मौलाना के ऊँचे मानक

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मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (11 नवंबर 1888 - 22 फरवरी 1958)


— अरविन्द मोहन —

ह एक ऐसे मौलाना के जीवन की लगभग अज्ञात एक कहानी है जिसने इस्लामी ज्ञान, आचरण और कर्मकाण्ड में सबसे ऊँचा होकर भी कभी मजहब की राजनीति न की लेकिन जिसे मुसलमान कौम का ही पूरा प्यार न मिला और जो इस मामले में एक ऐसे अँग्रेजीदां मुसलमान नेता से पिट गया जिसे न इस्लाम का ज्ञान था, न जिसका आचरण इस्लामी कायदे वाला था और जिसे रोजा, नमाज की सुध रहने की कौन कहे सुअर का मांस खाने और दूसरे कौम की कमउम्र लड़की (अपनी बेटी से भी कम उम्र की) से शादी करने में भी परहेज नहीं हुआ। पर हम जिस मौलाना अबुल कलाम आजाद की बात कर रहे हैं, वह असल मर्द था, असल मुसलमान था, असल नेशनलिस्ट था और जिसने इतिहास की धारा और जमाने की हवा को साफ देखते हुए भी उसके खिलाफ खड़ा होने का हौसला दिखाया, जिसने सच्चाई और दिलेरी का रास्ता चुना। इन्हीं गुणों के चलते वे अपने आचरण में शुद्ध हिन्दू गांधी के सबसे प्रियपात्रों में थे।

मौलाना आजाद बहुत बड़े विद्वान थे और अगर सरोजिनी नायडू की मानें तो बचपन में ही 50 साल की उम्र की अक्ल उनके पास थी। यह कोई अलंकार में कही बात नहीं है। जब वे छोटी उम्र में अल हिलाल जैसा गम्भीर अखबार निकालते थे तब अनेक लोग उनसे मिलने आते थे। कई उनको देखकर यही कहते थे कि बेटा अपने अब्बा को बुलाओ। उन्हें भरोसा नहीं होता था कि इतनी कम उम्र का लड़का इतनी गम्भीर धार्मिक और राजनीतिक बातों से भरा अखबार निकाल सकता है। यह अखबार सचमुचहाट केक की तरह बिकता था और बंद हुआ भी तो मौलाना की राजनीतिक व्यस्तताओं और जेल यात्राओं के चलते। उनकी तरह की तकरीर देने वाला कम हुए।

मौलाना का जन्म मक्का में हुआ था और उनके पिता खैरुद्दीन के पूर्वज सूफी परंपरा में बहुत ऊँचा मुकाम रखते थे। वे सब इस्लामी ज्ञान की उस परम्परा के प्रमुख थे जिसके दुनिया भर में अनुयायी थे और मौलाना चाहते तो खानदान की विरासत सँभालने भर से जीवन भर सुकून से पढ़ाई-लिखाई, प्रवचन करते हुए चैन की रोटी खा सकते थे। पर शुरुआती पढ़ाई के समय ही उन्हें ज्ञान और असलियत में तालमेल न दिखा। वे 1906 में मुस्लिम लीग के ढाका सम्मेलन में गये पर जब वहाँ राज के प्रति निष्ठा का प्रस्ताव पास हुआ तब उन्होंने लीग से जीवन भर नाता न ऱखने का फैसला किया। जिन दिनों लीग का सितारा चढ़ने लगा और विभाजन की बात हवा में आयी उस समय भी मौलाना को लीग में लाने की कोशिशें हुईं पर वे न माने।

फिर वे बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़े। तब मुसलमानों में से शायद ही कोई क्रान्तिकारी जमात में जाता था और उनका भी मुसलमानों पर कम भरोसा था। जाहिर तौर पर वहाँ उनकी कड़ी जाँच-परख हुई होगी। पर यह सिलसिला भी लम्बा न चला और अरविन्दो घोष के पाण्डिचेरी भागने और तब हुई धर-पकड़ के समय वे जो भूमिगत हुए तो फिर काँग्रेस में सक्रिय हुए। काँग्रेस का सबसे लम्बे समय तक अध्यक्ष रहने का उनका ही रिकॉर्ड था, अब नहीं आजादी की लड़ाई के दौरान। जब विभाजन हुआ तब भी मौलाना ही अध्यक्ष थे। अनेक लोगों का मानना था कि अध्यक्ष के नाते उनको ही काँग्रेसी सरकार की अगुआई करनी चाहिए थी। पर ऊपर से देखने में उनका जीवन जितना सुखद या अपनी मर्जी से चला लगता है वह ऐसा था नहीं। जाने कितनी बार लम्बा कारावास, अपने प्रियजनों से बिछड़ना और पत्नी-बच्चों का इलाज कराने तक का धन न होना (जिसमें उनकी जान भी गयी) और कैद में रहने के चलते मृत पत्नी का मुँह भी न देखना जैसे न जाने कितने कष्ट उन्होंने झेले लेकिन इनकी मौलाना ने परवाह न की और गम न किया।

1942 में शीर्ष नेताओं के साथ जेल में रहने के दौरान जब पत्नी जुलेखा बेगम की गम्भीर बीमारी की खबर मिली तब पैरोल के लिए आवेदन न किया और जब मौत का तार मिला तब जेल में तार को छिपाते-छिपाते हुए पहले अपनी राजनीतिक जिम्मेदारियों को पूरा करने वाले मौलाना का मानना था कि कि यह उनका चुना हुआ रास्ता है। कहते हैं कि बेगम को भरोसा था कि वे ऐसी स्थिति सुनकर जरूर आएंगे। सो वे बार-बार पूछती रहीं। जब न आने का भरोसा हो गया तो उन्होंने मौलाना के लिए इत्र की एक शीशी छोड़ी और मौलाना बाद में नमाज पर जाने के समय यह इत्र लगा लिया करते थे।

उसी 42 का किस्सा है कि बंगाल काँग्रेस के कोष में 84 हजार रुपये पड़े थे और हजार तथा पाँच सौ रुपये के नोट में ज्यादातर रकम थी। विश्वयुद्ध का जमाना था और यह अफवाह थी कि सरकार काला धन निकालने के लिए बड़े नोट बन्द करेगी। सो कार्यकर्ता उन नोटों को बैंक में जमा कराने में डरते थे। मौलाना ने पार्क स्ट्रीट पर स्टेट बैंक में खाता खुलवाकर अपने नाम यह रकम जमा करवायी और पेशा देशभक्ति लिखवाया। पर उन्हें तब जरूर दुख लगता था जब जिन्ना के अपमान और उनकी बदमाशी के चलते काँग्रेस के कई नेता भी मौलाना को शक की निगाह से देखते थे। जिन्ना उन्हें काँग्रेस अध्यक्ष होने के बावजूद काँग्रेस का प्रतिनिधि मानकर उनसे बात करना नहीं चाहते थे तो मौलाना ने खुद को पीछे करके अपनी जगह जवाहरलाल जी को बातचीत के लिए भेजा, लेकिन शर्त यही थी कि वे नेहरू बनकर नहीं मौलाना बनकर बात करेंगे। अपने इसी दौर की भूमिका के लिए उन्होंने जब इण्डिया विंस फ्रीडम नामक आत्मकथात्मक किताब लिखी तब काफी विवाद हुआ। मौलाना को अच्छी अँग्रेजी आती न थी। सो अब यह माना जाता है कि अँग्रेजी लिखने-लिखाने के बीच ही गड़बड़ियाँ की गयीं या करायी गयीं।

जिस अकेली चीज ने मौलाना का कद देश की राजनीति में बढ़ाया वह उनका उच्च वंश या शानदार अखबार अथवा लीग से तौबा करना या क्रान्तिकारी जमात में रहना न था। वह चीज थी उनकी इस्लाम की व्याख्या। उनका कहना था कि इस्लाम गुलामी स्वीकार करने की इजाजत नहीं देता। वह आजादी का मजहब है। उनका कुरान का तजकिरा काफी चर्चित हुआ। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राँची की जेल में उनके द्वारा किया गया कुरान का अनुवाद पूरा बाहर न आ पाया और अँग्रेजों ने उसका काफी हिस्सा नष्ट कर दिया। एक प्रयास अहमदनगर जेल में रहने के दौरान भी हुआ लेकिन तब भी काम पूरा न हुआ। शायद अभी भी कुछ अप्रकाशित पड़ा है। आज अँग्रेज तालिबान को ज्ञान का विरोधी बताते हैं पर उनके कुकर्म भी कम नहीं हैं। मौलाना किसी भी हाल में होने पर भी सुबह नियम से चीन-चार घण्टे की पढ़ाई तो जरूर करते थे।

मौलाना का दूसरा अखबार अल बेलाघ भी ज्यादा दिन नहीं चल पाया और अब यह बात सामने आयी है कि जमनालाल बजाज ने कई बार उनसे उर्दू अखबार शुरू करने का आग्रह किया था। मौलाना कितना जबरदस्त गद्य लिखते थे इसकी एक झलक किसी को देखनी हो तो साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित उनके लेखों की किताब गुबारे खातिर पढ़नी चाहिए जिसमें अहमदाबाद जेल में रहने के दौरान लिखे लेख भी हैं। किसी को यह समझ न आता हो कि गद्य लिखना कविता लिखने से ज्यादा मुश्किल है तो उसे भी यह किताब ही नहीं मौलाना की अन्य रचनाएँ पढ़नी चाहिए। मुश्किल यह है कि उनके साहित्य का संग्रह और अनुवाद उतना नहीं हुआ है जितना होना चाहिए था। मौलाना वक्ता उससे भी बढ़िया थे और जो एक बार उनकी तकरीर सुन लेता था, दीवाना हो जाता था।

मैं इतनी बड़ी भूमिका उनसे जुड़ी एक कहानी को सुनाने के लिए बना रहा था। कहीं लिखत-पढ़त में यह उपलब्ध नहीं है। इसके लिए शोध होना चाहिए, यह कहकर भी मैं इतना कहूँगा कि आचार्य कृपलानी द्वारा अपनी आत्मकथा में इसका हवाला देने के चलते (हालाँकि उन्होंने भी पक्के तौर पर नहीं लिखा है) मैं वह प्रसंग आपको सुना रहा हूँ। काँग्रेस का चन्दा जुटाने में उसके अध्यक्षों की बड़ी भूमिका रहती थी। लोग उनको जगह-जगह आमन्त्रित करते थे या वे खुद दौरा करते थे और जगह-जगह उनको थैलियाँ दी जाती थीं। आमतौर पर अध्यक्ष आकर दफ्तर में वे पैसे जमा करा देते थे जिसका बँटवारा एक तय अनुपात में केन्द्रीय दफ्तर, प्रदेशों के दफ्तर और चन्दा देने वाली इकाई को भी भेजा जाता था।

मौलाना आजाद और सुभाषचन्द्र बोस, दो ऐसे अध्यक्ष हुए जो चन्दे का ऐसा हिसाब नहीं देते थे। अब ये पैसे अपनी जेब में ऱख लेते होंगे या अपने ऊपर खर्च कर देते होंगे, यह विश्वास किसी को नहीं था, पर उनके ऐसा करने से काँग्रेस के अन्दर बनी व्यवस्था में परेशानी पैदा हुई बल्कि यह कहा जाता है कि प्रशासनिक सेवा में रहते हुए सुभाष बाबू जब कलकत्ता कार्पोरेशन के अधिकारी थे तब अपनी पूरी तनख्वाह क्रान्तिकारियों के हवाले कर दिया करते थे। सुभाष बाबू तो चाहे जिस भी वजह से हो ज्यादा दिन अध्यक्ष नहीं रह पाये। मौलाना तो सबसे ज्यादा समय तक अध्यक्ष थे। कार्यसमिति तो उनके बगैर शायद ही कभी पूरी हुई हो।   

मौलाना शौकीन आदमी भी थे, देसी किस्म वाले। जिन्ना की तरह उनके शौक अँग्रेजी नहीं थे। वे सिगरेट पीते थे तो गांधीजी के सामने भी पीते थे, पण्डित जी भी सिगरेट पीते थे पर गांधी के सामने नहीं। मौलाना को अच्छी चाय पीने और बनाकर पिलाने का भी शौक था। दार्जिलिंग चाय का शौक था। सम्भव है कभी उन्होंने संगठन के पैसे अपने ऊपर भी खर्च कर लिये हों क्योंकि तब उनका परिवार खास अर्थ में परिवार जैसा रह भी नहीं गया था, बल्कि आज उनके अपने परिवार का कोई है भी नहीं, जबकि दावा कई लोग करते हैं और उसका राजनीतिक लाभ लेते हैं। जो असली कहानी है वह यह है कि जब मौलाना का इन्तकाल हुआ और उनकी वसीयत देखी गयी तो उसमें काँग्रेस के डेढ़ लाख की उधारी का जिक्र अपनी देनदारी के रूप में किया गया था और किसी तरह उसे पहले चुकाने का निर्देश था। तो यह थे मौलाना और उस जमाने के नेता और उनका उसूल।

मौलाना ने आजादी के समय की अपनी भूमिका, खासकर विभाजन और उस समय अध्यक्ष के रूप में अपने कामकाज पर एक किताब भी लिखवायी। शायद यह सोचकर अँग्रेजी में लिखवायी कि तब आयीं बहुत सी अँग्रेजी किताबों में उनकी भूमिका पर सवाल उठाये गये थे। इसके विवादास्पद होने का अन्दाजा उन्हें था क्योंकि उन्होंने इसके दो अध्याय अपनी मौत के 50 साल बाद छापने की वसीयत की थी। पर आने के साथ ही किताब ने बवाल मचाया। डॉ. लोहिया ने इसकी समीक्षा लिखते-लिखते पूरी किताब गिल्टीमेन ऑफ इण्डियाज पार्टीशन (भारत विभाजन के गुनहगार) लिख दी। और कुछ हो न हो इस किताब से यह छवि बनी कि मौलाना बहुत महत्त्वाकांक्षी थे और नेहरू का प्रधानमंत्री बनना उन्हें बहुत पसंद न आया। पर मौलाना जवाब देने के लिए न थे।

पचास साल बाद जब दो विवादास्पद अध्याय जोड़े गये तब भी हंगामा मचा। भारतीय इतिहास के इस दौर का बारीक अध्ययन करने वाले राजमोहन गांधी ने, जो महात्मा गांधी के पौत्र भी हैं, भी इसका रिव्यू करते हुए पूरी किताब लिख दी, इण्डिया विंस एरर। उनका निष्कर्ष है कि मौलाना जिस तरह के सावधान और चौकस व्यक्ति थे उनसे उस तरह की गलतियाँ हो ही नहीं सकतीं जिस तरह की फूहड़ गलतियाँ इस किताब में हैं। सो उनका मानना था कि या तो डिक्टेशन लेनेवाले ने जान-बूझकर गलती की या किसी ने उससे गलतियाँ करा दीं जिससे मौलाना की छवि धूमिल हो।

मौलाना की प्रतिद्वन्द्विता किसी से न थी। पर जिन्ना समेत न जाने कितने लोग उनको प्रतिद्वदंवी मानते थे। जिन्ना का व्यवहार और गालियाँ देना तो जगजाहिर है। मौलाना ने अपनी सत्यनिष्ठा और उसूलों के चलते उसे बर्दाश्त किया लेकिन छिप-छिपकर वार करने वालों और मौत के बाद भी न बख्शने वालों का वे क्या कर सकते थे। पर वे ऐसे मर्द थे कि इन चीजों की परवाह भी नहीं नहीं करते थे।

मौलाना किन चीजों की परवाह करते थे उसका एक छोटा सा प्रसंग बताकर कहानी खत्म होगी। अपनी विद्वत्ता और खानदानी हैसियत से वे ही मोन्यूमेण्ट ग्राउण्ड में कोलकाता के मुसलमानों को ईद की नमाज पढ़ाते थे। जब लीग का जोर बढ़ा और मुसलमान दोफाड़ दिखने लगे तब ईद की नमाज का बँटवारा दिखा। दो जगह नमाज का इन्तजाम हुआ और एक जगह से मौलाना को बुलावा आया तो उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि खुदा की इबादत में सियासत नहीं घुसेड़ना चाहता।

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