुआ
(शाहरुख़ ख़ान के लिए)

गेरुआ एक रंग है जीवन का मटमैलापन लिये हुए निरंतर
जैसे कि हमारा शरीर है गेरू मिट्टी में सराबोर किसी भाषा की तरह
जैसे कि गेहुँआ भी एक रंग है गेहूँ जैसा हल्का बादामी

रंगों के बारे में जितना कुछ तुम जानते हो
फ़िल्में बनाते हुए
या मैं जानता हूँ कविताएँ सोचते-लिखते समय शब्दों को छानते हुए

या फिर वही जानता है जो रंगरेज़ बना घूम रहा होता है समय के आर-पार
या फिर वह लड़की जो लगा गई है गाल पर रंग जैसा ही कुछ-कुछ

लेकिन रंगों को लेकर न तुम्हारी न मेरी न रंगरेज़
न रंगों से मुहब्बत करनेवाली लड़की का बयान आया
बयान आया भी तो उनका जिन्हें जीवन का कोई भी रंग
पसंद नहीं रहा कभी, उनकी नींद तक में भी नहीं

जब जीवन के रंग उन्हें पसंद नहीं तो फिर
उनका यह बयान
कि तुम्हें, मुझे, रंगरेज़ को या उस लड़की को
गेरुआ, गेहुँआ, हरा, नीला अथवा पीला रंग पसंद क्यों है
जैसा प्रश्न उछालकर किसी सुरंग किसी खोह में क्यों छिपा लेते हैं ख़ुद को

मैं ऐसों-वैसों को ठेंगा दिखाता हूँ जैसे कि वह लड़की
दिखाती रही है रंग-स्नान कर-करके उस रंगकुंड में

इस वक़्त जब गेरुआ ही गेरुआ फैला हुआ है
दृश्यपटल पर
पूर्ण हुई किसी इच्छा की तरह
पूर्ण हुए किसी स्वप्न की तरह
मैं भी तुम्हारे ही रंग में रॅंगा
बिलकुल गेरुआ-गेरुआ गाता हूँ
और गेहुँआ-गेहुँआ भी हर आखर हर भेद को
सत्य करता हुआ।

6. दुख की बात

कोई ठीक कर रहा है निरंतर
पृथ्वी के ज़ख़्म अपने गान से

वह लड़की टूट रहे बिखर रहे
अपने प्रेम के धागे को
समेटती-सहेजती है
विषाद को परे रखते हुए

पृथ्वी को प्रेम को
बचाने वालों की संख्या
लगातार कम हो रही है
इस दुनिया में
जोकि सबकी है
बगुलों तोतों की भी मेरी भी

दुख की बात यही है
इस छोटी-सी दुनिया में
हत्यारे लगातार बढ़ रहे हैं।

7. बोलना

अब सिर्फ़ राजा बोलता है
कुछ भी बोलने के नाम पर

वजह बहुत बड़ी नहीं है
बस इतनी-सी है कि
प्रजा ने बोलना छोड़ दिया है

लेकिन मेरी कविता
अब भी बोलती है
मेरे राजा के विरुद्ध।

8. असंगत

मेरी निगाहों के सामने अब जो कुछ भी है असंगत है

जिस राजा को मुझे रहने लिए एक घर देना था
वही राजा मेरे भाई के बने घर को ढा रहा था

जिस राजा को रोज़गार देने थे ढेरों
वही राजा मुफ़्त राशन बाँट रहा था खिखियाते

जिस राजा को धूप से बचने के लिए पेड़ लगवाने थे
वही राजा अपनी देखरेख में पेड़ों को कटवा रहा था
अपने लिए नई संसद को पेड़ों का रंग देने के लिए

जिस राजा को हत्या का विरोध करना था
वही राजा चुप था स्त्रियों के बलात्कार पर

जिस राजा को खाने-पीने के सामान की क़ीमत
कम करनी थी
वही राजा चुप था बाज़ार पूंजीपतियों को सौंपकर

जिस राजा को हथियारों की बिक्री पर रोक लगानी थी
वही राजा अब हथियारों के ढेर पर खड़ा था

और इतने कुछ के बाद भी राजा की प्रजा
थालियाँ पीट रही थी अपने राजा के पक्ष में।

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