राहुल सांकृत्यायन और तिब्बत यात्रा

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Shambhunath Shukla

— शंभूनाथ शुक्ला —

1929 मे राहुल जी ने अपनी पहली यात्रा तिब्बती लामा का वेश-भूषा धारण कर और लद्दाख के लामा भिक्षुओं के दल मे शामिल होकर की थी। सिर्फ आनन्द कौसल्यायन को ही ज्ञात था कि राहुल जी तिब्बत भाषा और बौद्ध धर्म का अध्ययन करने पैदल ही तिब्बत के दुर्गम पथ पर निकल गये हैं। एक प्रकाशक ने अभिधर्म कोष के हिन्दी अनुवाद और टीका के रोयाल्टी के रूप मे उन्हें करीब डेढ सौ रुपये दिये थे — बस इसी पूंजी को लेकर वे नेपाल के रास्ते तिब्बत के डेपुंग महाविहार पहुँचे थे। अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग मे वे लिखते हैं:

“डेंपुंग तित्बतका सबसे बड़ा मठ है, जिसमें सात हज़ार भिक्षु रहते हें । यह एक शहर सा है। मेंने खयाल किया कि आज्ञा मिल गई, तो यहीं. आकर किसी कोठरी में रहूंगा। कई घरों- को देखा, लेकिन जगह पाना वहाँ इतना आसान नहीं था। 14 रुपये वार्षिक में एक आदमी के लिए एक अच्छा कमरा मिल सकता था। 10, 12 रुपये में खानेका भी काम चल जाता । 3, 4 रुपया और खर्च देनेपर रसोई बनी-बनाई मिल सकती थी, गोया 20 रुपया महीने में किताब छोड़कर मै बाक़ी काम चला सकता था। 4, 5 महीने तो अपने पासके रुपयों से गुज़ारा हो ही जाता, फिर कोई न कोई रास्ता निकल आता।”

1934 की उन दूसरी तिब्बत यात्रा के लिये धन की व्यवस्था कैसे हुई थी, इसके बारे मे वे लिखते हैं:

“इस यात्रा के लिए मेने कहाँ-कहाँसे पाँच सो रुपये जमा किये थे, जिनमें एक सौ रुपये “हिन्दुस्तानी” पत्रिका के थे। सम्भव है कुछ महाबोधि सभा से मिले हों। इतनी बे-सरोसामानी से तिब्बत में बहुत काम तो नहीं किया जा सकता, किन्तु मेरी यात्रायें रुपयों के बल पर नहीं होती थीं।”

1936 की तीसरी यात्रा के समय लेखक और बौद्ध साहित्य के विद्वान-खोजकर्ता के रूप मे राहुल जी की ख्याति सारे भारत मे फैल चुकी थी, इसलिये बैरिस्टर काशी प्रसाद जायसवाल, आचार्य नरेन्द्र देव या आज समाचारपत्र के संस्थापक महादानी बाबू शिव प्रसाद गुप्त जैसे तत्कालीन भारत के महामानव से राहुल जी के आत्मीय सम्बन्ध थे। इन सबों ने राहुल जी की तिब्बत यात्रा के महत्व को समझा और राहुल जी को अनुदान अथवा पुस्तक की रोयाल्टी की अग्रिम रकम देकर आशीर्वाद दिया: “प्रबिसि भोट कीजै सब काजा। हृदय राखि बुद्ध महराजा।” तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत ने उन्हें किसी तरह का कोई सहयोग प्रदान नहीं किया।

1938 मे राहुल जी ने अंतिम बार तिब्बत की यात्रा की। चूकि राहुल जी ने 1936 मे तिब्बत से लायी अनमोल कलाकृतियां और पांडुलिपियां (जिसके लिये ब्रिटिश म्युजियम उस समय करीब एक लाख पाउंड देने के लिए तैयार था) पटना संग्रहालय को एक कौडी भी लिये बिना दानस्वरूप सौंप दी थीं, बिहार सरकार और भारत सरकार ने उनकी 1938 की तिब्बत यात्रा को सफल बनाने मे प्रशासनिक स्तर पर सहयोग प्रदान दिया। बिहार के गवर्नर उनके तिब्बत विषयक शोध और पांडुलिपि-खोज के प्रशंसक थे और उन्होंने Journal of the Bihar and Orissa Research Society मे राहुल जी की स्तुति मे एक लेख भी लिखा था।

The Modern Review मे प्रकाशित काशी प्रसाद जायसवाल द्वारा लिखी “The Discoverer” नामक राहुल जी की जीवनी के कारण भी ब्रिटिश सरकार के ऊंचे अफसर राहुल जी के पांडित्य का समान करते थे। इस कारण से बिहार सरकार ने तिब्बत की सरकार को पत्र लिखा था कि राहुल जी को तिब्बत मे हर तरह की सहायता प्रदान की जाये। किसी अन्य संस्था के सहयोग से उनके साथ एक फोटोग्राफर को भी भेजा गया था। राहुल जी लिखते है,

“यह मेरी चौथी तिब्बत-यात्रा थी, इसमें में बहुत से साधनों से सज्जित होकर गया था । तिब्बत सरकारने सभी पुराने पुस्तकालयों में लगी अपनी मुहरों को तोड़कर चीज़ों के दिखलाने की आज्ञा दे दी थी; साथ ही मुझे हर जगह तीन घोड़े और तीन गदहे सवारी-बारबरदारी के लिए देने का हुकूम दे दिया गया था और काम भी काफ़ी हुआ । लेकिन उतना काम नहीं हो सका, जितने के लिए मेरे पास साधन थे । इस सारी यात्रा में तरददुद और मानसिक कष्ट उठाना पड़ा ……..।”

राहुल जी ने ब्रितानी हुकूमत से कभी भी एक पैसा नहीं लिया।

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