11 अक्टूबर 1902 को जन्मे, लोकनायक जयप्रकाश नारायण का 117वां जनमदिन है।उनके नेतृत्व में चलाए गए1974-75के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से उठे भूचाल में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की कुर्सी जब डगमगाने लगी तो उन्होंने 25 जून 1975को आपातकाल लगाकर जयप्रकाश जी समेत सहस्त्रों नेताओं और अनुयायियों को जेल के सींखचों में बंद कर दिया था।
मुझे भी आरएसएस के पूर्ण प्रशिक्षित कट्टर स्वयंसेवक के रूप में,म. प्र. की नरसिंहगढ़ जेल में बंद कर दिया गया था।संयोग और सौभाग्य से मुझे वहां प्रखर समाजवादी विचारक, लेखक और सांसद मधु लिमये तथा युवा समाजवादी सांसद शरद यादव का सान्निध्य मिल गया था।आरएसएस का जुनून, जो मेरे सिर से जेल में ही उतर भी गया था, तब मेरे सर पर इस कदर हावी था कि जेल में भी मैं संघ की शाखा लगाने से बाज नहीं आता था।
फिर आया विजयादशमी का पर्व तो मैंने आरएसएस के स्थापना दिवस और जयप्रकाश जी के 73वें जन्मदिवस का संयुक्त कार्यक्रम,संघ की शाखा में आयोजित किया था जिसमें मधुजी को मैंने मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था।उस दिन मधुजी ने संघ की शाखा में जो भाषण दिया था वह एक ऐतिहासिक भाषण है जिसमें उन्होंने आरएसएस और उसकी विचारधारा पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखी थी।साथोसाथ,मधुजी ने जयप्रकाशजी को भी याद किया था। मधुजी के उस पूरे भाषण को मैंने लेखबद्ध किया था जिसका जेपी के जन्मदिवस से संबंधित अंश मैं यहाँ पुनः शेयर कर रहा हूँ:-
“….श्री जयप्रकाश नारायण के जीवन के आज 73वर्ष पूरे हुए हैं।महात्माजी के आह्वान पर उन्होंने कॉलेज छोड़ा और राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े।बाद में उन्हें लगा कि शिक्षा पूरी किये बिना राष्ट्र का कार्य नहीं किया जा सकेगा इसलिए वे अपनी अधूरी शिक्षा पूरी करने हेतु अमेरिका चले गए।वे वहाँ एक साल पढ़ते थे और एक साल जीविकोपार्जन के लिए शारीरिक श्रम करते थे।खेतों में उन्होंने काम किया, होटलों में उन्होंने प्लेटें धोइं।वहीं पर श्री जयप्रकाश नारायण मार्क्सवाद से प्रभावित हुए।जब श्री जयप्रकाश नारायण भारत लौटे तब उनपर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव था।
लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में कूदने के बाद, कम्युनिस्टों की, राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में अपनाई जाने वाली भूमिका ने उन्हें मार्क्सवाद के बारे में पुनर्विचार करने के लिए बाध्य किया।1928 में, रूस में आयोजित छठवें सम्मेलन में पारित प्रस्ताव के अनुसार भारतीय कम्युनिस्टों ने भारत में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन को पूंजीपतियों का षड्यंत्र कहकर उसका विरोध किया लेकिन बाद में जब यही कम्युनिस्ट राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करने लगे तो श्री जयप्रकाश नारायण का मार्क्सवाद के प्रति झुकाव यथावत हो गया।1942में जिस समय भारत का राष्ट्रीय आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था, कम्युनिस्टों ने इस आंदोलन के बारे में पुनः अपनी नीति बदली और इस बार उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन का, सन 1930-34 की तुलना में, 10 गुना अधिक ताकत से विरोध किया।इस बार श्री जयप्रकाश नारायण ने कम्युनिस्टों की असलियत को पहचाना और मार्क्सवाद पर से उनका विश्वास ही उठ गया।
आजादी के बाद, शुरू के वर्षों में श्री जयप्रकाश नारायण प्रजा समाजवादी पार्टी के नेता रहे लेकिन 1954 के कांग्रेस के अवाड़ी सम्मेलन में जब पंडित नेहरू ने Socialist pattern of society का नारा दिया तो श्री जयप्रकाश नारायण तथा श्री अशोक मेहता प्रभृति, प्रसोपा के नेता कहने लगे कि हमें कांग्रेस के प्रति संघर्ष की नीति अपनाने की बजाय सहयोग की नीति अपनानी चाहिये।
डॉ राममनोहर लोहिया ने,मैंने और अन्य लोगों ने इसका विरोध किया।वहीं से पार्टी टूटने लगी।बाद में श्री जयप्रकाश नारायण ने राजनीति से भी सन्यास ले लिया और विनोबाजी के साथ सर्वोदय आंदोलन में कूद पड़े।सन1960में डॉ लोहिया ने श्री जयप्रकाश नारायण को एक ऐतिहासिक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि राजनीति के माध्यम से जेपी ही समाज को हिला सकते हैं बशर्ते कि वे स्वयं न हिलें।उस समय जेपी ने डॉ लोहिया की बात नहीं मानी थी।सन1974में उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और वे पुनः संघर्ष के आंदोलन में कूद पड़े।मेरी अपनी यह राय है कि1954से74तक के20वर्षों का उनका जीवन व्यर्थ ही व्यतीत हुआ।और आज, जब वे जेल में बंद हैं, तो उनके20वर्ष के सहयोगी श्री विनोबा भावे इस परिस्थिति को ‘अनुशासन पर्व’ की संज्ञा दे रहे हैं।श्री जयप्रकाश नारायण ने अपने जीवन में अनेकों भूलें की लेकिन यह उनकी विशेषता है कि वे सत्य को स्वीकार कर लेते हैं।जब उन्हें अपनी भूल का ज्ञान हो जाता है तो वे तुरंत अपनी भूल से अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। आज के पुण्य पर्व पर मैं और हम सभी उनके दीर्घ और स्वस्थ जीवन की कामना करें।