— मणिमाला —
1911 में हुई जनगणना में जातीय आधार शामिल किया गया था. हालांकि उसे सार्वजनिक नहीं किया गया. कहा गया कि कई सारी गलतियाँ रह गईं है. भूल सुधार के बाद 28 जुलाई 2015 को एक संशोधित रिपोर्ट प्रकाशित की गई. तब जबकि जाति/धर्म न मानने वालों के लिए अलग से कोई कॉलम नहीं था तब कुल 2.04% (or 36.57 lakh) लोगों ने कहा था कि वे किसी भी जाति, धर्म या ट्राइब के नहीं हैं. 121 करोड़ की आबादी में यह संख्या बहुत बड़ी भले ही नहीं है, लेकिन इतना तो है ही कि इस पर गौर फ़रमाया जाए. कई लोगों के सामने आज भी यह सवाल है कि जो लोग जाति/धरम नहीं मानते, या जिन्होंने अंतर्धार्मिक / अंतरजातीय शादियाँ की है, या जिस परिवार में कई धर्मो/जातियों के लोग हैं वे अपने आपको किस जाति या धर्म के कॉलम में डालेंगे. यह समस्या 2011 के सर्वे के वक़्त भी थी. जाति/धर्म न मानने वालों के लिए तब कोई अलग से कॉलम नहीं था. फिर भी लोगों ने जाति/धर्म न मानने की बात कही थी.
तार्किक तो यह था कि आरक्षण की आलोचना करने वाले ही जातीय गणना का समर्थन और मांग करते. अगर जाति की जकड़न टूटी है, या ढीली पड़ी है तो बहुत अच्छी बात है. इस तथ्य को सामने आना ही चाहिए. इन तथ्यों के आधार पर वे आरक्षण के खिलाफ़ ज्यादा ज़ोरदार तर्क पेश कर सकेंगे. शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में कितना बदलाव आया है, विभिन्न जातियों में इस जानकारी के बगैर आरक्षण का विरोध करना तो समझ से परे है. यह बहस बहुत पुरानी है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर मिलना चहिये, जातीय आधार पर नहीं. अब तो 10 प्रतिशत आरक्षण मिलने भी लगा है. सेन्सस सिर्फ एक रश्मी सरकारी उपक्रम नहीं है, यह समाज का सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आईना है जो हमें बतलाता है कि हम दस साल पहले कहाँ खड़े थे और आज, दस सालों में हम कहाँ पहुंचे .
सच्चाई तो यह है यह डर आरक्षण का फ़ायदा उठाने वालों को होना चाहिए था कि कहीं ऐसा न हो कि उनकी शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक स्थिति पहले के मुकाबले इतनी बेहतर न हो गई हो कि ऐसा लगने लगे कि अब उन्हें वाकई आरक्षण की ज़रुरत नहीं है. अब उन्हें OBC ( [officially the SEBC, the Socially and Educationally Backward Classes)की सूचि से बाहर कर देना चाहिए. इंदिरा सहनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी था हर दस साल पर जातीय सर्वे की ज़रुरत है ताकि आरक्षण सूचि को समसामयिक बनाया जा सके. जो न तो आरक्षण के समर्थन में हैं और न ही विरोध में, उन्हें तो निश्चित तौर पर जातीय जनगणना का समर्थन करना ही चाहिए. जाति शामिलात डाटा आये दिन सड़कों पर हो रहे उन आन्दोलनों का चेहरा भी साफ करेगा जो जातियां पिछड़ों की सूचि में शामिल होने को बेताब है. मसलन, अगर जाट और मराठा अति पिछड़ों की लिस्ट में शामिल होना चाह रहे हैं तो इससे हासिल डाटा उन्हें यह साबित करने के लिए तार्किक आधार देगा कि ऐतिहासिक कारणों से वे समाज के हाशिए पर हैं. कोई भी आरक्षण साबित हो सकने लायक व्यावहारिक तथ्यों के आधार पर हो तो ही सबके लिए अच्छा होगा. इसके लिए जाति शामिलात जनगणना से बेहतर दूसरा आधार क्या हो सकता है?
यह अपने आपमें हास्यास्पद है कि बिना आर्थिक-शैक्षणिक डाटा के आरक्षण चाहे आर्थिक आधार पर हों या जातीय आधार पर लागू है. या तो लोगों को कोई जानकारी नहीं है या जान बुझकर इसका विरोध किया जा रहा है. यह सच्चाई से आँखे चुराने जैसा है.
जाति शामिलात जनगणना के विरोध में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि 1931 के बाद कभी जातीय गणना नहीं हुई तो अब क्यों? यह उल्टी गंगा बहाने जैसी बात होगी. जो जाति 31 साल पहले ही पीछे छूट चूका है उसमें वापस लाने की क्या ज़रुरत है? यह तो जाति का पुनर्योदय होगा. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. आज़ादी के बाद हुई हर जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के तहत आने वाली तमाम जातियों और ट्राइब की गिनती होती रही है. इससे यह तो पता चल जाता है कि सफ़ाई का काम करने वाले कितने दलितों और मजदूरों के पास किस प्रखण्ड, गाँव, पंचायत या जिले में दोपहिया वाहन है और कितने खेत मज़दूर हैं, कितनों ने ग्रेजुएशन किया? क्योंकि 1931 के बाद से अन्य जातियों की जानकारियां नहीं ली गईं, लेकिन बाकि जातियों के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं मिलाती.
दूसरी आपति यह जताई जाती है आज की तारीख में जाति के आधार पर जनगणना लगभग नामुमकिन है,. अगर पिछड़ी जातियों के लोगों को भी उसी तरह गिना जाय जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को गिना जाता है, तो इसमें क्या दिक्कत है. कोई नई परेशानी नहीं आने वाली. एक अतिरिक्त कोलोम ही तो जोड़ना है. रही बात राज्यों और देश के अलग-अलग लिस्ट होने की, तो राष्ट्रीय सूचि को आधार मानकर बनाया जा सकता है. चूँकि अगड़ी जातियों की कोई बनी-बनाई सूचि नहीं है, उन जातियों को सूचीबद्ध करना मुश्किल हो सकता है, नामुमकिन नहीं. जाति/धर्म के कोलोम को open छोड़ा जा सकता है. ऐसा करने से उन्हें भी अपनी बात कहने का मौका मिल जायेगा जो किसी जाति-धर्म में यकीन नहीं करते और अपने आप को सिर्फ और सिर्फ इन्सान मानते हैं, और जो किसी तरह के आरक्षण के अभिलाषी नहीं हैं. वे अपना धर्म इंसानियत और अपनी जाति इन्सान लिख सकते है. इसका सम्मान किया जाना चाहिए. इस तरह की जनगणना से हमें यह भी पता चलेगा कि वाकई जाति की जकड़न कितनी कम हुई है. हाँ, जनगणना हो जाने के बाद जातीय आधार पर तालिका बनाने में थोडा वक़्त ज़रूर लगेगा. लेकिन यह भी तो होता ही आया है. जनगणना हो जाने के कुछेक साल बाद इस तरह के विश्लेषण तो होते ही आये हैं.
तीसरी आपति है कि जातीय आधार पर जनगणना होने से आरक्षण सूचि में शामिल हो सकने वाली जातियों की संख्या में काफ़ी इजाफा हो और आरक्षण के लिए 50% की सीमा हटाने का दबाव बढ़ जाये. लेकिन अगर सच्चाई यही है कि पिछड़ी जातियों के लोगों की जनसंख्या उनके लिए निर्धारित 27% से काफ़ी ज्यादा है तो यह ठोस रूप से जान लेने में क्या दिक्कत है? मंडल कमीशन के हिसाब से पिछड़ों कि आबादी 52% है. सिफ़ारिश सिर्फ 27% इसलिए कि गई क्यों कि 50 % से ज्यादा आरक्षण का विधान नहीं है. अगर उनकी संख्या 50 प्रतिशत से कम (40-45 %) है तब भी 27 % में क्या दिक्कत है? इस तर्क में तो दम ही नहीं है कि जातीय गणना एक किस्म कि राजनीति मांग है तो फिर इसका विरोध भी तो उतना ही या उससे भी ज्यादा राजनीतिक है. 2010 में जाति आधारित जनगणना हो भी चुका है, सिर्फ आंकड़े विधिवत् जारी नहीं किये गए, लेकिन छान छान कर आते ही रहें.
यह तो बिलकुल ही हास्यास्पद है कि आम तौर पर जो आरक्षण के ख़िलाफ़ हैं वे जातीय जनगणना के भी खिलाफ़ हैं. जो जातीय आरक्षण के पक्ष में हैं वे जातीय जनगणना के पक्ष में हैं. यह राजनीतिक लकीर बिलकुल साफ-साफ दिखती है.
इसे ध्यान में रखते हुए आज तो बिलकुल ज़रूरी है कि जनगणना में जाति/धर्म/शिक्षा/आय/ आय के स्त्रोत….यानि कि एक पूरा सामाजिक आर्थिक सर्वे हो. दस सालों में हमेशा की तरह बहुत कुछ बदला है. दस साल बहुत होते हैं बदलाव के लिए. ऐसे में जाति आधारित जनगणना का विरोध करने का कोई अर्थ नहीं दिखता, पर हो रहा है. दूसरी तरफ़ आरक्षण हटाने की मांग इतनी ज़ोर पकड़ रही है कि जातियों और जातियों में बंटे लोगों की गिनती एक तरह से ज़रूरी हो गई है. कहा जाता है कि न अब कोई जाति-पति रह गई है और न ही जाति के आधार पर किसी तरह का भेदभाव हो रहा है. ऐसी में अब आरक्षण कि कोई ज़रुरत नहीं रह गई है. एक तरफ़ आरक्षण ख़तम करने की बात की जा रही है दूसरी तरफ़ जाति आधारित जन गणना का विरोध भी कर रहे हैं. हाँ, जाति और धर्म और ट्राइब के कॉलम को खुला छोड़ने की ज़रुरत है. ताकि लोग खुल कर अपने आप को जाति धर्म न मानने वालों में डाल सकते हैं. इस ट्रेंड को भी पता करना बहुत ही ज़रूरी है. इससे समाजमें आ रहे बदलाव को देखा जा सकता है.
2011 में जब जनगणना में जाति जोड़ने की बात हुई तब भी सिर्फ समाज नहीं, सिर्फ़ संसद नहीं, राजनीतिक दल भी बंटे हुए थे. लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने समर्थन किया था जबकि सत्तारूढ़ कांग्रेस के गृह मंत्री पी चिदंबरम इसके खिलाफ़ थे. उनका मानना था कि यह बहुत ही मुश्किल काम है. लेकिन जाति आधारित गणना यह मानते हुए हुई कि योजनाएं बनाने और उन्हें ज़रूरतमंद लोगों तक पहुचाने में मदद मिलेगी. इस साल (1911 में) जनगणना के दौरान हाथ से मैला उठाने वालों और तीसरी लिंग के लोगों की भी गिनती हुई. साथ ही गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों की भी गिनती हुई थी. यह एक तरह से देश का चौथा BPL सर्वे भी था. इससे पहले १९९२, १९९७ और २००२ में BPL सर्वे हुए थे.
पहला जाति आधारित जनगणना 1881 में हुआ था. 2017 में सरकार ने तय किया कि इस बार गरीबी रेखा के आधार पर नहीं, सामाजिक-आर्थिक आधार पर जनगणना की जायेगी. इससे योजनाएं बनाने और लागु करने में सुविधा होगी. 2011 में तीन अलग अलग एजेंसिओं ने सर्वे किया था. ग्रामीण ईलाकों में जनगणना भारत सरकार के ग्रामीण विकास विभाग, शहरी ईलाकों में Ministry of Housing and Urban Poverty Alleviation और जातीय जनगणना भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत जनगणना आयुक्त और महासचिव ने किया था. संयोजन भारत सरकार के ग्रामीण विकास विभाग ने किया था.
जाति आधारित जनगणना July 2014 में प्रकाशित हुआ तो दिल-दिमाग झकझोर देने वाले तथ्य सामने आये. विभिन्न जातियों और उपजातियों की संख्या 46,73,034. इनके भी कई बंटवारे थे गोत्र, उपनाम आदि के रूप में . इस रिपोर्ट को ज़ाहिर करने के सवाल पर काफ़ी बवाल मचा. नवम्बर 2014 में सारे राज्यों को इसे फ़िर से समीक्षा करने को कहा गया. 28 जुलाई 2015 को संशोधित रिपोर्ट पेश की गई. कहा गया कि इस सर्वे में कुल 8,19,58,314 गलतियाँ हैं. उनमें से 1,45,77,195 गलतियाँ सुधार ली गई हैं.
हालांकि ज़्यादातर राजनीतिक दल अपने इस्तेमाल के लिए जातिवार डाटा इकठ्ठा कर चुके हैं, कई जातिवार जनगणना के खिलाफ़ हैं तो कई इसकी पूरजोर मांग कर रहे हैं.
उदहारण के लिए तेलंगाना ने 2014 में ही तेलंगाना राष्ट्र समिति ने सत्ता में आते ही ‘समग्र’ कुटुंब सर्वे’ नाम से एक सर्वे करवाया था. इसमें जाति सम्बंधित जानकारियां भी विस्तार से इकठ्ठी की गई थी. 19 अगस्त 2014 को हुए इस सर्वे में उनसे भी भाग लेने की अपील की गई थी जो उस दिन राज्य से बाहर थे. यहां तक कि विदेश गए या विदेश में रह रहे तेलंगाना वासियों से भी अपील की गई थी कि वे हर हाल में अपने घरों में मौजूद रहें. लोगबाग दूर दराज़ के ईलाके से अमेरिका, खाड़ी देशों,और जहाँ थे वहां से बदहवास चले आ रहे थे. यहाँ तक कि नवजात शिशुओं को लेकर भी लोग अपने पुस्तैनी गाँव भागे जा रहे थे.
अँगरेज़ सरकार ने यूं तो अपने टैक्स कलेक्सन के लिए 1865 से 1872 के बीच एक सर्वे करवाया था, इसमें जाति सम्बंधित जानकारियां भी थीं. लेकिन 1881 में पूरे देश में जनगणना करवाया और जाति सम्बंधित ब्यौरा 1872 के सर्वे से लेकर जोड़ा. तब भी ब्राह्मण जमात के वे लोग जो अंग्रेजों के करीब थे, ने जातिवार गणना का विरोध किया था. वे नहीं चाहते थे कि लोगों को यह पता चले कि आबादी में वे काफ़ी कम है फिर भी तमाम उच्च पदों पर छाये हुए हैं. वे गांवों में खेतों-खलिहानों, शहरों में कल-कारखानों या बाकी क्षेत्रों में काम करने वाली आबादी का हिस्सा भी नहीं थे. लेकिन ब्राह्मणों सहित अन्य उच्च वर्णीय लोग जिनमें बनिया, कायस्थ, क्षत्रिय में से काफ़ी लोगों ने संस्कृत, अंग्रेजी और फ़ारसी लिखना पढ़ना सिख लिया था. इन सबों ने न सिर्फ जातिवार गणना का विरोध किया था बल्कि जनगणना का ही विरोध किया था. एक बार फ़िर सवर्णों का यही हिस्सा जातिवार गणना का विरोध कर रहा है. याद करने की ज़रुरत है कि इसी जमात ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने कि खिलाफ़ आवाज़ उठाई थी. भानु प्रताप मेहता जैसे कुछ जाने माने बुद्धिजीवी भी जातिवार जनगणना का विरोध इस बिना पर कर रहे हैं कि यह अंगेजों की देन है. वे 1800 और उसके बाद हुई जनगणना का उल्लेख भी करते हैं. वे जातिवार जनगणना को ही जातिवाद की शुरुआत मानते हैं. जबकि जाति की व्यवस्था तो वेदों के ज़माने से चली आ रही है. ऋग्वेद, कौटिल्य के अर्थशाश्त्र और मनु के धर्मशास्त्र में जाति का स्पष्ट उल्लेख ही नहीं, जाती की पूरी व्यवस्था का ही चित्रण है.
1931 से 1951 तक विश्व युद्ध और अकाल सहित अन्य कारणों से जनगणना जातिवार गणना नहीं हुई . जाति व्यवस्था की मुखालफ़त करने वाले नेहरू और उनके साथ के बुद्धिजीवियों ने भी यह कहते हुए जातिवार गणना का विरोध किया था कि यह जाति के पुराने जख्मों को कुरेदेगा. उन्होंने काका कालेलकर द्वारा की गई OBC reservation की सिफ़ारिश को भी मानने से इनकार कर दिया.
उस वक़त पिछडी जाति का एक भी बुद्धिजीवी ऐसा नहीं था जो विदेशों से पढ कर आया हो और उनके मुकाबले बहस में टिक सके दलितों की तरफ़ से आमबेडकर अपनी बातें रख पाते थे. अंग्रेजों के जाते ही पूरी की पूरी बौधिक, राजनीतिक, और प्रशासनिक व्यवस्था सवर्णों के हाथ में आ गई.