भारत में ‘प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद’ लोकतंत्र

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'Competitive Authoritarian' Democracy in India

— दीपक मलघान —

प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद’मायावी होता है।इसमें संस्थाओं का ढांचा तो बना रहता है लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की आत्मा क्रमशः लुप्तप्राय होती जाती है। संसद में सामान्य कामकाज होता है लेकिन सांसद जनप्रतिनिधि सरकार से सवाल नहीं कर सकते।अदालतों में कामकाज होता है लेकिन अवमानना के मामले में स्वप्रेरणा से त्वरित संज्ञान लेने वाली अदालतों में अत्यावश्यक बन्दीप्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर सुनवाई नहीं होती।

चुनाव आयोग चुनाव करवाएगा लेकिन जो चुनाव आयुक्त पूरी तरह से सरकार के मुताबिक नहीं चलेगा, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। संघीय व्यवस्था होने के बावजूद, संवैधानिक बाध्यता का बहाना बताकर केंद्र राज्यों के संघीय संवैधानिक अधिकारों के पर कुतरता है। स्वतंत्र प्रेस प्रतिदिन आदर से घुटने टेकने और भाटगिरी के नए तरीके खोजने के लिए स्वतंत्र रहता है।पुलिस, सीबीआई, ईडी ,आयकर विभाग आदि की तो बात ही करना फिजूल है।

इस ‘प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद’ के प्रभावी होने के लिए नागरिकों का बन्धकनुमा आचरण भी आवश्यक होता है। उन्हें बंधक जैसा बनाने की प्रक्रिया भी उतनी ही छल कपट पूर्ण होती है जितनी कि केंद्रीय सत्ता की मनमानी। जब शासक को लगता है कि वह रातोरात नोटबन्दी जैसा घातक कदम उठा कर नागरिकों से तालियां बजवा सकता है तो फिर वह कोरोना से जंग के लिए रातोरात लॉक डाउन के जरिये पूरे भारत की असंगठित अर्थव्यवस्था को तबाह भी कर सकता है और जनता से ताली और थाली भी बजवा सकता है।

जब शासक बिना पारदर्शिता के, चुनावी बॉन्ड जारी कर सकता है तो वह पीएम केयर फंड को संसदीय जांच के दायरे से बाहर भी रख सकता है। इस ‘प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद’ के खिलाफ, भारतीय गणतंत्र के संविधान की विरासत को मानने वाले नागरिकों को,गांधीजी द्वारा दिये गए ‘सत्याग्रह’ के दिव्य और अमोघ अहिंसक शस्त्र का उपयोग ही एकमात्र ‘रामबाण’ उपचार है। सत्याग्रह से सीख मिलती है कि लोकतंत्र में मूकदर्शक बनना ठीक नहीं। ये भी सीख मिलती है कि निर्भयता के बिना सत्याग्रह संभव नहीं।
हरेक पीढ़ी का दायित्व है कि वह लोकतंत्र की जड़ों को निर्भय होकर सींचे। बकौल दिनकर:

सत्य न होता प्राप्त कभी भी,सत्य सत्य चिल्लाने से!
मिलता है वह सदा एकनिर्भयता को अपनाने से!
निर्भयता है ज्योति मनुज की,निर्भयता मानव का बल!
निर्भयता शूरों की शोभा,वीरों का करवाल प्रबल!
अभय!अभय!!ओ अमृतपुत्र,बेबसी वेदना बोलो भी!
दम घुट रहा सत्य का भीतर!द्वार हृदय का खोलो भी!
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(सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी, आईआईएम बेंगलुरु के प्रोफेसर दीपक मलघान के लेख का स्वसंपादित सार)

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