अमरीकी लोगों के सामने शिक्षा के दो आदर्श थे-एक जर्मन और दूसरा अंग्रेजों का। अंग्रेजी शिक्षा आंकड़ों, सूचनाओं तथा जानकारी पर निर्भर रहती है, और जर्मन शिक्षादृष्टि और तरीकों पर जोर देती है।
अध्ययन की पद्धति या तरीका विद्यार्थी के निर्णय पर अधिक निर्भर करता है, क्योंकि जानकारी और दृष्टि सर्वथा अलग नहीं रखी जा सकती। पढ़ाने के तरीके में स्वतंत्रता रहना आवश्यक है। तभी अध्ययन के साथ-साथ एक दृष्टि, दुनिया को जानने का एक ढंग बनता जाता है।
अंग्रेज अध्यापक जानकारी और सूचनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जर्मन अध्यापक शिक्षार्थी के तर्क और खोज करने की आदत को जागृत करने का प्रयत्न करते हैं। जर्मन शिक्षा संस्थाओं में कोई भी विद्यार्थी किसी भी अध्यापक से शिक्षा ग्रहण कर सकता है। यहां तक कि उसे अपना परीक्षक चुनने की भी छूट रहती है। कभी-कभी तो विद्यार्थी 6 मांस में मुश्किल से दो-चार दिन ही कक्षा में जाते हैं। जर्मन अध्यापक यह जान कर संतुष्ट हो जाता है कि आप उन तरीकों को जानते हैं, जिनसे पुस्तकालय या अन्यत्र भी कोई काम की चीजें खोज सकते हैं।
शिक्षा के साथ तर्क और एक प्रकार की दृष्टि का निर्माण भी जरूरी है, अन्यथा शिक्षा जिंदगी में किसी भी प्रकार की चेतना नहीं ला सकती। तर्क जानकारी और दृष्टि में तारतम्य स्थापित करता है।
इस बात को मानना कि शिक्षा स्वयं में एक उद्देश्य है, सच्चाई को छिपाना है। निश्चय ही शिक्षा का पहला और बुनियादी उद्देश्य है, योग्यता और कर्म-कौशल हासिल कर अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार लाना। दूसरा उद्देश्य है, दुनिया के बारे में समझ और सहानुभूति हासिल करना। दिमाग खुला और छाती चौड़ी, शिक्षा के उच्चतम उद्देश्य हैं। भारत में शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन की बातचीत बड़े जोर-शोर से की जाती है। किंतु हर शिक्षा-योजना का उद्देश्य यही होता है कि किस क्लास की पढ़ाई कितने वर्षों की हो, या दूसरा उद्देश्य यह होता है कि यह विषय उस विषय के साथ न पढ़ाया जाए, या उस विषय को इस विषय के साथ पढ़ाया जाए।
वर्तमान शिक्षा के चलाने वाले शिक्षा का उद्देश्य सेवा बतलाते हैं, किंतु वे स्वयं ऊंची शिक्षाएं लेकर बड़े-बड़े ओहदों पर मौजूद हैं और आराम तथा शान का जीवन व्यतीत करते हैं। फलतः उनके सेवा वाली शिक्षा की अपील का कोई भी असर नहीं पड़ता। शिक्षा के ये मालिक जीवन में सफलता प्राप्त लोग हैं। अधिकारविहीन लोग अनुशासन की बात करते हैं। एक ओर तो 16 और 18 वर्ष के युवकों को राजनीति से अलग रहने का उपदेश दिया जाता है, दूसरी ओर 7-8 साल के बच्चों को कवायद की ट्रेनिंग इसीलिए दी जाती है, जिससे वे विदेशी राजपुरुषों को आगमन या स्वतंत्रता-समारोह के अवसर अथवा जन्म-दिवस पर “चाचा-जिंदाबाद” के साथ सलामी दें। इस प्रकार का पाखंड पूरे देश पर बुरी तरह जम गया है।
किंतु केवल शासकों के पाखंड पर दृष्टि जमा कर ही हमें संतोष नहीं कर लेना है। छात्रों द्वारा पत्थर फेंकना, बस जलाने या तार काटने या बेकार गाड़ी की जंजीर खींचने का काम उतना ही राक्षसी है, जितना और अधिकारियों की ओर से राक्षसी व्यवहार होता है। बिना टिकट चलने वाले पहले तो बिना टिकट चल कर गलती करते हैं, दूसरे टिकट मांगने वाले को अशिक्षित और नीच समझ कर दुहरा अपराध करते हैं।
इसीलिए जानकरी हासिल करने के साथ-साथ दृष्टि में सुधार लाना आवश्यक है। शिक्षा के स्वरूप और उसके उद्देश्य के मामले में कोई बुनियादी दृष्टिकोण भला कैसे बने, जब समाज के बारे में ही किसी प्रकार की दृष्टि नहीं बन पाई हैं?
हमारे देश में दो प्रकार की शिक्षा-संस्थाएं हैं-एक में प्रति विद्यार्थी खर्च आठ आने मासिक और दूसरे में दो सौ रुपए मासिक। अभी तक दुनिया के सभी देश मानवता की केवल बात करते हैं, उनका दृष्टिकोण मूलतः राष्ट्रवादी है। वे उन्नति का मतलब केवल राष्ट्र की उन्नति से ही लेते हैं। परंतु राष्ट्रीय उन्नति के लिए यह जरूरी है कि 6 से 12 वर्ष तक के बच्चों के लिए स्कूल एक कर दिए जाएं। कम से कम प्रारंभिक शिक्षा समानता के स्तर पर आ जाए। प्रारंभिक शिक्षा को समान स्तर पर लाने के निम्नलिखित उपाय हैं:
प्राथमिक शिक्षालयों के बुनियादी तरीके बदल दिए जाएं, और 6 से 12 वर्ष तक के बच्चों की पढ़ाई के लिए म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को स्कूल खोलने के सिवाय और किसी को स्कूल खोलने का अधिकार ही न दिया जाए। इसका फल यह होगा कि भंगियों और टाटा-बिड़ला के लड़के-लड़कियां उसी म्युनिसिपल बोर्ड या डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूल में पढ़ेंगे। इसका अवश्यंभावी प्रभाव शासक वर्ग पर भी पड़ेगा, क्योंकि जब उनके बच्चों की शिक्षा इस प्रकार के स्कूलों में बिगड़ने लगेगी तो स्वार्थवश ही सही पर वे कुछ सुधार लाने की कोशिश करेंगे।
इस प्रकार की समान शिक्षा-व्यवस्था से दिखावटी शिष्टाचार तो अवश्य कम हो जाएगा, पर जीवन के विषय में बनी दूषित दृष्टि में सुधार होगा। जब टाटा-बिड़ला, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और भंगी मजदूर के बच्चे सभी एक स्कूल में पढ़ेंगे, तो इन स्कूलों में सुधार तो होगा ही, निश्चित रूप से समाज और जीवन के प्रति उनकी एक दृष्टि बनेगी। देहरादून वाली शिक्षा से उनकी जानकारी तो छिछली रहती है तथा एक अजीब जैसा महत्वपूर्ण चीजों की जबान से बार-बार चर्चा करते रहने पर भी इसके हर पहलू पर ध्यान कम देते हैं।
आज मैं आपसे बराबरी के बारे में बातचीत करूंगा और चाहूंगा कि बाद में भी आप इस पर सोच-विचार करें। बराबरी या समत्व का आम तौर पर सीमित मतलब समझा जाता है। अधिकतर लोग बराबरी से सिर्फ भौतिक या आर्थिक बराबरी का मतलब लगा लेते हैं। लेकिन बराबरी के और भी पहलू हैं, जो भौतिक बराबरी से किसी भी माने में कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।
बराबरी के तीन पहलू हैं : भौतिक, सहानुभूतिगत और आध्यात्मिक समत्व । भौतिक बराबरी देश के अंदर और देशों के बीच आपसी रिश्ते के सिलसिले में समझी जा सकती है। इस तरह इसके दो रूप मिलते हैं: देश के भीतर अंदरूनी बराबरी और दुनिया के देशों के बीच आपसी बराबरी ।
जब मैं देश की अंदरूनी बराबरी की बात करता हूं, तो उसका एक मुख्य पहलू होता है, लोगों की आय और दूसरी आर्थिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के बीच समानता । हिंदुस्तान के अंदरूनी गैरबराबरी भयानक रूप से है। उदाहरण के लिए एक आंकड़ा लीजिए : खेत-मजदूर दस-बारह आना रोज पाता है; सूबे की सरकार का चपरासी एक रुपया रोज पाता है; और करोड़पति की आमदनी दस से पंद्रह हजार रुपए तक रोजाना होती है।
दुनिया के देशों की आपसी गैरबराबरी शायद अधिक नाशक है। दुनिया दो हिस्सों में बंटी हुई है। कुछ देश ऐसे हैं, जो बहुत अधिक धन पैदा करते हैं। मिसाल के लिए, अमरीका और रूस दोनों की आबादी मिला कर लगभग 37 करोड़ है, जो दुनिया की आबादी का लगभग छठा हिस्सा है। ये दोनों मिल कर दुनिया के उत्पादन का 60 से 65 प्रतिशत तक, लगभग दो तिहाई हिस्सा पैदा करते हैं। पश्चिम की सभ्यता अपनी राष्ट्रीय सीमाओं में निरंतर बढ़ते जीवन-स्तर हासिल करने का प्रयास करती है। लेकिन भौतिक बराबरी का तात्पर्य एक राष्ट्र की सीमा में मनुष्य और मनुष्य के बीच की बराबरी ही नहीं, बल्कि एक राष्ट्र और दूसरे राष्ट्र के बीच मनुष्यों की बराबरी या समत्व भी है। आज गोरे मुंह वाली दुनिया और काले मुंह वालों की दुनिया में यह बराबरी कहां है? राष्ट्रसंघ में भी पांच तो ब्राह्मण राष्ट्र हैं, जिन्हें ‘वीटो’ का अधिकार है और बाकी सब शूद्र।
समत्व का दूसरा पहलू सहानुभूतिगत है। सहानुभूति तो मन की सहजवृत्ति है। आधुनिक सभ्यता के चक्कर में पड़ कर यह कुछ मंद पड़ गई है, लेकिन है यह सहज वृत्ति ही। अपने से भिन्न स्थिति वालों के प्रति ‘सहानुभूति’ या ‘गुस्सा’ तो आता ही है। एक परिवार में ऐसा तो नहीं होता कि कमाऊ पिता अपने बेकार बेटे से अच्छा खाए-पहने या फिर कमाऊ बेटा अपने बूढ़े पिता को चिथड़े में लिपटा देखना चाहे। शायद कुछ बिगड़े घरों में ऐसा होता हो, लेकिन साधारणतया और अच्छे घरों में तो ऐसा नहीं ही पाता।
मन की निखरी स्थिति में सहानुभूति या क्रोध की सहज प्रवृत्तियां भरपूर काम करती हैं। लेकिन जब मन कुंठित हो जाता है तो वे प्रवृत्तियां दब जाती हैं। लेकिन मन इससे भी ज्यादा गिरता है। बहुत भिखमंगों को देख कर कुछ लोग यह सोचने लगते हैं, हमको-इससे-क्या, हम-क्यों-परेशान-हों या फिर घृणा से दुत्कार देते हैं। जब सहज तहानुभूति की वृत्तियां दब जाएं, और उसके स्थान पर अन्यमनस्कता या घृणा घर कर ले, तो समझो कि पतन की शुरुआत हो गई है।
सहानुभूति के प्रकाशन से मन को आनंद भी मिलता है। हजारों-करोड़ों के साथ उनके सुख-दुःख में सहानुभूति समत्वम् का अपना अलग ही आनंद है। और कष्ट सह कर, मुसीबतें उठा कर भी ऐसे समत्व तक पहुंचने की कोशिश भी होती है। यह भी मनुष्य के लिए स्वार्थ जैसा ही हो जाता है। स्वार्थ प्रत्यक्ष ही नहीं, परोक्ष रूप से भी आता है। मेरे लिए ‘नाम-का-चोर’ बन कर आ सकता है।
इंसान जिंदगी के बारे में सोचता है। शायद 25 से 40 साल की उम्र तक इस ओर ध्यान कम जाता है। मगर इनसान आधार रूप से सोचता अवश्य है। वह सोचता है, भौतिक बराबरी क्यों हो, या ऐसे ही और भी सवाल। अंतिम प्रश्न ‘क्यों’ सर्वत्र लगा रहता है। दर्शन इसी ‘क्यों का उत्तर देते हैं, कोई विशुद्ध ईश्वरवादी उत्तर देता है, कोई विशुद्ध भौतिकवादी और कोई-कोई मिला-जुला।
पश्चिमी देशों में समत्व भौतिक बराबरी तथा सहानुभूति वाली बराबरी का अर्थ रखता है। भारत में समत्व का इन दो के अलावा एक और पहलू भी है और इस पर यहां बहुत जोर दिया गया है। वह है, मन की बराबरी। मन के अंदर वाली बराबरी हिंदुस्तान में अधिक महत्व की है। सुख-दुःख, हार-जीत, सर्द-गर्म, इन सभी स्थितियों में एक-सा बराबर मन या स्थिर मन और आध्यात्मिक समत्व भारत की विशिष्टता है। इसकी चर्चा गीता तथा उपनिषदों में है। मन की इस स्थिति को शीतोष्ण, सुख-दुःख से ऊपर, स्थितप्रज्ञ कहा गया है।
सुख-दुःख, हार-जीत, सर्द-गर्म में समान स्थिति रखना कुछ आसान नहीं। शरीर से बर्दाश्त करने की बात उतनी महत्व की नहीं। ऐसे तो नट भी अभ्यास करके बहुत कुछ कर दिखाता है। लेकिन मन की एक-सी स्थिति रखना वाकई मुश्किल है। लेकिन एक द्रष्टा मन होता है, जो शायद इनसे अलग रह कर या इनके ऊपर सब देखता है और हंसता है क्यों, ठंड लग रही है न?… या बस हार गए न? या तो बराबरी या समत्व का तीसरा पहलू मन की बराबरी-सुख-दुःख, हार-जीत, सर्द-गर्म में हुआ।
इस तरह हम समत्व को एक राष्ट्र की सीमा के अंदर मनुष्य-मनुष्य की बराबरी, और एक राष्ट्र और दूसरे राष्ट्र के बीच मनुष्यों की बराबरी, मनुष्य के प्रति सहज सहानुभूति, सुख-दुःख, हार-जीत, सर्द-गर्म में मन की एक-सी स्थिति कह सकते हैं।
अंतिम समाजवाद शायद 200-300 वर्षों में भी न कायम हो। लेकिन संसार तो एक प्रक्रिया है। यह लीला चलती रहेगी। परंतु यह तो साफ है कि समाजवाद की राजनीति का आधार समत्व ही होगा। भविष्य का हिंदुस्तान ऐसे ही लोगों को पैदा करे।
अब मैं समत्व या बराबरी के इस सिद्धांत को अंतराष्ट्रीय राजनीति से कुछ उदाहरण देकर और स्पष्ट करूंगा।
स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण देशों के बीच आपसी बराबरी की ओर बढ़ने का एक महान और साहसिक कदम है। गोरे मुल्कों से आर्थिक बराबरी हासिल करने के लिए काले मुल्क इसी प्रकार बढ़ें तो एक नई सभ्यता का सपना पूरा हो सकता है।
26 जुलाई, 1956 विश्व-इतिहास की महान घटना है। उस दिन मिस्र ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। विदेशी पूंजी जो 20-30 दफे मूलधन को व्याज के रूप में ले चुकी थी, उसका राष्ट्रीयकरण हुआ।
मैंने इसे विश्वघटना कहा है। 15 अगस्त, 1947 विश्वघटना नहीं है, भले ही वह हिंदुस्तान के लिए महत्वपूर्ण हो। हां, 1 अगस्त, 1920 विश्वघटना है। उस दिन अन्याय के खिलाफ लड़ाई का नया रास्ता निकला। इसी तरह 1905 का शुमार जब जापान ने रूस को यानी एक काले मुल्क ने गोरे मुल्क को हराया, विश्वघटना में होगा।
नवंबर, 1861 में गोरों ने स्वेज पर अद्वितीय उत्सव मनाया। यह उत्सव किसी भी राजा-रानी के विवाह से बड़ा था। तीन-चार दिनों तक विश्व के तमाम जहाज वहां इकट्ठे थे। शायद वह गोरों की आर्थिक उन्नति की पराकाष्ठा का दिन था। इतिहास-चक्र कुछ ऐसा घूमा कि गोरों के साम्राज्यवाद का सूरज वहीं डूबा जहां सूरज सबसे ऊंचा था।
लेकिन एक भ्रम दूर कर देना चाहूंगा। स्वेज का राष्ट्रीयकरण ‘संकल्प की वीरता’ या कालों के आत्मसम्मान की वजह से नहीं हुआ। गोरों द्वारा कर्ज नहीं मिलने पर झल्लाहट की वीरता के कारण कालों ने ऐसा किया। यह संकल्प नहीं, बल्कि ‘झल्लाहट की वीरता’ के कारण हुआ। लेकिन जो भी हो, देशों के बीच गैरबराबरी दूर करने का यह एक शानदार कदम है।
राष्ट्रीयकरण की पृष्ठभूमि में भारत सरकार की विदेशी पूंजी के मामले में लचर नीति सभी को खल रही थी। साथ ही स्वेज के मामले में मजबूत समर्थन के बदले बीच-बचाव नीति से कम से कम कुछ हिस्सों में तो असंतोष बहुत बढ़ा।
मगर भारत सरकार ने आज तक कोई संकल्प नहीं किया वह केवल दूसरों के संकल्पों के बीच-बचाव करती है। चाय के धंधे में 1952-53 में 30 करोड़ रुपए की विदेशी पूंजी लगी थी, जबकि मुनाफे की रकम 1 अरब रुपया थी। यह तो जुआ है। एक लगाओ, तीन पाओ।
अगली पंचवर्षीय योजना में सरकार 10 अरब रुपया प्रतिवर्ष लगाएगी। हिंदुस्तान से अंग्रेजों को लगभग 3 अरब का हर साल मुनाफा मिलता है। अगर अंग्रेजी पूंजी का राष्ट्रीयकरण हो जाए तो द्वितीय योजना में लगाए जाने वाले करों के बोझ से जनता बच जाए।
इस सिलसिले में युद्ध की बात हो सकती है। मगर युद्ध में हार जाने वाले परतंत्र नहीं होते। जर्मनी हारा लेकिन परतंत्र नहीं हुआ, जापान हारा लेकिन परतंत्र नहीं हुआ। युद्ध करके हारने वाले नहीं, बल्कि कभी जोखिम न उठाने वाले परतंत्र होते हैं।
आज हिंदुस्तान में दो बड़े राक्षस पैदा हो गए हैं। पहला है पुलिस की बंदूक और दूसरा है जनता की पत्थरबाजी। ये दोनों ही हमें विनाश की ओर ले जा रहे हैं। आज के हिंदुस्तान का मन कुंठित हो गया है। डिक्टेटरी के सारे लक्षण देश में मौजूद हैं। विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र-विभाग सरकार ने खरीद लिये हैं। टैक्स बढ़ता जा रहा है। पढ़े-लिखे लोग भ्रष्ट किए जा रहे हैं। देश की सारी जनता को ही भ्रष्ट करने की एक जबरदस्त कोशिश चल रही है। सारे भ्रष्टाचार की मां ‘भारत-सेवक समाज’ है। 1920 की ‘अमन-सभा’ और 1940 के नेशनल वार फ्रंट का यह सबसे नया रूप है।लेकिन इन सबसे लड़ना है। इसका सही रास्ता सिविल नाफरमानी का है।
जालिम के आगे झुकेंगे नहीं, मगर उसकी गर्दन भी नहीं काटेंगे, यह इसका मूल मंत्र है। अगर 8-10 लाख ऐसे लोग पैदा हो जाएं तो सारा मामला ही हल हो जाए।
आज हिंदुस्तान का मन बदलना है। उसे निखारना है। हालत बहुत खराब है। मगर एक ही विश्वास है लगातार कोशिश से मन बदला जा सकता है। गधे का भी मन बदलता है।
सिविल नाफरमानी या सविनय अवज्ञा के हथियार का प्रयोग करें। मैं तो युवकों का सिविल नाफरमानी के लिए आह्वान करता हूं। लेकिन वे सोच-समझ कर पड़ें। मैं अपनी जिम्मेदारी से भागता नहीं, लेकिन जिम्मेदारी दुतरफा हो, विद्यार्थी भी अपनी जिम्मेदारी महसूस करें।
1956, सितंबर 10; काशी विश्वविद्यालय