1. एक अनागरिक का दुख
मां को रेल या बस का टिकट नहीं कटाने आता
जैसे एक पक्षी भटकता रहता है मां बिन
कहीं भी जाने में डरती हैं मां
जबकि शादी के समय आठवीं पास थी
मां से तेज उस समय एक चिड़िया थी जो पिंजरे में बंद होने के बाद भी पूरी रामायण कर ली थी याद
और श्रीमद्भागवत गीता भी
अब चिड़िया भी नहीं गाती कंठ से
कि आए रुलाई
पैंतीस साल में एक बार पिता संग बक्सर गईं मां
लगभग उसी समय बस में भी
तब भिखमंगे भी एकसाथ यात्रा करते थे
आज तो बांह पकड़ उतार देता है खलासी
मेरे पैदा होने के बाद मैट्रिक किया मां ने
जब मैंने मैट्रिक किया उसके पांच साल बाद
मां पिंजरोईं गांव की है
आश्चर्य है कि पिंजरोईं में कोई पिंजरा नहीं है
मेरा गांव विष्णुपुरा है
और यहां भी कोई विष्णु नहीं है
हमारे वंशज हरिगांव भोजपुर के थे
राजा भोज के क्षेत्र से
उसके आगे का पता नहीं है
और नहीं है उस समय का आधार कार्ड
आर्यावर्त्त के वासी हैं हम
बस इतना पता है
ग्लोब पर कहीं नहीं दिखता हमारा नाम
या गांव का पता
खेत खेसरा खतियान सब चूल्हे में झोंक दिया चाची ने
कैसे बताऊं पता सही
कहां जाऊं सुरक्षित
आधी उम्र बीत जाने के बाद
कौन सी सरकार बनाऊं
कि बन जाए बात
हम अपने क्षेत्र के नागरिक हैं
चाहे माने या न माने सरकार
2. मोहनिया
हर जगह का अपना इतिहास है
गिलहरी का भी है
इतिहास के पन्ने तो अच्छे रहे हैं
यह जरूरी नहीं है कि
जगह भी अच्छी हो
अच्छा होने का भी एक इतिहास और दर्शन है
चिड़िया जब दिखाई देती है
घायल होती है
तो उसके इलाज पर किसी का ध्यान नहीं जाता
इतिहास के बारे में सोचते हैं लोग
चिड़ियों का भी कोई इतिहासकार हो !
कुछ लोग चिड़ियों के धर्म और अध्यात्म के बारे में पूछने लगेंगे।
चिड़िया कैसे बता पाएगी ये सब नीति
मनुष्य ने चिड़ियों और गिलहरियों से
नफरत करना सीख लिया है
और कुछ जानवरों को बाँध कर इतिहास बनाने की कोशिश की जा रही है।
एक दिन कभी मनुष्य बँध जाएगा
तब दुनिया के तमाम पशु पक्षी विचरण करने लगेंगे
और सब जगह खुशनुमा माहौल होगा
नहीं तो वृक्षों के पास जाने के लिए पासपोर्ट की जरूरत पड़ सकती है
ऐसे में दो लोटा पानी रख दीजिए घर के पास
जहाँ गर्मी में छोटे जीव मुँह डुबा डुबाकर जी भर पी सकें…!
3. साइकिल
घर में साइकिल है
पहले दुकानदार ने रखा था
आज मेरे पास है
पैसे वैसे की बात छोड़ दीजिए
साइकिल है मेरे पास
रोज़ साफ करता हूँ
उस पर हाथ बराबर रखता हूँ
सुबहोशाम निहारता हूँ
साइकिल को धोता हूँ
चलाता नहीं हूँ
रोज़ उस पर स्कूल-बैग टॅंगा रहता था
बाजार से लौटती थी बेटी
तो घर लौट आता था जैसे
अब नहीं जाती
एक सब्जी भी लाने
टिफ़िन के रस नहीं लगते चक्के में
वह चुपचाप खड़ी है
उसे गाँव नहीं जाना
हवा-सी चलती
और उड़ती साइकिल
हवा से ही बातें करती
साइकिल की पिछली सीट पर एक कागज की
खड़खड़ाहट सुनाई देती है
उसमें लिखा है- पापा ! इस साइकिल को बचाकर रखना
किसी को देना नहीं।
साइकिल को बारह बजे रात को भी देखता हूँ
कल डभ सैम्पू से नहलाऊँगा
साइकिल कम बेटी ज्यादा याद आएगी
देखकर आया हूँ- आपके पास से।
थोड़ी देर हो चुकी है
एक खिलौना को रखने में
वह खिलौना नहीं जीवन है
जीवन की साइकिल है ..l
4. बड़की माई का गंगा स्नान
वह रोज गंगा में नहा आती थीं
बिन चप्पल जूते के तेज पाँव से जाकर
छपाक से गंगा में कूद जाती थी
और बिजली की तरह बाहर निकल आती थी
जैसे कोई अंतरराष्ट्रीय तैराक होती हैं
दर्शक पब्लिक थी वहांँ
कोई अधिकारी नहीं था
अधिकारी निवास वहॉं जरूर था
बड़की माई जिनका नाम भवानी देवी है
वे इस पार से उस पार तक बड़े आराम से
जाती-आती थीं
दोनों तटों को छूती हुई
जैसे आकाश में चिड़ियां विचरण करती हई वापस घर लौट आती हैं
बक्सर के चरित्रवन के नाथ घाट से होकर उजियार घाट तक रोज पार करती थीं
बिहार से उत्तर प्रदेश का इलाका
रोज छूती थीं घाट को
और छू कर प्रणाम करती थीं गंगा माई को
मछलियांँ दोस्त थीं उनकी
रोज़ राह देखती थीं बड़की माई की
उजियार घाट में बहुत सारे पत्थरों को प्रणाम करती थीं कि बीच धार में आ न जाए कोई घड़ियाल
कोई जीव-जन्तु
गंगा के सारे जीव दोनों वक्त राह देखने लगे कि
एक दिन बड़की माई का कपड़ा कोई ले भागा
और संयोग से वहां मैं उपस्थित था
वे जोर से गला फाड़कर चिल्लाईं और बोलीं
कि कपड़े ले आओ बेटा
मैं इधर-उधर देखने लगा
कपड़ा नहीं था
फिर बोलीं जाओ घर से कपड़े ले आओ
कोई लेकर भाग गया है
मैं कपड़ा लेकर आया
बड़की माई गंगा स्नान करना छोड़ दीं
उस दिन से उदास हो गया
दुखी हो रोने लगा मैं
आज गंगा में इतनी सारी लाशें पड़ी हुई हैं
लाल-लाल, पीला-पीला,
रामनामी
मैंने कहा चलिए
वहीं से हाथ जोड़ लीं बड़की माई और गंगा को
देखने लगीं एकटक
जैसे कोई प्रेमी को या प्रेमिका को प्यार से देखता है
वे मुस्कुराती हुई छत पर चढ़ गईं नब्बे की उमर में
और गेहूं पसारने लगीं
यह सब सोचकर मैं दुखी हो गया कि आखिर बड़की माई गंगा स्नान क्यों नहीं करतीं अब
क्यों नहीं जातीं घाट पर
क्यों नहीं छूतीं उन पत्थरों को
क्यों नहीं प्रणाम करतीं सूर्य को
जिससे उनका चेहरा खिल उठता था
आज बरसों बाद वह गंगा देखने गई थीं
नहाने नहीं
आंँखों से गंगा की धारा बह निकली
गंगा मैली हो गई थी…
गंगा में गाद जमा था…
रौशनी में गंगा खुद नहा रही थी
राजनीतिक चिंतन या कि प्रतिरोध के तेवर से भी कहीं अधिक ,कविता का जीवन उसके अपने समाजिक सरोकारों और दायित्व बोध में सुरक्षित है । बावजूद , जीवन के विविध पक्षों के रुपक तथा समकालीन महत्ता और मनुष्य के भौतिक वांछनीय जरुरतों को दृष्टिगत करें तो अंततः राजनीतिक चिंतन तथा चेतना बेहद बड़ा है और अहम भी कि वह मानीखेज जरूरत है । हां ! तदर्थ प्रश्न में यह ऐसा भी नहीं है कि , समाजिक सरोकार घर-परिवार , पास-पड़ोस की कविताओं में कोई राजनीतिक चिंतन नहीं होता ! वह स्थूल और सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता ही है । यह अरुण शीतांश की कविताओं से गुजरते हुए , महसूस किया जा सकता है । ऐसा इसलिए ही कह सका कि अरुण शीतांश की ये कविताएं आदमी के आदमी बनने की प्रक्रिया में बड़ी भागीदारी को सुनिश्चित करता है । मनुष्य से उसके राग संबंध के स्थापत्य में संवेदना के विविध रूपों और अलक्षित सौंदर्य बोध को भी दिलासा देती है । रूढ़ आग्रहों से उबर आएं यदि तो , ये मजबूत कविताएं हैं ।
इन कविताओं में अरुण शीतांश की चिंताएं अधिक गहरे में जाकर दृश्यमान हैं । अस्मिता के प्रश्न के प्रत्युत्तर में अस्मिता बोध का सवाल भी आ खड़ा होता है । यद्यपि देश , धीरे-धीरे कर, सूचना और संचार के तकनीक माध्यमों से जुड़ रहा है । फिर भी , समाज का एक तबका है जो इसमें शामिल न हो सका है । कारण दर्ज है -शिक्षा , स्वायत्त , अधिकारों की अवांछित कटौतियां । यह अब भी हमारे पास-पड़ोस और हमारे अपने घर में दिखाई देता है । नागरिक हैं । किंतु , अनागरिक के जैसे । अरुण शीतांश इसकी गवाही देते हैं । बताते हैं कि अब भी दुख और संकट टला नहीं है अब भी शिक्षा के प्रश्न से टकराव बाकी है । यह अपने तरह का शैक्षिक दखल है । एक अनागरिक अपने दुखों से भरा है । मसलन
“मां को रेल या बस का टिकट नहीं कटाने आता” (!)
कि
“कहीं भी जाने में डरती हैं मां”
अरुण की इस कविता का एक पक्ष जहां , यहां आकर रूकी , वही दूसरा पक्ष गतिशील हो जाता है / देखें
“जबकि शादी के समय आठवीं पास थी मां
इस कविता में पर्दे के गिरने और उठने का दृश्य बिम्ब है । कि तब
“मां से तेज उस समय एक चिड़िया थी जो पिंजरे में बंद होने के बाद भी पूरी रामायण कर ली थी याद
और श्रीमद्भागवत गीता भी”
अरूण की कविता मुखातिब है स्त्री अस्मिता के प्रश्न और सरोकारों से कि विवाह नामक अनुबंधित संस्थाओं का हासिल क्या है?
“अब चिड़िया भी नहीं गाती कंठ से
कि आए रुलाई”
चीजों और रूपों के बदलावों को अरूण शीतांश की कविता में हम जैसा देख पा रहे हैं वह बनिस्बत कथा साहित्य के कविता में भारी छूट लिए प्रवेश करता है और उसका तारतम्य नहीं टूटी । लिंक्ड रह जाती है ।
“पैंतीस साल में एक बार पिता संग बक्सर गईं मां”
जिससे आज की स्थितियां भिन्न है । एक नए अपराध बोध और विरक्ति से भर आया है हमारा समय ।
“मेरे पैदा होने के बाद मैट्रिक किया मां ने
जब मैंने मैट्रिक किया उसके पांच साल बाद”
आश्चर्यजनक है प्रगतिशीलता और बंदिशें कि क्रायटेरिया के भीतर कराहती है । कहीं स्वाधीन नहीं है स्त्री । पराधीन है कुछ सीमित छूट लेकर । जो दिखता है मां पिंजरोईं गांव की है , और पिंजरोईं में कोई पिंजरा नहीं है ,मेरा गांव विष्णुपुरा है और यहां भी कोई विष्णु नहीं है ।
उपर्युक्त काव्यांशों में तदर्थ सवालों से अरुण शीतांश टकराते हैं कि कहते हैं बला की बात कि
“हमारे वंशज हरिगांव भोजपुर के थे
राजा भोज के क्षेत्र से
और नहीं है उस समय का आधार कार्ड”
कविता अपने असीमित छूट के बल यहां अपनी पूरी बात अलग अलग रूप में आकृत हो कह पाती है । जिससे जाहिर होता है कि देश के भीतर भी कोई देस है , कहने को कि आर्यावर्त्त के वासी हैं हम /परन्तु
ग्लोब पर कहीं नहीं दिखता हमारा नाम
या गांव का पता
खेत खेसरा खतियान सब चूल्हे में झोंक दिया चाची ने
कैसे बताऊं , पता सही
कहां जाऊं सुरक्षित
आधी उम्र बीत जाने के बाद
कौन सी सरकार बनाऊं
कि बन जाए बात (!)
कविता विस्मित करती है एक नागरिक के अनागरिक करार कर दिए जाने के दुःखों से भर देती है । लेकिन महत्वपूर्ण है कि अरुण शीतांश ठहरते नहीं मजबूत दावेदारी ठोंक कहते हैं
“हम अपने क्षेत्र के नागरिक हैं
चाहे माने या न माने सरकार”
कविता, बेहद भावपूर्ण और मार्मिक कविता की खूबी लिए एक शानदार ही नहीं वजनदार कविता है ।
दूसरी कविता मोहनिया है जिसमें अरूण शीतांश इस बात के साथ हाजिर होते हैं कि अलक्षित , अचिन्हा होने के बाद भी अस्तित्व में रह जाता है कुछ काले सुनहरे अक्षर । किसी न किसी तरह से विद्यमान रह जाती है संभावनाएं तथा उसके कोलाज़ ।
“हर जगह का अपना इतिहास है
गिलहरी का भी है
ऐसी बारीक तस्दीकियां हैं अरूण की कविताओं में
“अच्छा होने का भी एक इतिहास और दर्शन है”
अरुण शीतांश फिर फिर नए नए अर्थ संदर्भ में मुखातिब होते हैं । चीजों के बिसराने के पूर्व उसके वांछनीय उपयोगिता पर जोर देते हैं कि
“चिड़ियों का भी कोई इतिहासकार हो !
नावाकिफ नहीं हैं अरूण शीतांश कि फिर भी
“कुछ लोग चिड़ियों के धर्म और अध्यात्म के बारे में पूछने लगेंगे।”
इधर , लंपट समूहों से संचालित अवैज्ञानिक तथा अतार्किक सवालों के ज़िरह में , हम सभी आ फंसे हैं इन दिनों । जिम्मेदारी से बच भाग निकलने के हथकंडे से जा मिले हैं । हम हमारे समय के दोषी हत्यारे हैं , और दोषपूर्ण ढंग से ज़मीर बेच इतिहास बनाने चले हैं , भीतर अकाल मौत मर रही मनुष्यता । ऐसे में विकल्प कम ही बचे हैं कि खूंटे में
मनुष्य बँध जाए पहले , हम भर लाएं दो लोटा पानी , बचा लें कुछ जिजीविषाएं।
जहाँ हलकान परेशान हुए
छोटे छोटे जीव मुँह डुबा डुबाकर जी भर पी सकें…!
अरूण शीतांश की कविताएं ठीक वैसी नहीं है जैसी कि आंखें देखना चाहे । वह वक्रता लिए दुर्गम रास्तों में चल पड़ते हैं
“घर में साइकिल है
पहले दुकानदार ने रखा था
आज मेरे पास है”
अरुण शीतांश की कविताओं का अस्मिताबोध इस रुप में है , मुझे नहीं लगता कि यह कोई अस्मितावादी भी है ।
साइकिल है मेरे पास
रोज़ साफ करता हूँ
उस पर हाथ बराबर रखता हूँ / सुबहोशाम निहारता हूँ
साइकिल को धोता हूँ
चलाता नहीं हूँ
स्नेह, वात्सल्य, और ममत्व कभी भी अस्मितावादी नहीं हुए ,वे छेड़छाड़ के खिलाफ और आईडेंटिटी को लेकर गंभीरता की खाल में नहीं छुपे छुपाए । सहज हो आए । जैसे
“रोज़ उस पर स्कूल-बैग टॅंगा रहता था
बाजार से लौटती थी बेटी
तो घर लौट आता था”
अभी वह चुपचाप खड़ी है संरक्षित । यद्यपि
उसे गाँव भी नहीं जाना है किन्तु बेटी के पते की तरह
साइकिल की पिछली सीट पर एक कागज की
खड़खड़ाहट सुनाई देती है
उसमें लिखा है- पापा !
यद्यपि मैं अस्मितावाद के खिलाफ हूं किन्तु ऐसी कविताओं के संदर्भ में कहूं तो यह भावनाओं और विश्वासों की दुनिया बनातीं हैं , उसे मजबूत शक्ल प्रदान करते हैं न कि कहीं अस्मितावादी होती हैं । यह मानवीय जिजीविषाओं व उनके राग संबंध से उतरते हैं ।
चौथी कविता ‘बड़की माई है’ । किसी जीवन रेखा की तरह दृढ़ संकल्पित।
वह रोज गंगा में नहा आती थीं
बिन चप्पल जूते के तेज पाँव से जाकर
छपाक से गंगा में कूद जाती थी
और बिजली की तरह बाहर निकल आती थी
जैसे कोई अंतरराष्ट्रीय तैराक होती हैं
दर्शक पब्लिक थी वहांँ
कोई अधिकारी नहीं था
कविता, किरदार केन्द्रित है । कथित गंगा स्वच्छता अभियान और उस पर ढोंग ढकोसले करते स्वनामधन्य ठेकेदारों को रौंदते हुए लाखों फर्लांग ईमान और श्रद्धा से लबरेज है भवानी देवी के हिस्से की कथात्मक प्रस्तुति में है (यद्यपि मेरी कोई बड़ी आस्था नहीं है। गंगा भी नदी है , जीवनदायिनी नदियों की तरह ही उत्कृष्ट और सम्माननीय )
बड़की माई जिनका नाम भवानी देवी है
वे इस पार से उस पार तक बड़े आराम से
जाती-आती थीं
दोनों तटों को छूती हुई
जैसे आकाश में चिड़ियां विचरण करती हई वापस घर लौट आती हैं
बक्सर के चरित्रवन के नाथ घाट से होकर उजियार घाट तक रोज पार करती थीं
बिहार से उत्तर प्रदेश का इलाका
रोज छूती थीं घाट को
और छू कर प्रणाम करती थीं गंगा माई को
मछलियांँ दोस्त थीं उनकी
रोज़ राह देखती थीं बड़की माई की
उजियार घाट में बहुत सारे पत्थरों को प्रणाम करती थीं कि बीच धार में आ न जाए कोई घड़ियाल
कोई जीव-जन्तु
गंगा के सारे जीव दोनों वक्त राह देखने लगे कि
एक दिन बड़की माई का कपड़ा कोई ले भागा
और संयोग से वहां मैं उपस्थित था
वे जोर से गला फाड़कर चिल्लाईं और बोलीं
कि कपड़े ले आओ बेटा
मैं इधर-उधर देखने लगा
कपड़ा नहीं था
फिर बोलीं जाओ घर से कपड़े ले आओ
कोई लेकर भाग गया है
मैं कपड़ा लेकर आया
बड़की माई गंगा स्नान करना छोड़ दीं
उस दिन से उदास हो गया
दुखी हो रोने लगा मैं
अन्य कथात्मक ब्यौरों के बाद अरुण शीतांश की यह कविता मुद्दों से आ भिड़ती है तब जब आप खड़े अनेक बहुरूपिए ठेकेदार
“आज गंगा में इतनी सारी लाशें पड़ी हुई हैं
लाल-लाल, पीला-पीला,
रामनामी
मैंने कहा चलिए
वहीं से हाथ जोड़ लीं बड़की माई और गंगा को
देखने लगीं एकटक
जैसे कोई प्रेमी को या प्रेमिका को प्यार से देखता है
वे मुस्कुराती हुई छत पर चढ़ गईं नब्बे की उमर में
और गेहूं पसारने लगीं” ।
कविताएं #समतामार्ग के पोर्टल पर है , जहां से उठाई गई । तथा संदर्भित लिंक भी संलग्न है
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