क्रांति का बिगुल : दूसरी किस्त

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— अनिल सिन्हा —

ठ अगस्त को आंदोलन की घोषणा और नौ अगस्त को गांधीजी का करो या मरो का संदेश मिलते ही देश के कोने-कोने मे लोगों ने अपने को आजाद करने की कार्रवाई शुरू कर दी। पूरे देश में सरकारी तंत्र पर हमले का सिलसिला शुरू हो गया। रेल की पटरियां उखाड़ने, डाकखानों और कचहरियों पर कब्जा करने का काम होने लगा।

कम्युनिस्टों के प्रयासों के बावजूद भारत छोड़ो आंदोलन से मजदूर वर्ग अप्रभावित नहीं रह सका। नौ अगस्त, 1942 को भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित होने के बाद हुई गांधीजी की गिरफ्तारी के विरोध में देश भर में हड़ताल हुई, जो एक सप्ताह तक चली। इसमें दिल्ली, बंबई, लखनऊ, कानपुर,नागपुर, अहमदाबाद, जमशेदपुर, मद्रास, इंदौर, तथा बंगलोर के मजदूर शामिल थे। टाटा स्टील प्लांट 13 दिनों तक बंद रहा। हड़ताल करनेवालों की मांग थी कि देश में एक राष्ट्रीय सरकार बने। अहमदाबाद में कपड़ा मजदूरों ने साढ़े तीन महीने तक हड़ताल रखी। कम्युनिस्टों के प्रभाव वाले इलाकों में भागीदारी कम थी, लेकिन कई जगह कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने भी भारत छोड़ो में हिस्सा लिया। जब 3 सितबंर,1939 को विश्वयुद्ध छिड़ा था तो बंबई का मजदूर वर्ग युद्ध विरोधी हड़ताल करनेवालों में आगे था और इसने 2 अक्टूबर 1039 को हड़ताल की, इसमें 39000 श्रमिकों ने हिस्सा लिया।

सरकारी दमन के बावजूद कई स्थानों पर आर्थिक सवालों पर हड़ताल हुई। इसमें यह जरूर मानना चाहिए कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन और कम्युनिस्टों के शामिल होने के बाद जो वामपंथी एकता बनी थीयह उसका नतीजा था।

इस एकता के कारण मजदूर और किसान आंदोलनों में भी एकता आयी थी। अप्रैल, 1936 में ऑल इंडिया किसान कांग्रेस बनी जिसका नाम बाद में बदलकर ऑल इंडिया किसान सभा रख दिया गया। ऑल इंडिया किसान कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन (अप्रैल 1936) के अध्यक्ष सहजानंद सरस्वती चुने गये और इसके महासचिव एनजी रंगा बने। इसके पहले सत्र में जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, सोहन सिंह जोश, इंदुलाल याज्ञिक, जयप्रकाश नारायण, मोहन लाल गौतम, कमल सरकार, सुधीन प्रामाणिक और अहमद दीन ने हिस्सा लिया।

कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन के समय समाजवादियों की पहल से मनमाड से फैजपुर तक 20 मील का मार्च निकाला गया था जिसके स्वागत में जवाहरलाल नेहरू, एमएन राय, एसए डांगे, एमआर मसानी, यूसुफ मेहरअली साथ खड़े थे।

अखिल भारतीय किसान सभा के 1939 के पटना अधिवेशन की अध्यक्षता आचार्य नरेंद्रदेव ने की थी और इसे जयप्रकाश नारायण ने संबोधित किया था। इसी तरह आचार्य नरेंद्रदेव शिक्षकों के राष्ट्रीय सम्मेलन के अध्यक्ष थे।

भारत छोड़ो की घोषणा के बाद किसानों, मजदूरों और युवाओं की भागीदारी से आंदोलन में गति आयी।

भागलपुर से 1977 में लोकसभा का चुनाव जीतनेवाले जयप्रकाश नारायण के सहयोगी डॉ रामजी सिंह बताते हैं, ‘‘मैं आठवीं क्लास में था, जब बिहार के मुंगेर जिले में तारापुर के लोगों ने अपनी सरकार बनायी थी और वे अपना फैसला लेने लेगे थे। हमारे गांव के आंदोलनकारियों की बैठक काली स्थान में होती थी और हम स्कूली बच्चे रास्ते के मोड़ पर खड़े रहते थे ताकि लोगों को उधर जाने से मना कर सकें। गांव में होनेवाले अपराधों का फैसला वहीं होने लगा। लेकिन यह ज्यादा समय नहीं चला। सेना और पुलिस की तरफ से भयंकर दमन-चक्र चला। कई लोग मारे गए।’’

बिहार के ही बेगूसराय जिले की एक घटना का जिक्र हिंदी के बुजुर्ग लेखक गीतेश शर्मा करते हैं। लोगों का जुनून देखकर थाने के सारे सिपाही भाग गये और बाद में जिला मुख्यालय से उफनती गंगा में तैरती नौकाओं से पुलिस का दस्ता लखमिनिया बाजार के समीप उतरा और उसने उस छोटे से बाजार में मार्च किया। लेकिन लोगों का जोश ऐसा था कि एक स्थानीय युवक के नेतृत्व में लोग विरोध में उतर आए। इस प्रतिरोध में बड़ी संख्या दलितों की थी। नेता तो बच निकला। लेकिन पुलिस ने उसके घर पर छापा मारा और उसे पूरी तरह लूट लिया। आंदोलन के दौरान रेलवे टिकट घर को लूट लिया गया था।

देश के कई भागों में यही कहानी दोहरायी गयी। लोगों के निशाने पर ब्रिटिश नियंत्रण के औजार यानी रेल, डाक और थाने थे।

आंदोलन को मध्यवर्ग और बाकी तबकों का समर्थन भी था। पटना में छात्रों के एक जुलूस ने 11 अगस्त को सचिवालय पर तिरंगा फहराने की कोशिश की और वे पुलिस की गोली के शिकार हुए। इसमें सात स्कूली छात्र मारे गये। गुस्साये नागरिकों ने शहर बंद का आयेाजन किया और इसमें रिक्शा और तांगे वालों ने पूरा साथ दिया। टाटा और बिड़ला जैसे उद्योगपतियों ने भी हड़ताली मजदूरों का वेतन नहीं काटा और अगस्त क्रांति का अप्रत्यक्ष समर्थन किया।

आंकड़े बताते हैं कि पहले सप्ताह में ही 250 रेलवे स्टेशनों और 150 पुलिस स्टेशनों पर हमले हुए। साल भर में 945 पोस्ट आफिस नष्ट कर दिये गये। हिंसा भी हुई और पुलिस ने बम रखने की 664 घटनाएं दर्ज कीं। सरकार ने 112 बटालियनों में 30 हजार फौजियों को आंदोलन कुचलने के लिए तैनात किया। मध्य प्रांत के एक अफसर ने एक क्लब में दावा किया कि उसने 24 ‘जाहिलों’ को मार गिराया। दमन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महराष्ट्र के चिमूर में सभी पुरुषों को गिरफ्तार कर लिया गया और औरतों के साथ बलात्कार किया गया। इसमें नाबालिग और गर्भवती औरतें भी शामिल थीं।

करीब एक लाख लोगों को जेल में डाल दिया गया और चार हजार से दस हजार की संख्या में लोगों को मार दिया गया। इसकी तुलना में सरकार की तरफ के बहुत कम लोग मरे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 11 सैनिक और 63 पुलिसवाले मारे गये।

इतिहासकार सुमित सरकार के मुताबिक आंदोलन के तीन चरण थे। पहला चरण शहरी इलाकों में केंद्रित था। दूसरे चरण में गांवों के लोग थे और यह किसानों का विद्रोह था। यह चरण अगस्त के मध्य में शुरू हुआ था। इसी के तहत ‘समानांतर सरकार’ जैसी गतिविधियां हुईं। अंतिम चरण में भूमिगत और आतंकवादी गतिविधियां संचालित हुईं।

ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रियता के परिणामस्वरूप सतारा, मेदिनीपुर और तारापुर की समानांतर सरकारों का गठन हुआ।

गुरिल्ला गतिविधियों का प्रारंभ जयप्रकाश नारायण के हजारीबाग जेल से भाग निकलने के बाद हुआ। अगस्त क्रांति के दो महीने बाद वह दीपावली के दिन हजारीबाग जेल से रामनंदन मिश्र, बसावन सिंह और योगेंद्र शुक्ल जैसे साथियों के साथ निकल भागे। उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों का दौरा किया और भूमिगत साथियों से आंदोलन की हालत के बारे में जानकारी ली और बंद अखबार तथा बुलेटिनों को फिर से शुरू कराया। उन्होंने जनवरी, 1943 में स्वाधीनता सेनानियों के नाम पहला पत्र जारी किया। इसमें स्पष्ट कार्यक्रम नहीं रखने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व की आलोचना की गयी थी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का संगठन इस महान क्रांति के लायक नहीं था।

‘‘संगठन के अभाव की कमी इतनी अधिक विद्यमान थी कि क्रांति के समय तक भी अनेक प्रमुख कांग्रेसजन यह न जान पाये कि आंदोलन का कार्यक्रम क्या होगा,’’ जेपी ने लिखा। उन्होंने लिखा कि उत्थान के प्रथम वेग के समाप्त होने के पश्चात जनता के समक्ष कोई कार्यक्रम न था।

उन्होंने लिखा, ‘‘जिस जनता ने विदेशी सत्ता के शासन संबंधी समस्त साधन और शक्तियां नष्ट कर दी थीं, वहां उसे अपने क्षेत्रों मे क्रांतिकारी सरकार बनाने के साथ-साथ अपनी फौज और पुलिस का भी निर्माण करना चाहिए था।’’

उन्होंने अपने पत्र में लोगों को सभी तबकों को संगठित करने का आह्वान किया और तिरंगा हाथ में लिये, अहिंसा का पालन करते हुए अपनी जान देनेवालों के बलिदान की तारीफ की और उन्होंने ब्रिटिश अधिकरियों के इस अभियोग को आधारहीन बताया कि आंदेालन हिंसक था।

उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि ‘‘वीरों की अहिंसा का बड़े रूप में प्रयोग करने के बाद हिंसा की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, लेकिन जहां इस प्रकार की अहिंसा का अभाव है तो कायरता को शास्त्रीय और बारीकियों के आवरण में सामने आकर हमारे आंदोलन को विफल करने में मददगार होने नहीं देना चाहिए।

उन्होंने लिखा, ‘‘प्रत्येक जिले, प्रत्येक कस्बे, प्रत्येक तालुके, प्रत्येक थाने और प्रत्येक कारखाने और औद्योगिक क्षेत्र में आगामी युद्ध के लिए उचित समझ वाले और हथियारों से लैस हमारे सैनिक तैयार रहें।’’

इस पत्र में राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिए राजगोपालाचारी के प्रयासों की जमकर निंदा की गयी है और कहा गया है जो व्यक्ति कांग्रेस-लीग एकता का नारा लगा रहे हैं, वे केवल साम्राज्यवादी शक्तियों का हाथ बँटा रहे हैं।

‘भारत के किसी कोने से’ लिखे गए इस पत्र को पूरे देश में भेजा गया।

आजादी के सैनिकों के नाम अगला पत्र एक सितंबर, 1943 को जारी हुआ। इसमें उन्होंने कांग्रेस के उन तत्त्वों का कड़ा विरोध किया जो यह विवाद पैदा कर रहे थे कि ‘भारत छोड़ो’ की क्रांति कांग्रेस का आंदोलन नहीं है और इसे वापस लेने के लिए कांग्रेस का सम्मेलन बुलाना चाहिए।

इस पत्र में उन्होंने सुभाषचंद्र बोस को गद्दार बतानेवालों की भी जमकर आलोचना की है और उन्हें एक महान देशभक्त बताया है। उन्होंने आजाद हिंद सरकार और आजाद हिंद फौज की स्थापना को महत्त्वपूर्ण बताया है। उन्होंने यह भी कहा है कि जापान के कब्जे में गये बर्मा के लोग आज अंग्रेजों के शासन के समय से ज्यादा आजादी से जी रहे हैं।
उन्होंने सुभाष बोस की नीति की तुलना ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ वाली नीति से की और कहा कि उनकी सफलता इसपर निर्भर करेगी कि घटनाएं कौन सा मोड़ लेती हैं क्योंकि उनके साथ धोखा भी हो सकता है।

लेकिन इसमें जेपी ने यह साफ कर दिया कि जापानी सेना भारत के जिन क्षेत्रों पर कब्जा करती है, वहां भारतीयों की स्वराज सरकार बननी चाहिए और पीछे हट रही भारतीय सेना को पीपुल्स आर्मी के रूप में वहां ठहर जाना चाहिए। उनकी राय में, यह जरूरी है क्योंकि अगर हमने जापानी सेना को आने दिया और खुद निष्क्रिय रहे तो यह हमारी मौत होगी।

( कल तीसरी किस्त )

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