हाल ही में रज़ा फाउंडेशन नई दिल्ली की ओर से विगत 7 –8 अक्टूबर की तिथियों में हिंदी के विख्यात कवि– आलोचक विजय देव नारायण साही के जन्म शती वर्ष में उन्हें याद करने के साथ – साथ उनके साहित्य पर दो दिनों तक लगातार 8 सत्रों में जबरदस्त गहमागहमी से भरी बहस हुईं। जिसमें नई और पुरानी पीढ़ी के करीब 34 लेखकों ने भागीदारी की। मेरा ख्याल है कि साही जी के निधन 5 नवम्बर 1982 के बाद यह पहला मौका था कि उन्हें इतने व्यापक स्तर पर उनके साहित्य में खोजने की कोशिश की गई। वैसे भी साही को किसी विचारधारा के दायरें में बांध पाना मुश्किल है।
जैसे उन्हें उनके जीवन काल में सच कहने से रोक पाना। अशोक वाजपेई जी ने आयोजन के समापन में अपने भावुक उदगार में साही जी को याद करते हुए कहा कि मेरे ऊपर अपने साहित्यिक पूर्वजों के कुछ ऋण हैं जिन्हें मैं जाने से पहले उतार कर जाना चाहूंगा।
साही पर यह आयोजन उसी की एक कड़ी हैं। इस मौके पर अशोक जी के ही संपादन में ‘साही और साखी’ नाम से 438 पृष्ठों में साही जी के साहित्य पर महत्त्वपूर्ण मूल्यांकन पुस्तक जारी हुई । साथ ही सृजन सरोकार पत्रिका के सम्पादक श्री गोपाल रंजन द्वारा संपादित साही सोच —संघर्ष —सृजन का विशेषांक लोकार्पित किया गया।
इस पत्रिका के अंक में साही जी के जीवन और साहित्य पर दुर्लभ सामग्री प्रकाशित हुई है। आने वाले समय में साही पर मेरे संपादन में एक पुस्तक जो उनके जीवन और साहित्य पर केंद्रित है प्रकाशित होगी। साथ ही सुष्मिता साही ( साही जी की बेटी) के संपादन में साही जी की कविता और आलोचना की समग्र पुस्तकें छप रही हैं। निश्चय ही साही की जन्म शती वर्ष में साही जी को याद किया जाना इसलिए भी जरुरी है कि इनके शब्द और कर्म नई पीढी के लिए पाथेय की तरह हैं। वो एक बहस करते हुए सच्चे बौद्धिक थे। जिनसे आप टकरा तो सकते हैं पर कतरा नहीं सकते।