गांधीजी के नोआखाली के मार्मिक प्रसंग

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Gandhiji's in Noakhali

हात्मा गांधी ने अगस्त 1946 में नोआखाली जाने का फैसला किया। वे मार्च 1947 तक नोआखाली में रहे।नोआखाली नरसंहार ने समूचे हिंदुस्तान को स्तब्ध कर दिया। हिंदू-मुस्लिम एकता के गांधी के प्रयासों को यह एक बहुत बड़ा धक्का था। गांधी के लिए परीक्षा की असली घड़ी आ गई थी। उन्होंने तुरंत दिल्ली से नोआखाली जाने का निर्णय लिया। कई लोगों ने आशंका व्यक्त की कि हथियार बंद, उन्मादी गुंडों के सामने नोआखाली जाना बेकार है। अक्टूबर के आखिर में दिल्ली से कूच करते वक्त बापू ने इन चिंतित लोगों से कहा, ‘मेरी अहिंसा लूले-लंगड़े की असहाय अहिंसा नहीं है. मेरी जीवंत अहिंसा की यह अग्निपरीक्षा है। अगर असफल हुआ तो मर जाऊंगा, लेकिन वापस नहीं लौटूंगा।’

गांधी का नोआखाली मिशन उनके जीवन का सबसे कठिन कार्य है। दीनानाथ गोपाल तेंदुलकर जो महात्मा गांधी की जीवनीकार हैं उन्होंने Mahatma The Life of Mohandas Karamchand Gandhi में नोआखाली का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है। गांधी जी ने नोआखाली पहुंचकर अकेले ही पीड़ित गांवों का पैदल भ्रमण करना शुरू कर दिया। नोआखाली में गाँधीजी चाहते तो उनके साथ पूरी सुरक्षा हो सकती थी क्योंकि वो देश के सबसे अहम लोगों में से एक थे।उनके शिष्यों की सरकार दिल्ली में थी। वे अपने चुनिंदा शिष्यों की मंडली लेकर वहाँ गए थे। वे उन सबको अलग अलग गांव में भेजते हैं। प्यारेलाल को अलग गांव में, सुशीला नायर को अलग गांव में, राम मनोहर लोहिया को अलग गांव में।

वे सभी को समझाते हुए कहते हैं कि तुम सब को यहां जान का जोखिम उठाना है और आपका काम है यहाँ अमन कायम करना। इस बीच प्यारेलाल बीमार पड़ जाते हैं। प्यारेलाल की बहन डॉक्टर सुशीला नायर हैं। प्यारेलाल गांधी को खबर भेजते हैं कि वे बीमार है और बेहतर हो कि उनकी बहन आए और उन्हें देख लें। गांधी वापस खबर भिजवाते हैं कि प्यारेलाल को तो प्राकृतिक चिकित्सा (नैचुरोपैथी) का पता है और यहाँ नारा है करो या मरो और मरने में बीमारी से मरना भी शामिल है। इसलिए कोई अपना काम छोड़कर कहीं नहीं जाएगा। सुशील नायर के जिम्मे एक गांव है वे वहाँ रहेंगी।प्यारेलाल को अपना खयाल खुद करना है और गांधी खुद अकेले घूम रहे हैं। नोआखली में हमने एक 77 साल के बूढ़े को अपने हाथ से अपने कपड़े धोते, अपनी लालटेन का कांच साफ करते देखा है।

गांधीजी का ये सफर रोंगटे खड़े कर देने वाला है क्योंकि उनके रास्ते में पाखाना फेंका जाता है। गाँधी के रास्ते में कांटे बिछा दिए जाते हैं और गांधी को रोकने की हर सम्भव कोशिश की जाती है। गाँधी पैदल पैदल सभी गांवों की ओर चल पड़ते हैं। उनके पोते राजमोहन गाँधी ने जो हाल में छोटी सी किताब लिखी है , Why Gandhi Still Matters उसमें नोआखाली का बहुत ही मर्मस्पर्शी वर्णन राजमोहन गाँधी ने किया है।

उन्होंने लिखा कि इन रास्तों पर चलते हुए गाँधी ने अपनी चप्पल उतार दी और जब मनु जो उनके साथ थीं उन्होंने कहा कि आपके पांव में छाले पड़ रहे हैं और उससे खून निकल रहा है, आप चप्पल पहन लीजिए, तो गाँधी ने जवाब दिया कि मैं उस जमीन पर पैर रखकर कैसे चल सकता हूँ जिस जमीन पर अपने लोगों का खून बहा है। गांधीजी कहते हैं कि जो नफरत नोआखाली की हवा में घुली है और जो यहां के रास्तों में बिछी है उसे मैं स्वयं नंगे पैर चलकर महसूस करना चाहता हूँ।

वे जिस गांव में जाते वहां किसी मुसलमान के घर में ही ठहरते। गांव का दौरा करते तो मुस्लिम व्यक्तियों को साथ लेते और उनसे बेघर-बार हिंदुओं को सांत्वना देने और सहायता करने को कहते। जब भयभीत हिंदू सैनिक सुरक्षा की मांग करते तो बापू उन्हें समझाते कि उन्हें बहादुरी से काम लेना चाहिए क्योंकि दुनिया की कितनी भी बड़ी सेना कायरों की रक्षा नहीं कर सकती। उलटे, सेना की उपस्थिति भय और अविश्वास को और गहरा बना देती है।

गांधी ने वहां अनोखा राहत कार्य चलाया उन्होंने गांव-गांव में हिंदू-मुस्लिम ग्राम रक्षा समितियां बनाईं। समितियां भी ऐसी जिनके हिंदू प्रतिनिधि का चुनाव मुसलमान करते और मुस्लिम प्रतिनिधि को हिंदू चुनते थे। इन्हीं प्रतिनिधियों पर अमन-चैन कायम रखने की जिम्मेदारी रहती।एक सभा में एक अंधा भिखारी गांधीजी को चवन्नी भेंट करता है और गांधी कहते हैं कि ये चवन्नी उनके लिए चार करोड़ के बराबर है।

इन असैनिक समितियों का मुसलमानों के हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। यहां भटियारपुर गांव का घटनाक्रम बहुत प्रासंगिक है। जहां एक मंदिर को तहस-नहस कर डाला गया था। गांधी के प्रभाव में मुस्लिम युवकों ने स्वयं उस मंदिर का पुनर्निर्माण किया और बापू ने अपने हाथों से वहां देव प्रतिमा स्थापित की। धीरे-धीरे तनाव कम हो रहा था। अब गांधी की चिंता हिंदू स्त्रियों को लेकर थी।

तमाम शारीरिक और मानसिक अत्याचार झेल चुकी इन स्त्रियों को उनके ही परिवार वाले पुनः स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। गांधी जी ने हिंदुओं को समझाया कि इन स्त्रियों की घर वापसी शर्मिंदगी नहीं बल्कि गौरव करने योग्य बात होगी। इस कार्य में बीबी अब्दुलसलाम उनके साथ रहीं ।कई हिंदू परिवार अपनी करनी पर लज्जित हुए और स्त्रियों को सम्मानपूर्वक अपने घरों में वापस ले आए. धीरे-धीरे तनाव में कमी आती जा रही थी।

गांधीजी को पता था कि वे एक ऐसी नफरत से लड़ रहे थे जो उनसे कहीं अधिक बड़ी थी। उनकी ताकत उस नफरत के आगे बहुत कम थी। फिर भी वे उस नफरत से लड़े क्योंकि उनका कहना था कि अगर नफरत सच्ची है तो मेरी अहिंसा भी उतनी ही सच्ची है। और मैं सिर्फ इस वजह से अपनी लड़ाई का मैदान नहीं छोड़ सकता कि ये नफरत बहुत ज्यादा बड़ी और बहुत ताकतवर दिखाई पड़ रही है। अगर मेरी यह अहिंसक लड़ाई सच्ची है तो मुझे इसे भी अपने पूरे वजूद के साथ इस नफरत से लड़ना होगा। चूंकि गांधीजी खुद अहिंसा की लड़ाई के खुद एक आदर्श प्रतिमान (Ideal Exemplar) थे इसलिए वे इस लड़ाई से खुद ही लड़े और अपनी जान देकर हिंसा की आग में जले।

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