— चंद्रभूषण —
पश्चिम एशिया में चल रही लड़ाई में 4 अक्टूबर, दिन शुक्रवार की एक बड़ी भूमिका हो सकती है। यहूदी नए साल का जश्न 2 अक्टूबर से शुरू होकर 4 अक्टूबर की शाम तक चलना है। दूसरी तरफ, ईरान में इस जुमे की सामूहिक नमाज देश के शीर्ष धार्मिक नेता अयातुल्ला खामनेई के नेतृत्व में पढ़ी जानी है। यानी इसकी शक्ल भी शहादत के राष्ट्रीय पर्व जैसी बन जानी है। चर्चा है कि इजराइल अपना त्यौहार पूरा होने के साथ ही ईरान पर कोई बड़ा जवाबी हमला करेगा। अभी उसकी जमीनी फौजें लेबनान में हैं, जहां पहले ही दिन अपने आठ फौजी मारे जाने की बात उसने कबूल की है।
ईरान पर हमला वह कभी भी कर सकता है लेकिन नए साल का मान रखना बेहतर रहेगा। दोनों देशों की सीमाएं कहीं सटतीं नहीं लिहाजा हमले की शक्ल हवाई ही हो सकती है। और कोई जमीनी शक्ल इसकी बनी भी तो उसमें टैंक नहीं, छोटे विस्फोटक ही चलेंगे। इजराइली खुफिया संस्था मोसाद की आस्तीन में ऐसे कुछ पत्ते हमेशा मौजूद होते हैं। कौन सोच सकता था कि हमास ग्रुप का नेता इस्माइल हानिया ईरान में ही मारा जाएगा, अजेय नसरल्ला फूंक मारते उड़ जाएगा, और हिज्बुल्ला ग्रुप के मरजीवड़े घर बैठे अपने पेजरों के शिकार हो जाएंगे!
जो भी हो, लेबनान पर इजराइल के हमले के जवाब में ईरान ने उसपर लगभग 200 ताकतवर मिसाइलें दागीं और उसके एक सैन्य हवाई अड्डे को काफी नुकसान पहुंचाया, ऐसे में ईरान पर इजराइल का बड़ा हवाई हमला एक-दो दिन के अंदर होना ही है। देखने की बात सिर्फ इतनी है कि यह हमला कहां होता है और कितनी ताकत से होता है।
इजराइली मीडिया में महीनों से चर्चा चल रही है कि ईरान के परमाणु संयंत्र यहूदी राष्ट्र के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर सकते हैं, लिहाजा मौका ताककर बमों से उन्हें तबाह कर देना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति जोसफ बाइडन से हाल में इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने साफ कहा कि इजराइल को अपनी जवाबी कार्रवाई संयत तरीके से ही करनी चाहिए, ईरान के एटमी ठिकानों पर हमले के विचार से वे सहमत नहीं हैं। इधर एक अर्से से इजराइल अपने फौजी फैसलों में बाइडन की एक नहीं सुन रहा, लेकिन अभी गोले-बारूद की सप्लाई के लिए उनका कहा मानना उसकी मजबूरी है।
अनुमान है कि इजराइल की मिसाइलें और बम ईरान के तेल और गैस के ठिकानों पर गिरेंगे। छह महीने पहले कमोबेश ऐसे ही प्रकरण में ईरान के मिसाइली हमलों का जवाब उसने एक मिसाइल डिफेंस बैटरी को नष्ट करके दिया था, जिसे उसकी ‘विनम्र प्रतिक्रिया’ की तरह ही चिह्नित किया गया था। इस बार हमला बड़ा था तो जवाबी हमला भी बड़ा होना चाहिए। ईरान के लिए विदेश व्यापार की अकेली सामग्री तेल और गैस ही है लिहाजा इसके उत्पादन ढांचे को हुए नुकसान का झटका वह यकीनन महसूस करेगा। लेकिन इससे पेट्रो पदार्थों की अंतरराष्ट्रीय कीमतें एक झटके में ऊपर चली जाएंगी, जो अमेरिका अपने आम चुनाव के आखिरी महीने में हरगिज नहीं चाहेगा।
इजराइल की स्थापना के समय से ही उसके इर्दगिर्द बना हुआ तनाव दुनिया का स्थायी सिरदर्द है, लेकिन गौर से देखें तो 1973 तक फिलस्तीन को इजराइली कब्जे से आजाद कराने की सभी चार लड़ाइयों को हम अरब-इजराइल युद्ध के रूप में ही याद करते हैं। उस समय फिलस्तीन की अरब पहचान हुआ करती थी और कमाल की बात यह कि इस अरब पहचान को तब मुस्लिम पहचान से भी ऊपर समझा जाता था। फिलस्तीन के प्रतिनिधि नेता यासिर अराफात की तस्वीरें अपने सरपरस्त अरब नेताओं से ज्यादा फिदेल कास्त्रो और इंदिरा गांधी के साथ दिखाई देती थीं।
फिर 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान ने फिलस्तीन को इस्लामी मुद्दे की शक्ल देनी शुरू की और फिलस्तीन के भीतर और उसके इर्दगिर्द के कुछ गुटों को हथियार और पैसे बांटने लगा। नतीजा यह कि छोटी सी रियासत कतर को छोड़कर आज एक भी अरब मुल्क फिलस्तीन के साथ नहीं खड़ा है। न सऊदी अरब, न यूएई, न इजिप्ट, न इराक। इजराइल आज भले ही चौतरफा घिरा दिख रहा हो, हमास के अलावा हूती, हिज्बुल्ला और इराक के कुछेक कट्टरपंथी गुटों की भी फिक्र उसे करनी पड़ रही हो, लेकिन इसका कूटनीतिक फायदा उसी को हुआ है।
इसमें कोई शक नहीं कि फिलस्तीन के लोगों के साथ अन्याय हुआ है और यह दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। इजराइल नाम का कोई मुल्क पिछले दो हजार साल से दुनिया में नहीं था। बीसवीं सदी की शुरुआत में विशाल तुर्क साम्राज्य के एक कोने में अरबों से घिरी यहूदियों की एक-दो बस्तियां हुआ करती थीं। उनसे कहीं बड़ी आबादी वहां ईसाइयों की थी, और मुख्य आबादी सुन्नी अरब मुसलमानों की थी। लेकिन दोनों विश्वयुद्धों के बीच में कहां-कहां से यहूदियों ने वहां आकर जमीनें खरीदनी शुरू कीं और घर बनाकर वहीं रहने लगे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इन्हीं को केंद्र बनाकर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस की सहमति से ध्वस्त तुर्की साम्राज्य में यहूदियों का एक छोटा सा धार्मिक राष्ट्र बनाने का फैसला किया गया, जिसके वैटिकन सिटी से थोड़ा बड़ा होने की उम्मीद की गई थी। लेकिन इस देश की सीमाएं सख्ती से तय न करने का नतीजा यह रहा कि इजराइल ने फिलस्तीनियों को पूरा ही निगल लिया।
7 अक्टूबर 2023 को गाजापट्टी के फिलस्तीनी उग्रवादी गुटों ने इजराइल में घुसकर जो दरिंदगी मचाई उसे दुनिया का कोई भी शरीफ इंसान सही नहीं ठहरा सकता। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि इसके ठीक पहले तक इजराइल को लेकर दुनिया का बरताव कुछ ऐसा था जैसे फिलस्तीनियों की मुश्किलें सिर्फ किस्सों-कहानियों की चीज हों। भारत में हुए जी-20 सम्मेलन के तुरंत बाद दक्षिण एशिया को यूरोप से जोड़ने वाला एक जल-स्थल मार्ग बनाने की घोषणा की गई, जिसे अरब की खाड़ी पार करके संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और इजराइल होते हुए भूमध्य सागर में उतरना था और इटली, स्पेन, फ्रांस होते ब्रिटेन तक चले जाना था।
इसमें गाजा पट्टी के ही एक छोर पर स्थित हैफा बंदरगाह की भी महत्वपूर्ण भूमिका होनी थी, जिसे भारत की ही एक निजी कंपनी बना रही है। यह रास्ता फिलस्तीन से ही गुजरना था, लेकिन नब्बे लाख से ज्यादा फिलस्तीनियों का कहीं नाम भी नहीं लिया गया। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने हाल में इतना ही कहा कि 7 अक्टूबर 2023 को जो हुआ वह बहुत बुरा था, लेकिन उसके पहले फिलस्तीनियों के साथ जो हुआ, और जो आज भी हो रहा है, उसे सही तो नहीं कहा जा सकता। ध्यान रहे, गाजा पट्टी के बाद फिलस्तीनियों की दूसरी बड़ी बस्ती वेस्ट बैंक के एक बड़े इलाके पर यहूदी ‘सेटलर्स’ का जबरन कब्जा और इजराइली फौज की देखरेख में वहां के निहत्थे निवासियों को मारपीट कर अपने पुश्तैनी ठिकानों से खदेड़ दिया जाना पिछले साल की इस घटना के बाद ही हुआ है।
गुटरेस के इतना कहने भर से इजराइल के विदेश मंत्री ने उन्हें ‘पर्सोना नॉन ग्राटा’ घोषित करते हुए अपने देश में उनका प्रवेश प्रतिबंधित होने का बयान दे डाला। यह तो पूरी तरह से ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाला व्यवहार है। दुनिया की नजर अभी ईरान और इजराइल के बीच बने हुए तनाव पर है और उनकी झड़प छिटपुट घटनाओं तक सीमित न रहकर अगर खिंचती चली जाती है तो इससे दुनिया का बहुत नुकसान होगा। इसे रोकने के लिए जिससे जो बन पड़े, करना होगा लेकिन फिलस्तीनियों के साथ हो रहे अन्याय की चिंता भी भविष्य पर नहीं छोड़ देनी होगी।