— अरविन्द कुमार —
भारतीय साहित्य और कला में आधुनिकता का प्रवेश कब हुआ, यह गहन विचार-विमर्श का विषय है। लेकिन साहित्य और चित्रकला तथा फिल्मों में इस आधुनिकता को जांचने-परखने पर पता चल सकता है कि अपने देश में राजनीति और कला में इस आधुनिकता का विकास कैसे हुआ। इस आधुनिकता की नींव आजादी की लड़ाई में पड़ गयी थी और संविधान सभा की बहसों में इसे देखा जा सकता है। यह नई भारतीय पहचान थी। आधुनिक राष्ट्र का निर्माण हो रहा था। आजादी की लड़ाई निर्णायक दौर में पहुंच गई थी।
हिन्दी साहित्य में “शेखर : एक जीवनी” इस आधुनिकता का एक सूत्रवाक्य था तो उसी दौर में पांच चित्रकारों द्वारा मुम्बई में प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप का गठन भी इसी आधुनिकता का एक प्रगतिशील रूप था जो बंगाल स्कूल की पारंपरिक चित्रकला से अलग था। यह अलगाव हिंदी फिल्मों में भी देखा जा सकता है जब पारसी थिएटर और धार्मिक-ऐतिहासिक फिल्मों से हिंदी फिल्में मुक्त हो रही थीं। ऐसे परिदृश्य में ही देवानंद का प्रवेश हुआ था।
भारतीय राजनीति में नेहरू युग की शुरुआत हो चुकी थी। नेहरू खुद इस आधुनिक राजनीति के बड़े प्रतीक थे।
यह सिर्फ संयोग नहीं था कि दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर की तिकड़ी उस दौर में बनी थी। इस तिकड़ी के सबसे आधुनिक और रूमानी प्रतीक देवानंद ही थे।
19 जुलाई 1943 को जब धर्मदेव पिशोरीमल देवानंद बीस साल की उम्र में फ्रंटियर मेल से मुम्बई आए तो उनकी जेब में केवल 30 रुपए थे। वह लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में बीए करके आए थे। यानी आधुनिक अंग्रेजी साहित्य से वे वाकिफ थे। छात्र के रूप में वे अशोक कुमार और लीला चटणीस से मिल चुके थे जो उनके कालेज में एक बार आए थे। युवा देव की आंखों में एक बड़ा स्टार बनने का सपना था क्योंकि वह तब अशोक कुमार की लोकप्रियता देख चुके थे। वह जमाना पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, मोतीलाल, श्याम और चंद्र मोहन का था। तब राज कपूर, दिलीप कुमार जैसे लोग अभी फिल्मों की दुनिया में नहीं आए थे और किसी ने तब यह सोचा नहीं था कि इन तीनों की तिकड़ी कई दशकों तक बॉलीवुड पर राज करेगी।
इन तीनों नायकों ने मुस्लिम लड़की से प्यार किया जो अपने समय की बड़ी स्टार थीं पर दुर्भाग्य से किसी का प्रेम सफल नहीं हुआ और उनकी उनसे शादियाँ नहीं हुईं।राजकपूर-नरगिस, दिलीप-मधुबाला और देवानंद-सुरैया उस दौर की तीन असफल प्रेम कहानियां थीं। तब समाज इतना खुला और उदार नहीं था लेकिन सबसे दुखद जीवन सुरैया का रहा, देव साहब से शादी न होने पर आजीवन कुंवारी रही। सुरैया को देव ने अपने प्रेम की निशानी के रूप में हीरे की एक अंगूठी दी थी जिसे सुरैया की नानी ने समुद्र में फेंक दिया था और वह अंगूठी देवानंद को कई सालों तक समुद्र में अटकी महसूस होती रही। इस त्रासद प्रेम कथा से हर व्यक्ति वाकिफ है जो देव साहब को चाहता है।
देवानंद की आधुनिकता में एक रोमांटिसिज़्म भी था और वह केवल पोशाक शैली और नज़रिए में ही नहीं बल्कि उनके जीवन और व्यक्तित्व में भी था। कॉलेज के दिनों में देव साहब का पहला प्यार उषा चोपड़ा थीं जिन्हें वे अपनी कक्षा में चूम लेना चाहते थे।
यह घटना इस बात का सबूत है कि देव साहब शुरू से ही बेहद रोमांटिक व्यक्तिव के धनी थे। उन्होंने एक इंटरव्यू में कबूल किया है कि उनके जीवन में स्त्रियां कितना महत्व रखती रहीं। देव साहब शादी के बाद भी स्त्रियों के साथ अपनी दोस्ती को उतनी ही महत्वपूर्ण मानते थे जितना अपनी पत्नी के साथ रिश्तों को अहम मानते रहे। यही नहीं उन्होंने यह भी कबूल किया है कि उनका शादी के बाद भी दूसरों से मोहब्बत का रिश्ता बना और इस बात से वाकिफ उनकी पत्नी भी रहीं। शुरू में कल्पना कार्तिक ने आपत्तियां भी जताईं पर बाद में धीरे-धीरे वह देवानंद के व्यक्तिव को समझ गयीं और उन्होंने इसे कबूल कर लिया। पर माला सिन्हा ने कहा है कि देव साहब का स्त्रियों के साथ बड़ा सम्मानजनक रिश्ता रहा है और वह कहीं से अशिष्ट और अश्लील नहीं थे। वहीदा रहमान ने भी देव साहब की भलमनसाहत की चर्चा की है और कहा है कि उस ज़माने में देव साहब जैसी हैंडसम पर्सनालिटी से स्त्रियों का आकर्षित होना भी स्वाभाविक था। आशा पारिख ने कहा है कि “महल” शूटिंग के दौरान इतनी लड़कियां उनको देखने आ गईं कि भीड़ मच गई और शूटिंग रद्द करनी पड़ी। मुमताज और हेमामालिनी ने भी देव साहब को शिष्ट और सहज बताया।
1945 से लेकर 2011 तक देव साहब ने 66 वर्षों तक बिना रुके, बिना थके फिल्मों में अभिनय किया। देव आनंद ने 114 फिल्में कीं। इनमें से 20 सुपर हिट हैं और 20-22 हिट (सफल) रेंज में हैं। इस लिस्ट में गाइड, ज्वेल थीफ, जॉनी मेरा नाम, नौ दो ग्यारह, पेइंग गेस्ट, काला पानी, हम दोनों, तेरे घर के सामने, बाजी, टैक्सी ड्राइवर, हाउस नंबर 44, सीआईडी, काला बाजार, जाली नोट, जब प्यार किसी से होता है, असली नक़ली, ज़िद्दी, जाल, पतिता, मुनीमजी, फंटूश, सोलहवां साल, लव मैरिज, माया, तीन देवियाँ, तेरे मेरे सपने, हरे रामा हरे कृष्णा, देस-परदेस, अमीर गरीब, वारंट आदि जैसी फिल्में शामिल हैं।
देव आनंद को पहला ब्रेक 1945 में, प्रभात फिल्म स्टूडियो द्वारा निर्मित फिल्म “हम एक हैं” में मिला, जो 1946 में रिलीज़ हुई थी। उन्हें तीन साल के लिए 400 रुपये प्रतिमाह अनुबंधित किया गया। उसमें अभिनेत्री कमला कोटनीस थी जो डॉक्टर कोटनीस की बहन थी। वही कोटनीस जिन पर वी शान्ताराम ने “डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी” फ़िल्म बनाई थी।
उन्होंने 1948 में फिल्म ‘विद्या’ में सुरैया के साथ बॉलीवुड में अपना पहला इश्क किया। यह सफल नहीं रहा और इसकी कहानी सब जानते हैं। लेकिन इससे देव आनंद टूटे नहीं बल्कि और मजबूत हुए। चेतन आनंद द्वारा निर्देशित उनकी पहली फिल्म अफसर 1950 में रिलीज हुई थी।
1954 में नवकेतन ने “टैक्सी ड्राइवर” बनायी। इसकी कहानी और संवाद उनके छोटे भाई विजय आनंद और भाभी यानी चेतन आनंद की पत्नी उमाजी ने लिखे थे। सेट पर रहते हुए उन्होंने एक छोटा ब्रेक लिया, और चुपके से मोना उर्फ कल्पना कार्तिक से कोर्ट में शादी कर ली।
उन्होंने 88 नायिकाओं के साथ काम किया जिनमें 26 चर्चित वरिष्ठ अभिनेत्रियाँ थीं। उनका सभी के साथ एक सहज मैत्रीपूर्ण, सम्मानजनक रिश्ता था। उन्होंने किसी का शोषण हो इसकी जानकारी नहीं मिलती। उन्होंने हेमा मालिनी के साथ 9 फिल्मों में काम किया तो मधुबाला 8, वहीदा रहमान 8, जीनत अमान 8, और सुरैया 7 तथा गीता बाली 7 फिल्मों में साथ थीं। कल्पना कार्तिक 6, राखी 5, नलिनी जयवंत 4, नूतन 4, निरुपम राय 3, मीना कुमारी 3, वैजयंती माला 3, साधना 3, रागिनी 3, आशा पारिख 3, कामिनी कौशल 2, नरगिस 2, निम्मी 2, उषा किरण 2, शीला रमानी 2, माला सिन्हा 2, मुमताज 2, सुचित्रा सेन 2 तथा अमिता, बीना राय, शर्मिला टैगोर, शकीला, हेमवती, खुर्शीद, रहमान, सायरा बानो, रामदा, शबाना, स्मिता पाटिल, रेखा, तनूजा, सिम्मी ग्रेवाल, परवीन बॉबी के साथ एक एक फिल्म में काम किया।
बॉलीवुड में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने इतनी स्त्रियों के साथ इंटरैक्ट किया और इतनी स्त्रियाँ उसकी दीवानी रहीं। पत्नी के साथ रिश्तों में तनाव भी रहा पर वे एक पति की भूमिका आजीवन निभाते रहे।
देव साहब एक आधुनिक रूमानी अभिनेता थे। उन्हें बोल्ड, तेज़तर्रार, साहसी, कर्मठ और पॉजिटिव स्त्रियाँ पसंद रहीं। वे सबसे दोस्ती करते थे। रोमांस उनके जीवन का आधार था। लेकिन वह हल्का नहीं था, छिछला नहीं था बल्कि गंभीर था। शायद यही कारण है कि उनसे इतनी बड़ी संख्या में स्त्रियाँ जुड़ीं। वे स्त्रियों को आगे देखना चाहते थे। वे विचारों से दकियानूस नहीं थे। वे स्त्री की आज़ादी के पक्षधर थे। “तीन देवियां” फ़िल्म एक तरह से उनके जीवन की भी फ़िल्म थी। उस फिल्म में नायक जिस तरह तीन स्त्रियों में अपना सच्चा प्रेम खोजता रहा देव साहब के जीवन में भी यह खोज जारी रही।
देवानंद शहरी नायक थे। दिलीप कुमार, राज कपूर की तरह ग्रामीण कस्बाई चरित्र के नायक नहीं थे।
उन्होंने जोकर, आइसक्रीम विक्रेता, सरदार, विदूषक, पुलिस और जासूस, सैनिक या अन्य सैन्य भूमिकाएँ, क्राइस्ट, डॉक्टर, लेखक, गायक, ब्लैक-मेलर, स्मगलर, पाकिटमार, आदि की भूमिका निभाई।
देव साहब की जोड़ी हेमा मालिनी और वहीदा रहमान के साथ अधिक सफल रही। पर” ज्वेल थीफ” और “दुनिया” में वैजयंतीमाला के साथ फ़िल्म चर्चित हुई। सुरैया, मधुबाला, नूतन, साधना, आशा पारिख के साथ उनकी फिल्में काफी पसंद की गईं। वैसे “गाइड” में देव और वहीदा की जोड़ी आदर्श और सफलतम जोड़ी मानी गयी। “गाइड” को टक्कर केवल “तीसरी कसम” ही दे सकती थी। दोनों साहित्यिक कृतियों पर बनी थीं और दोनों में वहीदा थीं।
देव की रूमानियत और आधुनिकता दिलीप और राज कपूर से अलग थी। दिलीप और राज कपूर ग्रामीण पृष्ठभूमि के पात्रों का भी अभिनय करते हैं, धोती बंडी भी पहन लेते हैं, पर देव साहब अक्सर पतलून-कोट-टाई में ही नजर आते हैं। वे शहरी युवक की तरह दिखते हैं जो हमेशा हॅंसता रहता है। वह दिलीप की तरह ट्रेजडी किंग नहीं बनते न राजकपूर की तरह चार्ली चैपलिन की तरह अनाड़ीपन लिये। इसलिए उनकी नायिकाओं में एक अल्हड़पन, शोखी चंचलता, रूमानियत और उल्लास दिखाई देता है। अगर देवसाहब की नायिकाओं के किरदारों का अध्ययन किया जाए तो वह दिलीप, राज कपूर की नायिकाओं के किरदारों से अलग होगा है। अगर उन किरदारों का अध्ययन किया जाय तो स्त्री सशक्तीकरण के विकास को समझा जा सकता है।
क्या यह माना जा सकता है कि देव साहब हिंदी फिल्मों के पहले आधुनिक और जिंदादिल अभिनेता थे जो मनुष्य की बराबरी में यकीन रखते थे। वे सदाबहार अभिनेता कहलाये। ट्रेजडी किंग नहीं बने। एक सकारात्मकता उनकी जीवन दृष्टि में हमेशा बनी रही।