भारत की जेलों में जाति

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Caste in Indian prisons

Shiva nand Tivari

— शिवानंद तिवारी —

देश की जेलों में जाति के आधार पर काम का बँटवारा होता है. जेल के निर्माण के समय से ही भारत की जेलों मेँ यह प्रथा चली आ रही है. लेकिन संविधान को अंगूठा दिखाने वाली यह प्रथा सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में अब आई है. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कड़ा रुख़ अपनाया है. देश की सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया है कि वे तत्काल जेल मैन्युअल में सुधार करें और इस प्रथा को समाप्त करें. सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की बराबरी के सिद्धांत का हवाला देते कहा है कि जन्म लेने वाले सभी बराबर होते हैं.ग़नीमत है कि आज़ादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भारतीय जेलों में जाति के आधार पर काम का बँटवारा होता है यह बात सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में आई है.जेलों में क्या होता है इसका आँखों देखी दो नज़ीर मैं यहाँ देना चाहता हूँ. दोनों अलग अलग जेल तथा अलग अलग समय का है.

1964 में पहली दफ़ा जेल गया था. पटना के बांकीपुर जेल में रखा गया था. अब वह जेल नहीं है. नीतीश जी ने उस जेल को मिटा कर वहाँ बुद्ध के नाम पर ध्यान लगाने का केंद्र बना दिया है. चौहत्तर आंदोलन के कई नेता भी गिरफ़्तार होकर उस जेल में रहे हैं.

जिन दिनों मैं बांकीपुर जेल गया था उन दिनों जेल में शौचालय नहीं था. जेल का नाला ही शौच के लिए इस्तेमाल होता था. उसके सफ़ाईकर्मी भी जेल के ही क़ैदी होते थे. लेकिन उन सब की जाति एक ही होती थी. वे सभी जाति से डोम समाज के लोग हुआ करते थे.

लेकिन जेल में हमेशा सफ़ाई के लिए डोम समाज के लोग उपलब्ध रहें यह तो संभव नहीं था. वैसी हालत में जेल का सुपरिंटेंडेंट गर्दनीबाग थाना में फ़ोन करता था और यह समस्या बताता था. गर्दनीबाग थाना वाले रात में मीठापुर स्थित डोम समाज के लोगों के मोहल्ला में छापामारी करते थे और वहाँ से दो चार लोगों को पकड़कर जेल में पहुँचा दिया जाता था. इस प्रकार नाली वाले शौचालय की सफ़ाई की समस्या का समाधान हो जाता था.

दूसरी कहानी फुलवारी शरीफ़ जेल की है. उस जेल में काफी संख्या में जेपी आंदोलन कर्मी बंद थे. उनमें कई मीसा के नज़रबंदी थे. मीसा वालों को पकाया खाना नहीं बल्कि खाने के लिए कच्चा राशन मिलता था. अब खाना कैसे बनेगा ! खाना बनाने और सेवा टहल के लिए जेल की ओर से जो सहायक मिलते थे उनको पनीहा कहा जाता था. चुल्हे कई थे. इसलिए पनीहा की ज़रूरत भी उसी के अनुसार थी. पनीहा लोग जिनकी सेवा के लिए तैनात किए जाते थे उनको वहाँ भोजन बढ़िया मिल जाता था.

कभी-कभी पनीहा की कमी हो जाती थी. इस कमी की भरपाई के लिए जेल सुपरिंटेंडेंट ने पटना स्टेशन के रेलवे मजिस्ट्रेट को फ़ोन करता था. मजिस्ट्रेट रेल टिकट चेकिगं करा देता था. शाम में हाथ में हथकड़ी और कमर में रस्सा लगाये डेढ़ दो दर्जन वग़ैर टिकट वाले जेल पहुँचा दिए जाते थे. इस प्रकार पनीहा की समस्या दूर हो जाती थी.

सुप्रीम कोर्ट की चिंता यह ज़ाहिर करती है कि आज़ादी के इतने दिनों बाद भी एक बड़ी आबादी को आज़ादी का स्वाद नहीं मिला है. उनके लिए तो अभी भी ‘ कोई नृप होऊँ हमें का हानि.’

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