— वीरेन्द्र भदौरिया —
गत वर्ष प्रधानमंत्री द्वारा उनके जन्मदिन पर श्योपुर जिलांतर्गत कूनो पालपुर अभयारण्य में विदेशों से लाए गए चीते छोड़े गए, बाद में कुछ और चीते आए। देश में विलुप्त हो चुके चीतों की पुनर्बसाहट से ग्वालियर चंबल अंचल ही नहीं पूरे देश में खुशी की लहर दौड़ गई थी। लेकिन एक साल बीतते बीतते कई चीतों के असमय काल कवलित होने से अब यह खुशी काफूर होने लगी है। आज यदि चीता परियोजना से जुड़े वन्य प्राणी विशेषज्ञों व वन विभाग के उच्चाधिकारियों की काबिलियत व कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं तो, इसमें गलत क्या है?
वस्तुत: कूनो पालपुर अभयारण्य के निर्माण का निर्णय गिर के शेरों की बढ़ती आबादी को देखते हुए उनके लिए दूसरा घर खोजने के अनुक्रम में समतुल्य पारिस्थितिकी के कड़े मानदंडों व उपयुक्तता के आधार पर बहुत छानबीन के बाद लिया गया था। सुप्रीम कोर्ट की सहमति मिलने के बाद मध्यप्रदेश शासन ने शेरों के स्वागत की पूरी तैयारी भी कर ली थी, लेकिन गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी जी ने गुजरात की पहचान खो जाने का भावनात्मक मुद्दा उठाकर मध्यप्रदेश राज्य को शेर देने से साफ साफ इनकार कर दिया था। तब से कूनो पालपुर उपेक्षा का शिकार होता चला गया, वन विभाग ने भी अपनी आंखें फेर लीं तथा शिकारी बेखौफ होकर वहां हिरन, खरगोश, चीतल, सुअर जैसे छोटे वन्य जीवों का शिकार करते रहे।
कूनो पालपुर में शेर तो नहीं आया पर शेरों के लिए बनाए गए इस बेहद खूबसूरत घर में विदेशी चीता को बसाने की सुगबुगाहट शुरू हुई तथा देखते ही देखते बड़ी हड़बड़ी में उड़नखटोला में बैठाकर अफ्रीकी चीते कूनो के लगभग वन्य प्राणी विहीन, वीरान और उजड़े वन्य क्षेत्र में शिफ्ट कर दिए गए।
जानकारों का मानना है कि चीतों के लिए वन्य प्राणियों की बहुतायत वाला ऐसा विस्तृत जंगल होना चाहिए जिसमें भरपूर संख्या में अन्य वन जीव मौजूद हों, दूर दूर तक फैले घास के मैदान व साल भर बहने वाली प्राकृतिक नदियां हों।
कोरोना महामारी आने के पूर्व एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी के साथ मुझे कूनो पालपुर अभयारण्य जाने का अवसर मिला, वहां वन विभाग के विश्राम गृह में ठहर कर दो दिन अभ्यारण्य का चप्पा-चप्पा देखा, लेकिन बमुश्किल केवल दर्जन भर दुबले-पतले डरे-सहमे हिरन, चीतल, खरगोश ही नजर आ सके। तब चीता लाने की कोई चर्चा शुरू भी नहीं हुई थी, लेकिन वन भ्रमण के दौरान हम इस बात की चर्चा करते रहे कि मान लीजिए, मोदी जी गिर के शेर देने की हामी भर भी देते तो शेर यहां आकर खाते क्या? शेर घास नहीं खाता लेकिन यहां तो छोटे वन्य जीवों के लिए भी ढंग की घास तक नहीं है। बरसात में बहने वाली कूनो नदी जाड़ा खत्म होते होते सूखने लगती है तथा गर्मियों में यत्र तत्र गड्ढों में भरा गंदला पानी बच रहता है। सेसई का पुरा, कराहल, वीरपुर, विजयपुर व श्योपुर अक्सर मेरा आना जाना होता था, जहां कभी घने जंगल हुआ करते थे, वहां अब जंगली झाड़ियां बची हैं।
सौ टके का एक ही सवाल है कि आपने मेहमान तो बुला लिये लेकिन उनके लिए पर्याप्त भोजन, पानी, घास के मैदानों का इंतजाम क्यों नहीं किया? यह सब किया जा सकता था, लेकिन शायद इन सब कार्यों के नाम पर सरकार से पहले मिली भारी-भरकम राशि के बंदरबांट का खुलासा होने का डर जो था, कदाचित इसीलिए असलियत को छिपाया जा रहा है। स्थानीय मीडिया में ऐसी खबरें भी आई थीं कि चीतों के आने के बाद उनकी खुराक के लिए दूसरे अभयारण्यों व नेशनल पार्कों व जंगलों से चोरी-छिपे हिरन, चीतल आदि वन्यजीव लाकर कूनो पालपुर में छोड़े जा रहे हैं। आखिर यह जुगाड़ कितने दिन चलता? यह कार्य बहुत पहले किया जाना था, चीता आने के बाद बतौर खुराक छोड़े गए वन्यजीवों की वंशवृद्धि संभव ही नहीं है।
अभयारण्य से जुड़े मजदूरों को यह कहते भी सुना गया था कि चीतों को सड़ा-गला या खराब क्वालिटी का मांस परोसा जा रहा है। कहीं कथित इंफेक्शन की वजह यही दूषित आहार तो नहीं है? चीता परियोजना अपने आप में एक बड़ा घोटाला है, आर्थिक अनियमितताओं से कहीं अधिक यह असलियत को छिपाने का मामला है। चीता लाने के दो तीन साल पहले यहां घास उगाई जाती, बारहों महीने पानी की उपलब्धता के लिए जलाशय, कृत्रिम नदी प्रणाली विकसित की जाती तथा प्रदेश के दूसरे हिस्सों से हिरन, चीतल , खरगोश आदि जंगली जीव लाकर छोड़ दिए जाते और उनकी आबादी बढ़ने का इंतजार किया जाता, उसके बाद ही चीता लाए जाते तब शायद यह नौबत न आती। इतनी जल्दबाजी की कतई जरूरत न थी, पर्याप्त तैयारी के बाद लागू करने पर इस महत्वाकांक्षी परियोजना की सफलता सुनिश्चित थी।
हड़बड़ी में बड़ी गड़बड़ी हो जाती है। विशेषज्ञ कुछ भी बहाना खोजते रहें, दरअसल चीतों की मौत पर्याप्त खुराक न मिलने से हो रही है, इस सच को जब तक कबूला नहीं जाएगा, तब तक किसी समाधान की आशा करना मुश्किल है।
चीतों की लगातार हो रही मौतों की असली वजह को इंफेक्शन, वायरस अटैक, क्वारेंटीन, या एडजस्टमेंट प्राब्लम जैसी तकनीकी शब्दावली की आड़ में कब तक छिपाया जाएगा? देश में चीता की पुनर्बसाहट का प्रधानमंत्री जी का विचार बिल्कुल ठीक था, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि बिना समुचित तैयारी के चीता लाने की जल्दबाजी में कहीं बड़ी चूक हो गई है। लीपापोती शुरू हो गई है। अब यह कहा जा रहा है कि कुछ चीते गांधी सागर बांध से लगे जंगलों में बसाए जाएंगे। कुल मिलाकर गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार अधिकारी अपने बचाव की राह ढूंढ़ ही लेंगे।
बहरहाल, मध्यप्रदेश सरकार व उसके वन विभाग की अदूरदर्शिता, अगंभीरता व अनुत्तरदायित्वपूर्ण रवैए से बेहद सुंदर व शांत कूनो पालपुर अभयारण्य को देश के वन्यजीव पर्यटन मानचित्र पर यथोचित स्थान मिलने का सपना एक बार फिर अधूरा होता दिखाई दे रहा है।
प्रस्तुति : विनोद कोचर