गांधी युग की शुरुआत

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Pankaj Mohan

— पंकज मोहन —

1914 में मराठी पत्रिका “नवयुग” ने गांधी विशेषांक प्रकाशित किया जिसका एक पृष्ठ मैं संलग्न कर रहा हूं। उसी वर्ष संस्कृत के विद्वान पंडित उदयलाल कासलीवाल जैन ने “सत्यवादी” में दक्षिण अफ्रीका में दीन-दुखी भारतीयों के अधिकार के लिये संघर्ष कर रहे गांधी पर सम्पादकीय टिप्पणी लिखी:

“अफ्रीका की गोरी प्रजा से बेहद तंग आकर भारतीय प्रजा ने सब कल-कारखानों में काम करना छोड़ दिया है । वह अपने साथ मनुष्यत्व का व्यवहार करने की वहां की सरकार से याचना कर रही है, पर उसकी सुनवाई न होकर वह उल्टी तंग की जा रही है। वह प्रति दिन कैदखाने मे भेजी जा रही है। उसके नेता मि० कर्मवीर गांधी मारतीय प्रजा के नेता हैं, इसीलिए वे एक वर्ष के लिए जेल में ठूंस दिए गये। उनके साथ भारत के कुछ शुभचिंतक अँगरेज भी “बड़े घर” भेजे गये हैं। यह समय की बात है जो न्याय के चाहनेवाले जेल में ठूंसे जायें। हडताल करने के कारण हजारों मारतवासी बड़ी तकलीफ उठा रहे हैं, खाने-पहनने तक को उनके पास नहीं है। भले ही भारतवासी बुरी हालत में हों, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने भारत के पुराने गौरव को उज्ज्वल कर दिया है — उसे चमका दिया है। भारतवासियों को अपने इन दूर देशीय भाइयों का पूर्ण आदर करना चाहिए। उनकी इस विपत्ति में उन्हें पूर्ण सहायता देनी चाहिए।”

1915 मे स्वदेश लौटने के बाद गांधी ने गुजरात और बिहार के किसान-मजदूरों की हक की स्थानीय लडाई जरूर लडी, लेकिन उन्होंने तत्काल राष्ट्र मुक्ति का शंखनाद नहीं किया। 1915 से 1919 तक का उनका समय मूलतः देश की दशा और राजनीति की दिशा को समझने में बीता। 1919 में वे भारतीय राजनीति के सूत्रधार कैसे बने, इसका सुन्दर वर्णन वर्णन सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, इतिहासकार, गुरुकुल कांगडी के कुलाधिपति और 1952 से 1958 तक राज्यसभा सदस्य रहे श्री इन्द्र विद्यावाचस्पति (1889-1960) ने किया है।

“रौलट एक्ट के विरोध में महात्मा गांधी ने सत्याग्रह की घोषणा कर दी। प्रारम्भिक कदम के तौर पर जो देश व्यापी हड़ताल हुई, भिन्न-भिन्न प्रान्तों की सरकारो ने उस पर अपने-अपने ढंग से प्रहार किया। पंजाव की सरकार ने सत्याग्रह पर लाठी और गोली से प्रहार किया, जिसका उग्र रूप जलियाँवाला बाग के हत्या- कांड और मार्शल ला के आकार में प्रकट हुआ। ब्रिटिश टाइगर अपने असली नग्न रूप मे संसार के सामने आ गया । पंजाब पर ऐसे अत्याचार हुए, जैसे इतिहास में पढ़े थे, परन्तु कभी विश्वास नहीं किया था और समझा था कि यह केवल अतिशयोक्ति मात्र है। पंजाब की दशा को देखने और उस के आघातो पर मरहम लगाने के लिए देश के हर एक प्रान्त से देशभक्त पंजाब के लिए रवाना होने लगे। उन देश भक्तों में से विशेष रूप से स्मरणीय देशबन्धु चिरञ्जनदास, पडित मोतीलाल नेहरू, स्वामी श्रद्धानन्द जी और पंडित मदनमोहन मालवीय जी थे।

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पिता जी के पास पडित मोतीलाल नेहरू का इस आशय का पत्र आया कि मैं मार्शल ला की घटनाओं की तहकीकाती कमेटी से भाग लेने के लिये लाहौर जा रहा हूँ। आप पंजाब में सेवा का कार्य कर के अभी आये हैं। इलाहाबाद से लाहौर जाता हुआ दिल्ली में आप से मिल कर जाऊँगा । पत्र में अपने दिल्ली पहुँचने की तारीख और पिता जी के निवास स्थान पर पहुंचने का निश्चित समय भी दिया हुआ था।

मुझे नेहरू जी को समीप से दर्शन करने की बड़ी लालसा थी।उन्हें एक बार पटना की कांग्रेस में दूर से देखा था। उस समय मैने नेहरू परिवार को इलाहाबाद से रेल द्वारा पटना जाते हुए देखा था। पहले दर्जे का पूरा डिब्बा रिजर्व कराया गया था। पूरे विलायती वेश में दोनों नेहरू-पिता और पुत्र जब प्लेटफार्म पर पहुंचे, तो स्टेशन पर काफी सनसनी सी फैल गई थी। नेहरू जी के धन और आनन्दभवन की ख्याति चारों ओर फैल चुकी थी। यह भी चर्चा पूरे जोर पर थी कि उनके लड़के विलायत से बैरिस्टर बन कर आये हैं, ये भी हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करेगे।

प्रातःकाल के दस बजे का समय होगा, जब पण्डित जी पिता जी के निवास स्थान पर पहुंचे। जव वे सीढियो से ऊपर पहुंचे तो उनके रूप की पहली झांकी दिखाई दी। पिताजी उनका स्वागत करने के लिए कमरेसे बाहर आये । उस समय जो परिस्थिति उत्पन्न हुई, वह वस्तुतः वहुत ही मनोरजक थी। इस मे थोड़ा अभिनय का सा रंग भी आ गया था। पिता जी ने बाहर आकर पडित जी पर नजर पडते ही आश्चर्य से कहा- ‘हैं, तुम हो’ पडित जी ने भी पिता जी की तरफ ध्यान देखकर कहा- ‘अरे तुम हो’।

मैं आश्चर्य में आ गया। दोनो ने खूब कस कर हाथ मिलाये । पिता जी ने कहा- ‘मैं अव तक नहीं जानता था कि पडित मोतीलाल नेहरू तुम हो हो।’ पंडित जी ने उत्तर दिया कि ‘मैं भी अब तक नहीं समझा था कि महात्मा मुन्शीराम और स्वामी श्रद्धानन्द तुम ही हो।’ इस के पीछे थोड़ी देर के लिए दोनो बुजुर्ग अपनी आयु, ऊंची परिस्थिति और शायद मेरी उपस्थिति को भूल गये, और पुराने कालेज के समय में वापिस चले गये। एक ने दूसरे से कहा, तुम तब भी बहुत नटखट थे। दूसरे ने उत्तर दिया- तुम्हारी तब भी यही आदत थी।

किस ने किस से क्या कहा यह याद नही रहा, सारी बातचीत से थोड़ी देर में मेरी समझ में आ गया कि कालेज में पढ़ने के समय दोनों बुजुर्ग इलाहाबाद में सहपाठी थे, दोनों सैलानी तबीयत के थे और किताबों के कीड़े नहीं थे।

1919 के अन्त में अमृतसर में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ उस ने देश की राजनीति मे युग परिवर्तन कर दिया था। उन चार पांच दिनों में भारत में तिलक युग का अन्त और गांधी युग का आरम्भ हुआ। मैं इसे अपना सौभाग्य समझता हूँ कि मुझे उस युग परिवर्तन के महान दृश्य को साक्षात देखने का अवसर मिला।

काँग्रेस का वह अधिवेशन बड़ा महत्वपूर्ण था। महात्मा गांधी चाहते थे कि सम्राट की घोषणा में सरकार की बदली हुई नीति का स्वागत किया जाय और साथ ही सरकार के किए हुए दमन की निन्‍दा की जाय । महात्मा जी कांग्रेस में इस भावना को लाना चाहते थे कि शत्रु के साथ भी उदारता का व्यवहार करना चाहिए। कांग्रेस ने जो प्रस्ताव स्वीकार किया उसमें सम्राट की घोषणा का स्वागत किया गया था और साथ ही पंजाब पर हुए अत्याचारों की निन्‍दा की गई थी। उस प्रस्ताव को लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के विचारों का समझौता कह सकते हैं।

ऐसा समझा जाता था कि यदि तिलक महाराज अन्त तक अपनी बात पर अड़े रहते तो जीत उन्हीं की होती। यह सर्वसम्मत बात थी कि वे अड़ने वाले आदमी थे। जीवन भर उन्होंने विरोधी शक्तियों का सीधे खड़े हो कर मुकावला किया, कभी अणुमात्र भी झुकने का नाम नहीं लिया। अमृतसर में पहली बार वे समझौते के लिये तैयार हो गये। यह देख कर लोकमान्य के कुछ शिष्यों को दुख और आश्चर्य हुआ। वे लोग तिलक महाराज की सेवा में पहुंचे और जिज्ञासा की कि महाराज आप समझौता क्यों करते हैं, खुले अधिवेशन में आपकी जीत निश्चित है। लोकमान्य ने जो उत्तर दिया उसके पूरे शब्द तो मुझे याद नहीं, अभिप्राय मेरे हृदय पर बड़ी स्पष्टता से अंकित है । आपने जो कुछ कहा उसका अभिप्राय यह था–मैं अब शारीरिक दृष्टि से वृद्ध हो गया हूं। मुझे जो कुछ कहना था वह कह चुका हूं। अब आवश्यक है कि देश का नेतृत्व दूसरे हाथों में जाय। वह व्यक्ति जिसके हाथों में मुझे नेतृत्व सम्भालने की शक्ति दिखाई देती है, वह गांधी है। इसी कारण मैंने गांधी का संशोधन स्वीकार कर लिया है। देश की बागडोर अब उसी के हाथ में जायगी।

उस समय लोकमान्य तिलक के उस कथन से उनके भक्तों का पूरा सन्तोष नहीं हुआ था। परन्तु समय ने बतलाया कि लोकमान्य तिलक को उनके भक्‍त जितना बड़ा समझते थे, वे उससे बहुत बड़े थे। वे महान भी थे श्रोर भविष्यदर्शी भी । जब खुले पंडाल में लोकमान्य के तथा महात्मा जी के भाषणो के पश्चात प्रस्ताव स्वीकार हुआ तब सारा पंडाल महात्मा गांधी की जय के नारों से गूंज उठा । उस जयनाद के कोलाहल में काँग्रेस का एक युग समाप्त हो रहा था और दूसरा युग जन्म ले रहा था। तिलक युग पर विराम चिन्ह लग रहा था और गान्धी युग प्रारम्भ हो रहा था।”

— इन्द्र विद्यावाचस्पति की पुस्तक “मेरे पिता” से

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