— अरविन्द मोहन —
राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके से आकर गंगा किनारे बसे कलकत्ता में अपना व्यापार फैलाने वाले सीताराम सेकसरिया ने अपने दम पर जाने कितने काम किये इसका हिसाब मुश्किल है। और उन्होंने कलकत्ता और मुल्क के कितने लोगों, खासकर मारवाड़ियों के लिए प्रेरणा का काम किया यह भी गिनना मुश्किल है। पर अपनी प्रेरणा वे जमनालाल बजाज को मानते थे और गांधी जी के जाने के बाद भी उतनी ही सक्रियता बनाये रहे। सेकसरिया जी का काम न सिर्फ मारवाड़ी समाज द्वारा सिर्फ धन कमाने की भूख वाली अवधारणा को खत्म करता है बल्कि बंगाल के ऊपर लगे इस धब्बे को भी काफी हद तक धो देता है कि वहाँ के कांग्रेसी सिर्फ नेता बनना चाहते थे, पार्टी संगठन के काम और रचनात्मक कामों में उनकी रुचि न थी। उन्होंने जीवन भर खूब काम किया और कभी यश या पद के चक्कर में न आए। बल्कि उनके साथ बांग्लाभाषी कलकत्ता में हिन्दी भाषी होने और गांधी तथा सुभाष दोनों से प्रभावित होने जैसी दुविधाएँ भी जीवन भर लगी रहीं लेकिन उन्होंने इसको बाधा नहीं बनने दिया। और अपने परिवार तथा व्यापार की चिन्ता भी उन्होंने कभी हावी न होने दी। बल्कि सक्रियता बढ़ने के बाद व्यापार का काम पार्टनरों के हवाले कर दिया।
उनका जन्म शेखावटी के नवलगढ़ में 1892 में हुआ था और मामूली अक्षर ज्ञान के बाद वे कलकत्ता आ गये थे (वैसे यह उल्लेखनीय है कि अपने समय में नेशनल लाइब्रेरी से सर्वाधिक किताबें वे पढ़ते थे)। माँ-बाप का निधन भी हो गया था। उन्होंने मुनीमी शुरू की और कुछ समय बाद शेयर बाजार में खेलना शुरू किया और अच्छा पैसा कमाया। पर कलकत्ता का माहौल घोर राजनीतिक था और जमनालाल बजाज तथा हनुमान प्रसाद पोद्दार (गीता प्रेस वाले) की प्रेरणा से मारवाड़ी युवकों का एक समूह सक्रिय हुआ जिसमें बसंतलाल मुरारका, रामकुमार भुवालका, प्रभुदयाल हिम्मतसिंह, घनश्यामदास बिड़ला और भगीरथ कनोड़िया के साथ सीताराम सेकसरिया भी थे। राष्ट्रीय आन्दोलन में हिस्सेदारी के चलते उन्हें 1930, 1932, 1940 और 1942 में जेल जाना पड़ा। इस दौरान काँग्रेस के बड़े नेताओं का प्रभाव बढ़ा और जैसा पहले कहा गया है सेकसरिया जी की दुविधा भी बढ़ी। नेता सुभाष बाबू थे और उनके काफी गुण प्रभावित करते थे लेकिन पक्ष गांधी का सही लगने लगा।
इस बीच उन्होंने मारवाड़ी समाज की कुरीतियों के खिलाफ भी खूब सक्रियता रखी और इसमें बसंतलाल मुरारका जैसे साथियों की मदद मिली। बाल विवाह, विधवा विवाह पर रोक, परदा प्रथा, श्राद्ध भोज वगैरह का विरोध मौके पर जाकर शुरू हुआ और इसका असर हुआ। और इसमें उनकी पत्नी और बेटी समेत परिवार की भागीदारी भी हुई। नवयुवकों का खूब साथ मिला तो यह आंदोलन दूसरे प्रदेशों में भी फैला लेकिन पुरातनपंथियों ने सेकसरिया परिवार के खिलाफ भी काफी कुछ किया।
लेकिन सीताराम सेकसरिया मुख्य रूप से गांधी और राष्ट्रीय आन्दोलन के रचनात्मक कामों को पूर्वी भारत और बाद में उत्तर और पश्चिम में भी बड़े पैमाने पर फैलाने के लिए ही जाने जाते हैं। 1929 में उन्होंने कलकत्ते के सबसे बड़े व्यावसायिक केंद्रों में से एक पर शुद्ध खादी भण्डार की स्थापना की जिसका उद्घाटन महात्मा गांधी ने ही किया था। फिर सतीश दासगुप्ता के खादी के काम से जुड़े और उसका विस्तार बंगाल से बाहर करने में मदद की। 1939 में राजस्थान चरखा संघ से जुड़कर खादी आश्रम और खादी भण्डार शुरू किया। इसका उद्घाटन जमनालाल बजाज ने किया था।
असल में राजस्थान भी सेकसरिया जी की राजनीतिक सक्रियता का केंद्र बना क्योंकि वे यहाँ अँग्रेजी शासन, रियासती राज और स्थानीय ठाकुरों के तिहरे शोषण से त्रस्त लोगों का हाल जानते थे और उन्होंने हीरालाल शास्त्री के साथ मिलकर प्रजामण्डल आन्दोलन चलाया। प्रजामण्डलों की स्थापना में उनकी प्रमुख भूमिका थी। उन्होंने अपने मातृप्रदेश में शिक्षा की बदहाली देखते हुए वहाँ अनेक शैक्षिक संस्थान स्थापित किये। वनस्थली विद्यापीठ की स्थापना में भी उनकी प्रमुख भूमिका थी।
बल्कि लड़कियों को अच्छी शिक्षा दिलाना उनके जीवन के बड़े उद्देश्यों में रहा और उन्होंने इसके लिए काफी काम किये। इन मामलों में कर्वे दम्पति और पंजाब के लाल देवराज उनकी प्रेरणा के स्रोत थे। इसी प्रेरणा से उन्होंने कलकत्ता में श्री शिक्षायतन कन्या विद्यालय और कन्या कॉलेज, मारवाड़ी बालिका विद्यालय, अभिनव भारती, संगीत श्यामला, मातृसेवा सदन आदि की स्थापना की और इनके व्यवस्थित संचालन में दिन-रात एक किया। ज्ञानपीठ से छपी उनकी दो खण्डों वाली डायरी पढ़ने पर उनकी चिंता के केंद्र में यही स्कूल और मारवाड़ी समाज की कुरीतियाँ लगती हैं। वनस्थली विद्यापीठ के अलावा उन्होंने बिहार महिला विद्यापीठ और प्रयाग महिला विद्यापीठ स्थापित करने में भी प्रभावी भूमिका निभायी।
सेकसरिया को साहित्य से भी काफी लगाव था और खासतौर से हिन्दी से। वैसे रवि बाबू से भी उनका संबंध काफी अच्छा था और शान्ति निकेतन के आर्थिक संकटों को निपटाने में भी उनकी सक्रियता रही। वहाँ का हिन्दी भवन बनवाने में सेकसरिया जी की सक्रियता सबसे ज्यादा थी। महात्मा गांधी द्वारा स्थापित राष्ट्रभाषा प्रचार सभा का कामकाज पूर्वी भारत में उन्होंने फैलाया। असम, बंगाल और ओड़िशा में अनेक स्कूल इसी सिलसिले में चलाये गये। उन्होंने भारतीय संस्कृति संसद की शुरुआत की जो अभी तक सक्रिय है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रफुल्ल चंद्र राय से भी उनकी मैत्री थी। और हिन्दी के अधिकांश साहित्यकारों से उके घरेलू किस्म के संबंध थे। काका कालेलकर, महादेवी वर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सुनीतिकुमार चटर्जी और गंगाशरण सिंह जी ऐसे ही लोग थे। और इनकी सलाह पर ही उन्होंने भारतीय भाषा परिषद जैसी संस्था खड़ी की जिसकी सक्रियता अभी भी बनी हुई है।
सीताराम जी ने अपने अंदर भी स्वाध्याय से काफी तरक्की की। जैसा शुरू में कहा गया है वे नेशनल लाइब्रेरी से किताबें लेकर खूब पढ़ाई करते थे। फिर उन्होंने नियमित डायरी लिखनी शुरू की जो तब के दौर का सच्चा और पक्का इतिहास बताता है। इसका प्रकाशन होना चाहिए और कम से कम इसकी प्रतियां बनाकर शोधार्थियों को उपलब्ध करानी चाहिए।
उनके योग्य पुत्र अशोक सेकसरिया ने काफी लगकर इसके एक हिस्से का संपादन किया जो दो खण्डों में ज्ञानपीठ से छपा है। पर उन्होंने लिखने का सिलसिला दूसरी जगहों पर भी शुरू किया और कुछ समय में ही तभी के आंदोलन और व्यक्तियों के संस्मरण की तीन दिलचस्प किताबें पूरी हो गयीं।
अब वे नहीं हैं पर उनके काम और उनकी बनायी संस्थाएं उनका नाम अमर कर रही हैं तथा बनते-बिगड़ते भी समाज का काफी काम कर रही हैं। कई का स्वरूप विशाल हुआ है तो कई लड़खड़ा रही हैं और कई काल के गर्त में समा चुकी हैं।
(प्रस्तुत लेख सेतु प्रकाशन से प्रकाशित अरविन्द मोहन की पुस्तक ‘गांधी कथा’ के दूसरे खंड से लिया गया है। पूरी गांधी कथा ‘पाँच खंडों’ में है।)