— रमाशंकर सिंह —
दिल्ली में प्रदर्शनों आंदोलनों सत्याग्रहों जुलूसों और विरोध सभाओं का पुराना इतिहास रहा है और विपक्षी पार्टी के नाते तत्कालीन जनसंघ और वर्तमान की भाजपा ने केंद्रीय और राज्य की राजधानियों में पचास साल तक इस अधिकार का भरपूर उपयोग किया है। अन्य विपक्षियों ने भी किया । यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इन्हीं सब गतिविधियों की बदौलत भाजपा दिखी , असर पैदा किया और सरकार में आई। भाजपा का तो सांगठनिक नियम है कि प्रति माह कार्यकर्ता किसी न किसी गतिविधि में लगा रहना चाहिये।
अब जब कि दिल्ली में भाजपा सरकार है तो इस संवैधानिक अधिकार को जितना संकुचित सीमित और नष्ट हो सकता है उतना ही नहीं किया जा रहा है बल्कि इन अधिकारों से वंचित भी किया जा रहा है!
लेह से कुल सत्तर साथियों के साथ सोनम वांगचुक दिल्ली के लिये के लिये निकले – कि लद्दाख की वायदा की हुई स्वायत्तता और अस्मिता के साथ साथ लद्दाख अंचल के महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दों पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया जाये। कई हफ़्ते पैदल चलकर दिल्ली सीमा में आते ही गिरफ़्तार कर लिये गये
दिल्ली में पहुँच कर यह संभव था कि उतने ही और सत्तर अस्सी समर्थक और जुट जाते। अधिकतम यह संभव था कि दिल्ली के कुछ आंदोलनकारी भी शामिल होकर संख्या तीन चार सौ पहुँच जाती। दिल्ली में आंदोलनों का मेरा अनुभवजन्य अनुमान कहता है किसी भी सूरत में पाँच सौ से अधिक की भीड़ सोनम वांगचुक के समर्थन में राजघाट पर संभव नही हो सकती थी।
ऐसी सूरत में कि दिल्ली का ट्रैफ़िक ठीक चले और क़ानून व्यवस्था सही बनी रहे पुलिस का दीर्घकालिक अनुभव व प्रशिक्षण ऐसा है कि वो लाखों की भीड़ का प्रबंधन कर सकती है , करती आई है। सीधा सा तरीक़ा यह था कि राजघाट के पास रिंगरोड पर लालक़िले के नीचे के मैदान में उन्हें जगह दे देते । बैरिकेड लगाकर घेर कर रख लेते । पाँच चुने हुये लद्दाखी राजघाट पर फूल चढ़ा आते और ज्ञापनों को कोई एसडीएम स्पीकर और प्रधानमंत्री को दे आता जैसा कि अक्सर होता है। सोनम वांगचुक को प्रैस क्लब ले ज़ाया सकता था जहॉं वे मीडिया को जो कहना होता सो कह आते। सोनम वांगचुक विधि व संविधान का सम्मान करने वाले व्यक्ति हैं और चार बरस पहले तक मोदी जी का ही गुणगान करते रहते थे।
यह सब करना कितना सरल था लेकिन कौन प्रधानमंत्री का सलाहकार है ? या कि गृहमंत्री उनकी तरफ़ से निर्णय लेते हैं और यदि हॉं तो क्या प्लान कर ? या कि प्रम स्वयं ही ऐसे निर्णय कर लेते हैं जिससे उनकी खुद की छवि एक असुरक्षित डरे हुये शासक की बनती है जो अपनी नीति के विरुदध कुछ भी नही सुनना चाहता है !
प्रधानमंत्री जी, आप तो दो पाँच साल में चले जायेंगें पर आगामी वैकल्पिक शासकों के लिये बुरे उदाहरण छोड़कर मत जाइये । मुझे सबसे ज़्यादा चिंता इसी बात की होती है जो भविष्य में आयेगा वह कहीं इन्हीं सब हथकंडों का इस्तेमाल न करने लगे और जनता को इसकी आदत न पड़ जाये। आज भाजपा बेशक बंधक है मोदी शाह की पर क्या उन्हें आने वाले समय की चिंता नहीं है जब कोई अन्य प्रतिपक्षी सत्ताधारी मोदी शाह के शासनकाल की नज़ीर दे कर उनके साथ यही व्यवहार नहीं करेगा ! भाजपा का वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे महत्वपूर्ण सवालों पर चुप क्यों रहता है ?
भारत में लोकतंत्र है और रहेगा। यहॉं की जनता सब मिलाकर पचास बार अपने वोट से प्रतिनिधियों को चुन चुकी है। उसे चुनने और हटाने का स्वभाव बन चुका है।
इंदिरा गांधी भी १९७५ में ऐसे ही बौरा गयी थीं जिनकी इमरजैंसी को आप नियमित कोसते रहते हो । कभी सोचा है कि हम ऐसे कुकर्म छोड़कर न जायें कि हमारी भी ऐसी ऐतिहासिक बदनामी होती रहे।
मोदी जी, कुछ समय सत्ता में बैठकर इतना बौराया भी नहीं जाता? मदमस्त होना सुना है पर ऐसा ? और पुलिस मंत्री शाह- वाह वाह क्या कहा जाये ?