हर दिवस हो अहिंसा दिवस, हर घर बने अहिंसा आश्रम!

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— सुज्ञान मोदी —

ज देश गांधीजी की 155वीं जयंती मना रहा है और आज ही पूरी दुनिया संयुक्त राष्ट्र महासभा में पारित प्रस्ताव के अनुसार 18 वां अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस भी मना रही है। यह भारत के लिए अत्यंत गौरव का विषय है। हालांकि संत और महात्मा किसी एक देश, प्रांत अथवा मत-संप्रदाय तक सीमित नहीं होते। वे सबके होते हैं और सभी उनके होते हैं। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने सर्वसहमति से गांधीजी के जन्मदिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित किया। भारत के इस महान सत्पुरुष को पूरी दुनिया में इतने सम्मान से देखा जाता है, इसलिए हमें भी उनकी सामाजिक, वैचारिक और आध्यात्मिक विरासत को संभालकर रखना है। बल्कि उसे और भी समृद्ध करते जाना है।

अहिंसा दिवस हमारे लिए आत्ममंथन का दिवस भी है। हम सब तटस्थ होकर अपने-अपने जीवन को देखें। हमारे जीवन में अहिंसा का क्या महत्व है? हमने अहिंसा को अपने जीवन में कितना स्थान दे रखा है? प्रेम, जीवदया, करुणा और क्षमा ये सब अहिंसा के ही रूप हैं। क्या हमारे परिवार में इन सबकी बढ़ोतरी हो रही है? क्या हमारे सामाजिक संबंधों में सौहार्द्र बढ़ रहा है? क्या लड़कियों अथवा महिलाओं के साथ अहिंसक व्यवहार की प्रतिष्ठापना हो पाई है? क्या बच्चों को प्रेमिल स्पर्श भरा लाड़-प्यार मिल पा रहा है? क्या जीवदया और करुणा आदि पवित्र संस्कारों से उनका सिंचन हो पा रहा है? क्या विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में उन्हें उन्मुक्त और भयमुक्त चिंतन का वातावरण दिया जा रहा है? क्या बुजुर्गों को परिवार में वह सेवा और सम्मान मिल पा रहा है जिसके वे वास्तव में हकदार हैं? यह सब हमारे लिए सोचने के विषय हैं।

क्योंकि यह सब आखिर में जाकर हिंसा और अहिंसा का हमारे जीवन में व्यावहारिक स्थान बताते हैं। अहिंसा का केवल राजनीतिक निरूपण कर देने से हम उसके प्रति लापरवाह हो जाते हैं। केवल युद्ध, मार-काट, दंगा-फसाद, तोड़-फोड़ जैसे सार्वजनिक हंगामें होने पर ही हम अहिंसा की दुहाई देने लगते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि उन हिंसक घटनाओं का वास्तविक स्रोत कहाँ है? उसके पीछे कौन-से पारिवारिक और सामाजिक संस्कार हैं? उसके पीछे कौन-कौन से छिपे असंतोष कार्य कर रहे हैं जो उन हिंसक घटनाओं में शामिल मनुष्यों के मानस को दीर्घकाल में हिंस्र बना चुके हैं।

हिंसा के मूल में जो सामुदायिक भय और मानसिक असुरक्षा है, उसे हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं। अन्यायपूर्ण सामाजिक परिस्थितियों से हम मुँह मोड़ लेते हैं। ऐतिहासिक पीड़ाबोध या विक्टिमहुड जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे मन में, और हमारी नई पीढ़ियों के मन में पलता रहता है, उससे उबरने का कोई प्रयास कहीं दिखाई नहीं देता। बल्कि इतिहास की सच्ची-झूठी कहानियों से उसके विष को बढ़ाने का प्रयास ही सोशल मीडिया आदि पर दिखाई देता है। कितना हिंसक हो चुका है हमारा सारा वैमर्शिक वातावरण! क्या हमने थोड़ा ठहरकर इसपर सोचा है कभी? ऐसे में हमें थोड़ा ठहरकर सोचना है कि आखिर इतने संसाधन लगाकर भी हम कर क्या रहे हैं? हम कैसा देश बना रहे हैं? कैसा समाज बना रहे हैं? कैसा परिवार बना रहे हैं?

नई पीढ़ी और युवाओं का मानस कैसा बना रहे हैं? समाज में आपसी भाईचारे को बढ़ा रहे हैं या उसे दूरगामी नुकसान पहुँचा रहे हैं? यह सब हमें ठंडे दिमाग से सोचना होगा। क्योंकि जिस हिंसक लहर पर सवार होकर हम जिस प्रकार के टकरावपूर्ण आदान-प्रदान में शामिल हो चुके हैं, उसमें फिर देश को और समाज को सामान्य अवस्था में लाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अगर बात बहुत आगे बढ़ गई तो देश को एकजुट रखना तक मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हम जाने-अनजाने हर समय तोड़नेवाले हिंसक संवादों में ही संलग्न रहने लगे हैं। गांधीजी कहते थे—“सत्य और अहिंसा का एक नियम है, एक निश्चित उद्देश्य है। उस पर न चलने पर कार्य की सिद्धि संदिग्ध हो जाएगी। सत्य का मार्ग जितना सीधा है, उतना तंग भी है। यही बात अहिंसा की भी है।

यह तलवार की धार पर चलने के बराबर है। ध्यान की एकाग्रता के द्वारा एक नट रस्सी पर चल सकता है, परंतु सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने के लिए कहीं बड़ी एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती है। जरा सा चूके कि धड़ाम से जमीन पर आ गिरे। बिना आत्मशुद्धि के प्राणिमात्र के साथ एकता का अनुभव नहीं किया जा सकता है और आत्मशुद्धि के अभाव से अहिंसा धर्म का पालन करना भी हर तरह नामुमकिन है।” इसलिए हमें अपनी बोली और अपने व्यवहार में बहुत सजग-सतर्क रहने की आवश्यकता है। हमें आत्मशुद्धि के मार्ग पर बढ़ना है और प्राणिमात्र के साथ एकता साधनी है। उसका साधन तो अहिंसा ही हो सकती है। आज दाम्पत्य के पवित्र संबंध छोटी-छोटी बातों पर टूट रहे हैं। परिवार टूट रहे हैं, बिखर रहे हैं।

इसका खामियाजा सबसे अधिक बच्चों और बुजुर्गों को झेलना पड़ रहा है। सगे-संबंधी, परिजनों और पड़ोसियों के साथ वैसी आत्मीयता का संबंध नहीं रहा। गाँवों, मोहल्लों में सामाजिक समरसता टूट रही है। सांप्रद्रायिक सौहार्द्र टूट रहा है। दलीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय और भाषाई आधार पर परस्पर-सम्मान की भावना कम हो रही है। संघीय स्वायत्तता खतरे में दीखती है और संविधान द्वारा दीर्घकाल में स्थापित गरिमामयी संस्थाओं का सांस्थानिक ढाँचा भी चरमरा रहा लगता है। दिलों में दूरियाँ बढ़ रही है। कौमी एकता की बात ही नहीं होती, जबकि उससे उल्टी बातें-बहसें और नारेबाजियाँ सुनने को मिलती हैं।

अब जबकि पहले ही इतना नुकसान हो चुका है ; हम सबके चाहने भर की देर है। अपने, व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन को अहिंसा और प्रेम से भरना है। बस इतना ही करना है। व्यवस्था में हर जगह हम ही तो बैठे हैं, या हमारी ही संतानें बैठी हैं। जैसा हमारा जीवन, चिंतन और संस्कार होगा, वैसी ही हमारी व्यवस्था बनेगी। फिर तो हर दिवस ही अहिंसा दिवस होगा। फिर तो हर घर ही अहिंसा आश्रम बनेगा। गांधीजी की जयंती और अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस पर हम सब यह ठान लें और वैसी ही आगामी जीवन-योजना, पारिवारिक योजना बना लें तो ऐसा ही होकर रहेगा। सर्वत्र शुभ ही शुभ होगा, मंगल ही मंगल होगा।

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