दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था होने का डंका और रोजगार की सच्चाई

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Yogendra yadav

— योगेन्द्र यादव —

क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि जिस देश में बेरोजगारी व्याप्त हो और काम करने वालों की कमाई जस की तस हो, उसकी अर्थव्यवस्था दुनिया में अग्रणी स्थान हासिल कर पाएगी? यह भारत की अर्थव्यवस्था की विडंबना है। एक तरफ भारत के विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था होने का डंका पीटा जा रहा है, वहीं रोजगार की सच्चाई इन दावों को झुठला देती है। टीवी के पर्दे पर अर्थव्यवस्था की तस्वीर जितनी भी गुलाबी दिखाई जाए, टीवी देखने वाला हर घर जानता है कि पढ़े-लिखे नौजवान और नवयुवतियां खाली बैठे हैं। उन्हें या तो काम नहीं मिलता और अगर मिलता है तो शिक्षा और योग्यता के उपयुक्त नहीं मिलता। हाल ही में प्रकाशित एक राष्ट्रीय रिपोर्ट ने सरकारी आंकड़ों के आधार पर इस सच का उदघाटन किया है। ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया’ नामक यह सालाना रिपोर्ट अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अमित बासोले और उनके सहयोगियों द्वारा तैयार की जाती है।

रिपोर्ट के इस चौथे संस्करण में ज्यादा ध्यान रोजगार के सामाजिक पक्ष पर है, यानी इस पर कि अलग-अलग समुदायों और महिला-पुरुष में रोजगार को लेकर क्या अंतर है। लेकिन सबसे पहले यह देखना जरूरी है कि देश में बेरोजगारी की पूरी तस्वीर क्या है?

यहां यह दर्ज करना जरूरी है कि यह रिपोर्ट भारत सरकार के ‘पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे’ द्वारा प्रकाशित किए आंकड़ों पर आधारित है। मतलब कि इसके सच से सरकार मुंह चुरा नहीं सकती। अगर सिर्फ हैडलाइन को देखें तो संतोष हो सकता है। इस रिपोर्ट में प्रकाशित नवीनतम आंकड़े वर्ष 2021-22 के हैं। उस वर्ष देश में कुल 52.8 करोड़ लोग रोजगार के इच्छुक थे जिनमें से 49.3 करोड़ किसी न किसी रोजगार में लगे हुए थे और बाकी 3.5 करोड़ बेरोजगार थे। यानी कि बेरोजगारी की दर 6.6 प्रतिशत थी। इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि देश में बेरोजगारी की दर पिछले 5 वर्षों में सबसे कम हो गई थी।

लेकिन इन आंकड़ों पर गौर करने से पहले हमें इस रिपोर्ट में बताई गई तीन कड़वी सच्चाइयों पर भी नजर डालनी पड़ेगी। भारत में बेरोजगारी के आंकड़े अगर कम दिखाई देते हैं तो इसलिए नहीं कि वास्तव में सब लोगों को अपनी पसंद का रोजगार मिल जाता है बल्कि इसलिए कि अधिकांश बेरोजगारों की हालत ऐसी नहीं है कि वे बेरोजगार रह सकें, मजबूरी में जो काम मिलता है उसे पकड़ लेते हैं। बेरोजगारी की सच्चाई 18 से 25 वर्ष के युवाओं में पता लगती है जो अपनी पसंद का रोजगार ढूंढ़ रहे होते हैं। अगर इस आयु वर्ग के वर्ष 2021-22 के आंकड़े देखें तो भयानक स्थिति सामने आती है। इस आयु वर्ग के युवाओं में बेरोजगारी राष्ट्रीय औसत से 3 गुना से भी अधिक है। इस वर्ग के अनपढ़ युवाओं में 13 प्रतिशत बेरोजगारी है, हायर सैकेंडरी पास में 21 प्रतिशत और ग्रैजुएशन किए हुए युवाओं में 42 प्रतिशत बेरोजगारी है। शिक्षित बेरोजगारी का यह आलम राष्ट्रीय शर्म और चिंता का विषय है।

दूसरी कड़वी सच्चाई यह है कि बेरोजगारी में कमी की वजह अच्छा रोजगार मिलना नहीं बल्कि मजबूरी का रोजगार बढ़ाना है। रिपोर्ट बताती है कि कोविड के बाद कृषि क्षेत्र और स्वरोजगार में बढ़ोतरी हुई है, मतलब यह कि बेहतर नौकरी को छोड़कर लोग या तो गांव में जाकर खेती में लग गए या फिर अपना छोटा-मोटा काम-धंधा पकड़ लिया। इसका असली असर महिलाओं पर पड़ा है। कोविड से पहले कामकाजी महिलाओं में खेतीबाड़ी का अनुपात 60 प्रतिशत था जो कोविड के बाद अब बढ़कर 69 प्रतिशत हो गया है। इसी तरह स्वरोजगार में लगी महिलाओं का प्रतिशत भी 51 से बढ़कर 60 हो गया है।

यह रोजगार में वृद्धि नहीं बल्कि उसकी गुणवत्ता में गिरावट का संकेत है। इसकी पुष्टि रिपोर्ट में दिए तीसरे चिंताजनक तथ्य से होती है। कहने को कोविड के बाद रोजगार में वृद्धि हुई है, लेकिन लोगों की कमाई जस की तस है। अगर 2022 के मूल्यों के आधार पर देखें तो नौकरी करने वाले और स्वरोजगार में लगे लोगों की कमाई में पिछले पॉंच साल में कोई बदलाव नहीं आया है।

वर्ष 2017-18 में नियमित नौकरी करने वालों की मासिक तनख्वाह अगर 19,450 रुपए थी तो वह 2021-22 में 19,456 रुपए पर ही रुकी है। अपना रोजगार करने वालों की कमाई पॉंच साल पहले 12,318 थी तो अब 12,059 रुपए रह गई है। यहां भी महिलाओं को इस गिरावट का ज्यादा सामना करना पड़ा है। देखना है कि इस चुनावी वर्ष में सरकार बेरोजगारी की इस कड़वी हकीकत का मुकाबला सिर्फ जुमले से करेगी या इसे बदलने की कोई ठोस योजना पेश करेगी। देखना यह भी है कि क्या विपक्ष बेरोजगारी को देश के बड़े राजनीतिक सवाल में बदल पता है या नहीं।

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