शंकर गुहा नियोगी तुम कहां हो? – दूसरी व अंतिम किस्त

0
Shankar Guha Niyogi

— कनक तिवारी —

कुल मिलाकर शंकर गुहा नियोगी एक बेहद दिलचस्प इंसान, भरोसेमंद दोस्त, उभरते विचारक और घंटों गप्प की महफिल सजाए रखने में सफल नायाब नेता थे। पूर्व बंगाल की शस्य श्यामला धरती से आया यह गमकते धान के बिरवे जैसा व्यक्तित्व भिलाई के कारखाने की लोहे जैसी सख्त बारूदी गोलियों का शिकार क्यों हो गया?

नियोगी की हत्या छत्तीसगढ़ की प्रथम महत्त्वपूर्ण राजनीतिक हत्या है। जो लोग नियोगी को ॲंधेरी रातों में बीहड़ों और जंगलों में बिना किसी सुरक्षा के जाते देखते थे, उनके मन में यह आशंका जरूर सुगबुगाती रहती थी कि यह सब कब तक चलेगा? लेकिन अपनी मौत से बेखबर और बेखौफ नियोगी अपनी पूरी ज़िंदगी कांटों के ही रास्ते पर चलते रहे। उनकी मौत राष्ट्रीय घटना बनकर चर्चित हुई। उन अदना हाथों को क्या दोष दें कि उन्होंने षड़यंत्रकारी दिमागों का एजेंट बनना कबूल किया।

हत्यारों ने नियोगी की नहीं, ट्रेड यूनियन की एक अनोखी और बेमिसाल लेकिन सब पर छाप छोड़ने वाली जद्दोजहद की शैली की हत्या की है। नियोगी ने अपने बच्चों तक के नाम अपने सपनों की कड़ी के रूप में रखे थे। क्रान्ति और फिर जीत और फिर मुक्ति। यही तो खुद्दार नेताओं के सपनों का अर्थ होता है। उन्होंने फार्मूलाबद्ध ट्रेड यूनियन नेताओं की तरह कभी भी अपने अनुयायियों को उत्पादन ठप्प कर देने या कम कर देने की समझाइश नहीं दी। उत्पादन और उत्पादकता के पैरों पर चलकर ही श्रमिकों के हाथों में समाज परिवर्तन की मशाल वे थामना चाहते थे। यही कारण है अनेक मौकों पर जब परम्परावादी यूनियनों के काम के बहिष्कार का ऐलान किया गया, शंकर गुहा नियोगी ने सबसे अलग हटकर सैद्धांतिक और अनोखे फैसले किये कि कामबंदी करने का कोई सवाल ही नहीं है।

कहने में अटपटा तो लगता है लेकिन अपने जीवनकाल में नियोगी ने मजदूरों, किसानों और अपने समर्थकों के दिमागों के रसायन शास्त्र को जितना नहीं बदला उतना उनकी मौत की एक घटना ने कर दिखाया। लाखों मजदूरों के चहेते इस नेता की कायर तरीके से निर्मम हत्या कर दी जाए लेकिन उसके बाद भी बिना किसी पुलिस इंतजाम के उनके समर्थक हिंसा की वारदात तक नहीं करें, ऐसा कहीं नहीं हुआ। नियोगी के शव के पीछे मीलों चलकर मैंने यह महसूस किया कि जीवन का सपना देखने का अधिकार केवल उसको है जो अपनी मृत्यु तक को इस सपने की बलिवेदी पर कुर्बान कर दे। इस श्रमिक नेता की आंखों में भाषा की इबारत बोलती रहती थी। शर्त यही है कि उसे पढ़ना आना चाहिए। नियोगी की मौत पर आक्रोशित लाखों की संख्या में मजदूर थे। शव के पीछे चलता मेरा पूरा परिवार इस तरह टूट गया था मानो परिवार का कोई सदस्य चला गया है।

उस असाधारण जनसैलाब ने अद्भुत आत्मसंयम रखा। वह अहिंसा के इतिहास में दर्ज करने लायक है। नियोगी का जाना लगता है आने जाने की तरह है। यह जांबाज युवक मेरी यादों से जाता नहीं है। बार-बार लौट-लौट आता है। इसीलिए नियोगी व्यक्ति नहीं विचार है। पहले मुझे ऐसा लगा जैसे नियोगी के शव के रूप में एक मशाल पुरुष जीवित होकर चल रहा है और उसके पीछे चलते हजारों व्यक्तियों की भीड़ जिन्दा लाशों की शवयात्रा है। फिर ऐसा लगा कि यह तो केवल भावुकता है। शंकर गुहा नियोगी का शव फिर मुझे एक जीवित किताब के पन्नों की तरह फड़फड़ाता दिखाई दिया और उसके पीछे चलने वाली हर आंख में वह सपना तैरता दिखाई दिया।

प्रसिद्ध विचारक रेजिस देब्रे ने कहा है कि क्रान्ति की यात्रा में कभी पूर्ण विराम नहीं होता। क्रान्ति की यात्रा समतल सरल रेखा की तरह नहीं होती। क्रान्ति की गति वर्तुल होती है और शांत पड़े पानी पर फेंके गये पत्थर से उत्पन्न उठती लहरों के बाद लहरें और फिर लहरें, यही क्रान्ति का बीजगणित है। शंकर गुहा नियोगी ने इस कठिन परन्तु नियामक गणित को पढ़ा था। बाकी लोग तो अभी जोड़ घटाने की गणित के आगे बढ़ ही नहीं पाए।

नियोगी ने शोषण-मुक्त, जाति-मुक्त, वर्गभेद-मुक्त जिस छत्तीसगढ़ का सपना देखा था उसका ताना-बाना बुनना तक औरों के लिए मुश्किल काम रहा है। नये छत्तीसगढ़ का सपना उनके लेखे पानी का बुलबुला या हवा में छोड़ा गया कोई गुब्बारा नहीं था जो असलियत की जमीन पर गिरकर गायब हो जाए। नियोगी स्वप्नशील व्यक्ति थे। अमरता के इतिहास में कोई महापुरुष स्वप्नशील हुए बिना न तो संघर्ष कर सकता है और न ही शहीद हो सकता है। उनका रचनात्मक सपना इतिहास की बुनियाद पर आधारित होता है।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके में शंकर गुहा नियोगी ने अतीत की बीहड़ गहराइयों में डूब कर सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह को ढूंढ़कर निकाला जिन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के एक बरस पहले अंग्रेजों को चुनौती दी थी और वह भी आर्थिक सवालों पर। इतिहास की गुमनामी में दफ्न नारायण सिंह को एक मिथक पुरुष बनाकर शंकर गुहा नियोगी ने समकालीन संघर्ष का ऐसा आदर्श बनाया जिसके झंडे तले छत्तीसगढ़ के पिछड़े वर्गों के लोग अनथक संघर्ष करते रहें। नियोगी में जबरदस्त इतिहास बोध था और उनका भविष्य का सपना कोई लुंजपुंज कल्पना लोक नहीं था। वह राजनीति और ट्रेड यूनियन की ऊबड़खाबड़ धरती पर रोपा हुआ बबूल का बिरवा है जिसे अय्याश पूंजीपतियों, भ्रष्ट नौकरशाहों और अवसरवादी राजनीतिज्ञों के आंगन में रोपे गये गुलाब के पौधों की परवाह नहीं रही।

काॅमरेड नियोगी का नया छत्तीसगढ़ का सपना एक तरह से सपना नहीं है। वह उस प्रक्रिया की पहली मंजिल में है जहां सपने यथार्थ में बदल जाते हैं। इस सपने में वे वैचारिक अणु छिपे हैं जिनका प्रजातांत्रिक विस्फोट तो होगा। नियोगी का जीवन हम सबके लिए खुद एक सपने की तरह है। वह एक ऐसी जलती हुई मशाल की तरह है जिसके बुझ जाने पर फिलहाल ॲंधेरा अट्टहास कर रहा है कि मैंने रोशनी को निगल लिया। ॲंधेरे को क्या यह बात मालूम है कि मशाल की रोशनी उसी वक्त बुझती है जब सूरज उगने को होता है।

काॅमरेड नियोगी, छत्तीसगढ़ की धरती में दफ्न हुए लगभग सबसे जुझारू, संघर्षशील और गैरसमझौतावादी जननेता के रूप में याद रखे जाएंगे। उनका दहकता इस्पाती जीवन छत्तीसगढ़ के असंख्य और असंगठित किसानों, मजदूरों के साथ-साथ युवा पीढ़ियों और बुद्धिजीवियों के लिए प्रेरणास्रोत है। बंगाल की शस्य श्यामला धरती का यह सपूत विद्रोही कवि काज़ी नजरुल इस्लाम की कविता के एक छंद के रूप में छत्तीसगढ़ की धरती में बिखरकर आत्मसात हो गया। दलों, गुटों, जातियों और क्षेत्रीयता के आधार पर टूटे हुए राजनेताओं के लिए शंकर गुहानियोगी अपनी मृत्यु के बाद भी एक तिलस्मी व्यक्तित्व बने हुए हैं। यही उनकी कालजयी ख्याति का प्रमाण है।

नियोगी ने मध्यप्रदेश के उपेक्षित, शोषित लेकिन विपुल संभावनाओं वाले छत्तीसगढ़ के निवासियों के लिए भगीरथ प्रयत्न किया। वे अनोखे और बेमिसाल थे। भविष्य में भी कोई अकेला जानदार नेता उन कामों को पूरा कर सकेगा इसमें सन्देह है। नियोगी के व्यक्तित्व में वह स्निग्धता, सरलता और अनूठापन था जो राष्ट्रीय ख्याति के नेताओं के स्वभाव में होता है। नियोगी में सर्वहारा वर्ग के प्रति जन्मजात उपजी करुणा थी। ऊपर से दीखने वाले उनके जिद्दी और अड़ियल व्यक्तित्व की बुनियाद में कोमल मन धड़कता था। उन्हें राजनीति का कवि भी कहा जा सकता है। नियोगी ने छत्तीसगढ़ की धरती से सम्पृक्त होकर भूगोल की सरहदों से ऊपर उठकर राजहरा के मजदूर आन्दोलन को राष्ट्रीय आधार पर प्रतिष्ठित किया। संवेदनशीलता का भावी इतिहास अपनी सिसकियों में सदैव पूछेगा- शंकर गुहा नियोगी तुम कहां हो?

Leave a Comment