— राजकिशोर —
एक समय था, जब हिंदी में आस्था के संकट की बहुत चर्चा होती थी। आजकल इसके स्थान पर विचारहीनता की चर्चा होती है। बताया जाता है कि हम एक विचारहीन समय में जी रहे हैं। यह आरोप ऐसे समय में लगाया जा रहा है जब विचारों की बहुतायत दिखाई पड़ रही है। जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र या पहलू हो, जिस पर विचार-पुनर्विचार न चल रहा हो। सच तो यह है कि आज जितनी गहरी प्रश्नाकुलता दिखाई देती है, उतनी या उस पैमाने पर शायद ही कभी इतिहास में दिखाई दी थी। इसके साथ ही, जीवन शैली के जितने प्रयोग आज हो रहे हैं, उतने पहले कभी नहीं हुए थे। निश्चय ही, सब कुछ अच्छा ही नहीं हो रहा है – खासकर ऐसे मामलों में जिन पर उत्तर-आधुनिक औद्योगिक तथा व्यावसायिक संस्कृति की गहरी छाया है।
लेकिन उन्हें व्यक्तिगत या सामाजिक एडवेंचर के रूप में समझा जा सकता है और यह उम्मीद की जा सकती है कि संक्रमण काल की ये विकृतियां कोई स्थायी रूप नहीं ले सकेंगी। प्रश्न काल के इस विराट पुनरोदय में सबसे बड़ी बात यह हुई है कि कुछ भी प्रश्न से परे नहीं रहा। कहा जा सकता है कि इसके साथ ही पवित्र की अवधारणा का क्षय भी हुआ है। लेकिन यह अपरिहार्य था। ‘पवित्र’ के नाम पर व्यक्ति की चेतना पर ऐसी बहुत-सी तानाशाहियां लाद दी गयी थीं, जो जीवन में घुटन पैदा करती थीं अथवा समर्पण की संस्कृति को प्रोत्साहित करती थीं। आज पवित्रता के नाम पर अगर कुछ स्वीकार्य है तो वह है प्रश्न करने की आजादी तथा आदमी और आदमी के बीच लोकतांत्रिक रिश्ता।
फिर भी, भारत में विचारहीनता के अभिशाप का इतना घोर बोध फैल रहा है, तो इसका कारण यह है कि कोई संगठित विचारधारा इस समय शक्तिशाली नहीं है। ऐसी अनेक विचारधाराओं ने एक समय देश के लाखों युवक-युवतियों का चित्त आकर्षित किया था। वे विचारधाराएं आज भी विद्यमान हैं, लेकिन इस दृष्टि से निर्जीव हो चुकी हैं उनसे अब किसी को प्रेरणा नहीं मिलती। असल में, जो विचारधारा जीवन शैली को बदलने में नाकामयाब रहती है, वह जल्द ही वैचारिक रूढ़ि बन जाती है और धीरे-धीरे किताबों में दफन हो जाती है। यह शिकायत जरूर की जा सकती है कि आज के भारत में जो नए विचार सामने आ रहे हैं, उनमें दो महत्त्वपूर्ण कमियां हैं। एक कमी तो यह है कि कोई भी विचार एक संपूर्ण जीवन दर्शन बनने के लिए आकुल नहीं है।
छिटपुट विचारों से किसी एक पहलू पर रोशनी पड़ सकती है, लेकिन कोई समग्र जीवन दर्शन नहीं उभर सकता। दूसरी कमी यह है कि विचार जितना प्रखर है, उसे जीने की ललक उतनी मजबूत नहीं है। यानी, विचार का साहस कर्म के साहस में रूपांतरित नहीं हो पाता। सोचते सब अलग अलग तरीके से हैं, लेकिन जीते एक ही तरह हैं। इससे भीतर का संघर्ष बाहर व्यक्त नहीं हो पाता और सब कुछ एक जैसा सपाट दिखाई देता है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि वास्तविक संकट विचारों का नहीं, मूल्यों का है?
विचार जब जीवन-निष्ठा में बदलते हैं, तब जाकर वे मूल्य बनते हैं। विचारों के क्षेत्र में मौलिकता और प्रखरता, लेकिन मूल्यों के स्तर पर शिथिलता और एकरूपता – यदि समस्या यह है, तो इसे क्या नाम दिया जाए? क्या यह कहा जा सकता है कि यह बेईमानी का समय है? क्या इस बेईमानी के कारण ही कोई भी मौलिक उद्भावना समाज के स्तर पर कारगर नहीं हो पाती?
निश्चय ही आज के समय में दो अंधकार प्रदेश बहुत सघन हुए हैं। एक का नाम धार्मिक कट्टरता है – जिसकी एक अभिव्यक्ति सांप्रदायिकता है – और दूसरे को बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा फैलाई जा रही दासता की संस्कृति कहा जा सकता है। दोनों ही अंधकार प्रदेशों में प्रश्न पूछने की मनाही और जीने की एक जिद्दी और अंधी ललक है। धार्मिक कट्टरता के कारण जो जेहादी वातावरण पैदा होता है, उसमें सभ्यता और संस्कृति के सभी मूल्य स्वाहा हो जाते हैं। यहां तक कि झूठ और सच की मामूली पहचानें भी गुम हो जाती हैं। दुर्भाग्य से यही अवगुण व्यावसायिक संस्कृति में भी दिखाई देते हैं, जहां एक प्रतिभाशाली पीढ़ी के अधिकांश सदस्य अपनी कर्मठता का भयावह व्यावसायिक उपयोग कर रहे हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि धार्मिक कट्टरतावाद और व्यावसायिक कट्टरतावाद – ये दोनों ही शक्तियां अपने-अपने क्षेत्र में इतनी संगठित और मजबूत हैं कि सामान्य आदमी इनके सामने अपने आपको असहाय पाता है। इनमें से एक अविकास की विकृति है, तो दूसरे को विकास की विकृति कहा जा सकता है। दुर्भाग्य यह भी है कि आज के भारत में दोनों को एकसाथ देखा जा सकता है।