आपातकाल का इतिहास और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

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Emergency Chronicles

Dr. Shubhnit Kaushik

— डॉ शुभनीत कौशिक —

तिहासकार ज्ञान प्रकाश ने हाल ही में भारत में आपातकाल (1975-1977) के इतिहास पर एक बेहतरीन पुस्तक लिखी है, शीर्षक है ‘इमरजेंसी क्रॉनिकल्स’। जहाँ एक ओर राजनीतिक लेखन में स्वतंत्र भारत के इतिहासक्रम में आपातकाल को एक अपवाद के रूप में देखने की परिपाटी रही है, वहीं इतिहासकार ज्ञान प्रकाश इसे एक अपवाद या अलग घटना के रूप में नहीं देखते। उनके अनुसार यह ज़रूरी है कि हम आपातकाल की पृष्ठभूमि को समझें और यह जानने की कोशिश करें कि कैसे आज़ादी के पहले पच्चीस वर्षों ने धीरे-धीरे आपातकाल की पृष्ठभूमि तैयार की।

इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने आपातकाल को संवैधानिक लबादा ओढ़ा दिया यानी संविधान के प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए संविधान का ही गला घोंट दिया गया। ज्ञान प्रकाश के अनुसार यह वैधानिक तरीके का इस्तेमाल करके क़ानून को ही रद्द कर देने का उदाहरण है। यह उस दशा का भी सूचक है, जब कोई शासक या राष्ट्राध्यक्ष यह तय करने की निरंकुश शक्ति हासिल कर लेता है कि देश के लिए असामान्य या अपवाद की स्थिति क्या है और उस अव्यवस्था की स्थिति से निबटने और वैधानिक-राजनीतिक व्यवस्था को फिर से सामान्य बनाने के लिए उसे क्या कदम उठाने पड़ेंगे।

आपातकाल की पृष्ठभूमि बताते हुए ज्ञान प्रकाश हमें आज़ादी के बिलकुल आरंभिक दिनों की ओर ले जाते हैं, जब संविधान सभा द्वारा भारत के संविधान का निर्माण किया जा रहा था। वे संविधान सभा की बहसों में आपातकाल संबंधी प्रावधानों पर हुई चर्चा को विश्लेषित करते हैं और संविधान निर्माताओं की दृष्टि की सीमाओं को भी रेखांकित करते हैं।

सत्तर के दशक में गुजरात के युवाओं द्वारा ‘नवनिर्माण युवक समिति’ की स्थापना की गई और भ्रष्ट गुजरात सरकार के विरुद्ध आंदोलन चलाया गया। गुजरात से होते हुए यह आंदोलन बिहार पहुँचा, जहाँ छात्रों के अनुरोध पर जयप्रकाश नारायण राजनीति से अपने संन्यासकाल को ख़त्म करते हुए इस आंदोलन से जुड़े। जयप्रकाश नारायण ने नैतिक मूल्यों से रहित राजनीति का विरोध किया, राजनीति के बरक्स लोकनीति को तरजीह दी और सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया।

ज्ञान प्रकाश दिखाते हैं कि कैसे इंदिरा गांधी ने संविधान में निहित प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए अपने कैबिनेट की राय जाने बगैर आपातकाल लगा देने का निर्णय लिया, जिस पर तत्कालीन राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद ने तुरंत अपनी मुहर लगा दी। जिसके बाद राज्य द्वारा नागरिक अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बर्बर दमन का दौर शुरू हुआ। न्यायपालिका भी राज्य द्वारा प्रायोजित इस पूरी प्रक्रिया में भागीदार बन गई, एडीएम जबलपुर केस में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया फैसला इसकी गवाही देता है।

1950 में प्रभाव में आए निवारक निरोध क़ानून और सत्तर के दशक में बने कुख्यात मेंटनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) के दुष्प्रयोगों की भी चर्चा ज्ञान प्रकाश इस किताब में करते हैं। आपातकाल के शिकार सिर्फ विपक्षी दलों के नेता ही नहीं हुए, बल्कि निर्दोष छात्रों, पत्रकारों, विद्वानों पर भी इसका कहर बरपा। राजमोहन गांधी और रोमेश थापर द्वारा संपादित पत्रिका ‘हिम्मत’ और ‘सेमिनार’ का प्रकाशन रोक दिया गया। ‘वाशिंगटन पोस्ट’, ‘डेली टेलीग्राफ’ और ‘द टाइम्स’ के संवाददाता लुई सिमोन्स, पीटर गिल, पीटर हेज़ेलहर्स्ट को भारत से निष्काषित कर दिया गया।

ज्ञान प्रकाश द्वारा ऐतिहासिक स्रोत के रूप में अभिलेखीय दस्तावेजों के साथ विज्ञापनों, फ़िल्मों, डॉक्युमेंट्री, निजी पत्रों, साक्षात्कारों का इस्तेमाल इतिहास के छात्रों के लिए निश्चय ही अनुकरणीय है।

राही मासूम रज़ा और निर्मल वर्मा के उपन्यासों क्रमशः ‘कटरा बी आरज़ू’ और ‘रात का रिपोर्टर’ पर ज्ञान प्रकाश ने इस किताब में लंबी चर्चा की है। साथ ही, श्याम बेनेगल की दो फ़िल्मों ‘निशांत’ और ‘अंकुर’ के जरिए उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज के ताने-बाने का बेहतरीन विश्लेषण भी किया है। आज जब भारत, अमेरिका समेत यूरोप और दुनिया के तमाम देशों में अधिनायकवादी ताक़तें उफ़ान पर हैं, ऐसे समय में आपातकाल के इतिहास से रूबरू कराती यह किताब और भी प्रासंगिक हो जाती है।

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