साहित्य-रचना एवं बुद्ध

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Charatha Bhikkhave

Parichay Das

— परिचय दास —

चना-प्रक्रिया में मौन और शब्द : दोनों का विशेष महत्त्व है। मौन के माध्यम से विचारों की गहनता और स्पष्टता उत्पन्न होती है, जो रचना के लिए आवश्यक होती है। बुद्ध के मौन से प्रेरित होकर रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति में ठहराव, धैर्य और शांति का समावेश करता है। वहीं, शब्दों का चयन अत्यंत सोच-समझकर होता है। शब्दों व मौन : दोनों की शक्ति के माध्यम से बुद्ध ने अपने संदेशों का प्रसार किया। एक रचनाकार शब्दों की शक्ति को समझते हुए रचना करता है जिससे उसकी कृति प्रभावशाली और गहन हो सके। इसी तरह मौन और ध्यान भी। मौन व ध्यान रचना- सृजन के मूल उत्स हैं। वे सर्जनात्मकता के हेतु हैं।

समग्र रूप से देखें तो रचना-प्रक्रिया में बुद्ध की दृष्टि रचनात्मकता के विभिन्न पहलुओं—ध्यान, संतुलन, करुणा, अहिंसा, आत्मज्ञान और मौन—को समाहित करती है। ये तत्त्व रचनाकार को न केवल एक बेहतर सर्जक बनाते हैं बल्कि एक बेहतर मनुष्य बनने की ओर भी प्रेरित करते हैं, जो समाज और मानवता की सेवा में अपनी रचनात्मकता का उपयोग करता है।

रचना-प्रक्रिया में बुद्ध का प्रभाव गहन और सृजनात्मक दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है। साहित्यिक और कलात्मक रचना में बुद्ध की शिक्षाओं का एक केंद्रीय स्थान है क्योंकि उनका दर्शन करुणा, ध्यान, अहिंसा और आत्मज्ञान पर आधारित है। रचनाकारों ने इन तत्त्वों को अपने कार्यों में आत्मसात करते हुए न केवल साहित्य बल्कि समग्र कला जगत को एक नई दिशा प्रदान की है।

रचना-प्रक्रिया में ध्यान (मेडिटेशन) का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। सर्जना एक तरह का ध्यान ही है। ध्यान, जिसे बुद्ध ने बोधि- प्राप्ति के माध्यम के रूप में अपनाया, रचनात्मकता के लिए भी प्रेरणा स्रोत बनता है। ध्यान की प्रक्रिया, जो आत्म-निरीक्षण, शांति और आंतरिक संतुलन पर आधारित है, एक रचनाकार को भीतर की गहराई तक पहुँचने और अपने अनुभवों को कलात्मक रूप में व्यक्त करने का अवसर देती है। ध्यान के माध्यम से रचनाकार अपनी भावनाओं, विचारों और अनुभूतियों को स्पष्ट रूप से देख सकता है और उन्हें रचना में रूपांतरित कर सकता है।

बुद्ध का मध्यमार्ग रचना-प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह मार्ग संतुलन और संयम की बात करता है। रचना में अतिरेक या असंतुलन से बचते हुए एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना रचनाकारों को न केवल उनके कार्यों में गहराई प्रदान करता है बल्कि एक स्थायी संदेश भी देता है। बुद्ध का मध्यमार्ग रचनात्मकता में उग्रता से दूर रहकर आत्मानुशासन और संतुलन पर आधारित होता है। यह दृष्टिकोण रचनाकार को अत्यधिक भावनात्मक या तकनीकी जटिलताओं से परे ले जाकर सरलता और गहनता के साथ रचना करने के लिए प्रेरित करता है।

करुणा, जो बुद्ध की शिक्षाओं का एक केंद्रीय तत्त्व है, रचना-प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक सच्चा रचनाकार समाज के प्रति संवेदनशील होता है और उसकी पीड़ाओं, संघर्षों और चुनौतियों को समझने का प्रयास करता है। करुणा का यह भाव रचनाओं में आत्मीयता और सामाजिक सरोकार लाता है। बुद्ध की करुणा न केवल व्यक्तिगत मुक्ति का मार्ग दिखाती है, बल्कि सामूहिक कल्याण का भी संदेश देती है। इसी करुणा को आत्मसात कर रचनाकार अपनी कृतियों में मानवता और समाज के प्रति दायित्व का निर्वहन करता है।

बुद्ध की अहिंसा और शांति का सिद्धांत भी रचना-प्रक्रिया में महत्वपूर्ण है। एक रचनाकार शब्दों और कला के माध्यम से अपने विचारों को प्रस्तुत करता है। बुद्ध की अहिंसा का सिद्धांत रचनाकार को यह सिखाता है कि उसके शब्द और विचार ऐसे हों जो किसी को आहत न करें, बल्कि सकारात्मक परिवर्तन और समझ को बढ़ावा दें। रचनात्मकता के इस अहिंसक दृष्टिकोण के माध्यम से, साहित्य और कला समाज में शांति और सामंजस्य स्थापित करने का एक साधन बन जाते हैं।

रचनाकारों के लिए आत्मज्ञान एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। बुद्ध ने आत्मज्ञान के माध्यम से सत्य को प्राप्त किया और यही सत्य रचनात्मकता का मूल स्रोत है। रचनाकार जब अपनी रचना-प्रक्रिया में सत्य की खोज करता है, तो वह गहन आत्मनिरीक्षण और चिंतन के माध्यम से अपने अनुभवों, भावनाओं और विचारों को व्यक्त करता है। यह आत्मज्ञान रचनाओं को गहराई और सार्थकता प्रदान करता है।

बुद्ध की दृष्टि रचनात्मकता के विभिन्न पहलुओं—ध्यान, संतुलन, करुणा, अहिंसा, आत्मज्ञान और मौन—को समाहित करती है। ये तत्त्व रचनाकार को न केवल एक बेहतर सर्जक बनाते हैं बल्कि एक बेहतर मनुष्य बनने की ओर भी प्रेरित करते हैं जो समाज और मानवता की सेवा में अपनी रचनात्मकता का उपयोग करता है।

साहित्य-रचना में बुद्ध की उपस्थिति गहरी और प्रभावशाली रही है। भारतीय साहित्य में, बुद्ध का व्यक्तित्व और उनकी शिक्षाएं विशिष्ट स्थान रखती हैं। उनका जीवन और उनका दर्शन साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से मानवता के प्रति करुणा, सत्य और अहिंसा का संदेश फैलाता रहा है।

बुद्ध की शिक्षाएं, जो मुख्य रूप से चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग पर आधारित हैं, ने साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण दिशा दी है। इस दिशा में सबसे पहले उल्लेखनीय है, बौद्ध ग्रंथों का साहित्य, जिसमें त्रिपिटक जैसे ग्रंथ आते हैं। त्रिपिटक में बुद्ध के उपदेशों, अनुयायियों के संवादों और ध्यान के विषयों को संकलित किया गया है। यह साहित्य न केवल धार्मिक संदर्भों में महत्वपूर्ण है बल्कि जीवन की समस्याओं और उनके समाधान को साहित्यिक रूप से भी प्रस्तुत करता है।

भारतीय साहित्य में बुद्ध की छवि केवल धार्मिक नायक के रूप में नहीं बल्कि मानवीय उद् धारकर्ता के रूप में उभरी है। अश्वघोष द्वारा लिखित बुद्धचरित और सौंदरानंद महाकाव्य बुद्ध के जीवन और उनके मोक्ष की यात्रा का अद्भुत साहित्यिक चित्रण करते हैं। इस प्रकार के महाकाव्य हमें उनके तप और ज्ञान की ओर आकर्षित करते हैं, जिससे साहित्य में नैतिकता और जीवन-दर्शन का समावेश होता है।

बुद्ध का प्रभाव केवल प्राचीन भारतीय साहित्य तक ही सीमित नहीं है। आधुनिक साहित्य में भी उनका दर्शन और व्यक्तित्व गहरे रूप में समाहित है। महाकवि नागार्जुन की रचनाओं में बुद्ध का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। नागार्जुन के काव्य में बौद्ध धर्म की गहन दार्शनिक दृष्टि का अद्भुत चित्रण है। उनके द्वारा रचित प्रज्ञापारमिता सूत्र और अन्य काव्य रचनाओं में करुणा और मध्यमार्ग के विचार की प्रमुखता देखी जा सकती है।

इसके अतिरिक्त, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में भी बुद्ध की शिक्षाओं का अद्भुत योगदान है। हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद की कहानियों में भी करुणा और दया का बौद्ध विचारधारा से प्रभावित दृष्टिकोण देखा जा सकता है। बुद्ध के सिद्धांत जैसे अहिंसा और मध्यमार्ग उनके कथानक में मुख्य रूप से प्रतिबिंबित होते हैं।

बुद्ध का साहित्यिक प्रभाव केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। विश्व साहित्य में भी उनकी शिक्षाओं और उनके व्यक्तित्व का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। हरमन हेस्से का उपन्यास सिद्धार्थ इसका उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें बुद्ध की शिक्षाओं और उनकी जीवन शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है।

कवि-रचनाकारों के लिए बुद्ध की विचारधारा एक प्रेरणा स्रोत के रूप में काम करती है। उनके जीवन से संबंधित कहानियाँ, उनकी शिक्षाएं और उनके जीवन के संघर्ष साहित्यकारों को न केवल नैतिकता का पाठ पढ़ाती हैं, बल्कि जीवन के गहरे रहस्यों को समझने में भी सहायक सिद्ध होती हैं। साहित्य के माध्यम से, बुद्ध का दर्शन जीवन के हर पहलू पर गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है—चाहे वह नैतिकता हो, समाज सुधार हो या फिर आत्मज्ञान की यात्रा।

साहित्य-रचना में बुद्ध का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उनके जीवन और उनकी शिक्षाओं ने साहित्य को एक नई दिशा और दृष्टिकोण प्रदान किया है। उनका दर्शन साहित्य को करुणा, दया, सत्य और आत्मिक शांति के गहरे भावों से समृद्ध करता है, जिससे पाठक अपने जीवन में भी उन मूल्यों को आत्मसात कर सकता है।

रचना-प्रक्रिया में बुद्ध का प्रभाव अत्यधिक गहन और सृजनात्मक दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है। साहित्यिक और कलात्मक रचना में बुद्ध की शिक्षाओं का एक केंद्रीय स्थान है क्योंकि उनका दर्शन करुणा, ध्यान, अहिंसा और आत्मज्ञान पर आधारित है। रचनाकारों ने इन तत्वों को अपने कार्यों में आत्मसात करते हुए न केवल साहित्य, बल्कि समग्र कला जगत को एक नई दिशा प्रदान की है।

बुद्ध की रचना-प्रक्रिया में ध्यान (मेडिटेशन) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। ध्यान, जिसे उन्होंने बोधि प्राप्ति के माध्यम के रूप में अपनाया, रचनात्मकता के लिए भी प्रेरणा स्रोत बनता है। ध्यान की प्रक्रिया, जो आत्म-निरीक्षण, शांति और आंतरिक संतुलन पर आधारित है, एक रचनाकार को भीतर की गहराई तक पहुँचने और अपने अनुभवों को कलात्मक रूप में व्यक्त करने का अवसर देती है। ध्यान के माध्यम से रचनाकार अपनी भावनाओं, विचारों, और अनुभूतियों को स्पष्ट रूप से देख सकता है और उन्हें रचना में रूपांतरित कर सकता है।

बुद्ध का मध्यमार्ग रचना-प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह मार्ग संतुलन और संयम की बात करता है। रचना में अतिरेक या असंतुलन से बचते हुए एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना रचनाकारों को न केवल उनके कार्यों में गहराई प्रदान करता है, बल्कि एक स्थायी संदेश भी देता है। बुद्ध का मध्यमार्ग रचनात्मकता में उग्रता से दूर रहकर आत्मानुशासन और संतुलन पर आधारित होता है। यह दृष्टिकोण रचनाकार को अत्यधिक भावनात्मक या तकनीकी जटिलताओं से परे ले जाकर सरलता और गहनता के साथ रचना करने के लिए प्रेरित करता है।

करुणा, जो बुद्ध की शिक्षाओं का एक केंद्रीय तत्त्व है, रचना-प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक सच्चा रचनाकार समाज के प्रति संवेदनशील होता है और उसकी पीड़ाओं, संघर्षों और चुनौतियों को समझने का प्रयास करता है। करुणा का यह भाव रचनाओं में आत्मीयता और सामाजिक सरोकार लाता है। बुद्ध की करुणा न केवल व्यक्तिगत मुक्ति का मार्ग दिखाती है, बल्कि सामूहिक कल्याण का भी संदेश देती है। इसी करुणा को आत्मसात कर रचनाकार अपनी कृतियों में मानवता और समाज के प्रति दायित्व का निर्वहन करता है।

बुद्ध की अहिंसा और शांति का सिद्धांत भी रचना-प्रक्रिया में महत्वपूर्ण है। एक रचनाकार शब्दों और कला के माध्यम से अपने विचारों को प्रस्तुत करता है। बुद्ध की अहिंसा का सिद्धांत रचनाकार को यह सिखाता है कि उसके शब्द और विचार ऐसे हों जो किसी को आहत न करें बल्कि सकारात्मक परिवर्तन और समझ को बढ़ावा दें। रचनात्मकता के इस अहिंसक दृष्टिकोण के माध्यम से, साहित्य और कला समाज में शांति और सामंजस्य स्थापित करने का एक साधन बन जाते हैं।

रचनाकारों के लिए आत्मज्ञान एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। बुद्ध ने आत्मज्ञान के माध्यम से सत्य को प्राप्त किया और यही सत्य रचनात्मकता का मूल स्रोत है। रचनाकार जब अपनी रचना-प्रक्रिया में सत्य की खोज करता है, तो वह गहन आत्मनिरीक्षण और चिंतन के माध्यम से अपने अनुभवों, भावनाओं और विचारों को व्यक्त करता है। यह आत्मज्ञान रचनाओं को गहराई और सार्थकता प्रदान करता है।

समकालीन भारतीय कविता में बुद्ध एक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली प्रतीक के रूप में उभरते हैं, जो भारतीय समाज, राजनीति, धर्म और मानवता से जुड़े गहरे सवालों को छूते हैं। बुद्ध की शिक्षाएं—अहिंसा, करुणा, और मध्यम मार्ग—कई समकालीन कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हैं।

बुद्ध का जीवन और उनका संदेश सामाजिक प्रतिरोध, हिंसा का विरोध और करुणा पर आधारित है। समकालीन कवि इन विचारों को लेकर अपने समय की समस्याओं पर सवाल उठाते हैं, जैसे हिंसा, धार्मिक कट्टरता और सामाजिक अन्याय। बुद्ध का धर्म शोषण के खिलाफ खड़ा होता है और करुणा और समानता पर आधारित है।

समकालीन भारतीय कवियों ने बुद्ध के माध्यम से धर्म और राजनीति के संबंध को भी समझने की कोशिश की है। बुद्ध की शांतिपूर्ण और न्यायपूर्ण दृष्टि का इस्तेमाल करते हुए कवि आधुनिक भारत में धर्म और राजनीति के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाते हैं।

बुद्ध अहिंसा और शांति के प्रतीक माने जाते हैं और समकालीन भारतीय कविता में यह तत्व प्रमुख रूप से दिखाई देता है। बुद्ध की शिक्षाएँ आधुनिक समय में बढ़ती हिंसा, आतंकवाद और युद्ध के संदर्भ में प्रासंगिक हो जाती हैं। कवि इन मुद्दों के प्रति संवेदनशील होकर बुद्ध की विचारधारा का सहारा लेते हैं।

बुद्ध की आध्यात्मिकता मानवीयता और नैतिकता पर आधारित है। समकालीन भारतीय कविता में कवियों ने इस आध्यात्मिकता को न केवल धर्म के रूप में, बल्कि मानव जीवन के व्यवहारिक पक्ष के रूप में भी देखा है। बुद्ध का मानवतावाद—दूसरों के प्रति संवेदनशीलता, पीड़ा को समझने की क्षमता, और सह-अस्तित्व का विचार—कविताओं में बार-बार उभरता है।

मकालीन कविता में बुद्ध का दृष्टिकोण खास महत्त्व रखता है। उसको आधार बना कर आज के कवि भी सामाजिक भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं।

समकालीन भारतीय कविता में बुद्ध न केवल एक धार्मिक या दार्शनिक व्यक्तित्व के रूप में, बल्कि एक सामाजिक और नैतिक प्रतीक के रूप में उभरते हैं। उनका प्रभाव इस रूप में देखा जाता है कि कवि वर्तमान समय के संकटों से जूझते हुए बुद्ध की शिक्षाओं को नए संदर्भों में प्रकट करते हैं।

सीताकांत महापात्र, रमाकांत रथ और हर प्रसाद दास आदि भारतीय कवियों ने अपनी कविताओं में बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं को गहरे रूप से प्रतिबिंबित किया है। बुद्ध के शांति, करुणा, और आत्मज्ञान के विचार इन कवियों की रचनाओं में प्रमुख रूप से उभरते हैं।

– सीताकांत महापात्र

सीताकांत महापात्र की कविताओं में बुद्ध के अस्तित्ववादी और ध्यान के विचार दिखाई देते हैं। उनकी कविताएँ जीवन और मृत्यु के बीच की अस्थिरता को बुद्ध के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करती हैं। महापात्र ने बुद्ध को उन प्रश्नों का समाधान देने वाला माना है जो जीवन के गहरे रहस्यों से जुड़े हैं।

“एक अंधकारमय वन में,
वह ध्यान में बैठा है,
बोधि वृक्ष के नीचे,
न सुख चाहता है, न दुःख।
उसकी मौन उपस्थिति,
सिखाती है एक रास्ता,
जो पीड़ा से परे है,
अंतरात्मा की एक ज्योति,
जो विश्व की हवाओं से अछूती है।”

यह कविता बुद्ध के ध्यान और आत्मज्ञान को दर्शाती है, जहाँ वे संसार की इच्छाओं और दु:खों से परे हो गए हैं। महापात्र ने इस अंश में बुद्ध को मौन ज्ञान और शांति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है।

– रमाकांत रथ

रमाकांत रथ की कविताओं में बुद्ध का दृष्टिकोण पारंपरिक धार्मिकता से परे जाता है। उनकी कविताओं में बुद्ध का चरित्र स्वतंत्रता और सत्य की खोज का प्रतीक है, जहाँ वे किसी भी तरह के धर्म या अनुष्ठानों से बंधे नहीं हैं। यह दृष्टिकोण आधुनिक समय के बौद्धिक संघर्षों को प्रतिबिंबित करता है।

“न कोई मंदिर, न कोई देवता, न कोई अनुष्ठान,
ज्ञान के मौन में,
केवल एक सत्य चमकता है,
एक मन, इच्छाओं से मुक्त,
दुःख से परे, आनंद से परे,
वह अकेला चलता है,
प्रकाश की राह पर,
संसार की भ्रांतियों से निर्लिप्त।”

इस कविता में रथ ने बुद्ध को उन भौतिक और धार्मिक बंधनों से मुक्त दिखाया है जो समाज ने स्थापित किए हैं। यहाँ बुद्ध की राह सत्य और आत्मिक स्वतंत्रता की है, जहाँ वे दुनिया के मोह और भ्रम से ऊपर उठ चुके हैं।

– हर प्रसाद दास

हर प्रसाद दास की कविताएँ बौद्धिक और दार्शनिक गहराई से भरी होती हैं। वे जीवन की शून्यता, ध्यान और मुक्ति के विचारों को लेकर बुद्ध को अपने काव्य का हिस्सा बनाते हैं। उनके लिए बुद्ध एक ऐसी शून्यता का प्रतीक हैं, जो मनुष्य को अपनी आंतरिक दुनिया से जोड़ने का माध्यम है।

“शून्य के उस पार,
जहाँ न कोई शब्द है, न कोई आकार,
वहाँ एक मौन है,
बुद्ध का मौन,
जो समय और मृत्यु से परे,
विचारों की हर सीमा को लाँघ जाता है।
वह शांति है,
जिसे कोई छू नहीं सकता,
वह शून्य है,
जो हर कुछ में बसा है।”

इस कविता में दास ने शून्यता और मौन के माध्यम से बुद्ध को चित्रित किया है। बुद्ध का यह मौन और शांति जीवन की परिभाषाओं और सीमाओं से परे जाता है, जहाँ मनुष्य अपने अस्तित्व की गहराइयों से परिचित होता है।

इन कवियों की कविताओं में बुद्ध केवल धार्मिक या ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं हैं बल्कि वे एक दार्शनिक और आत्मिक प्रतीक के रूप में उभरते हैं। इन कवियों ने बुद्ध के जीवन और विचारों को अपनी कविताओं में आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत किया है, जहाँ बुद्ध शांति, करुणा और आत्मज्ञान का प्रतीक बनकर सामने आते हैं।

कुंवर नारायण और अज्ञेय ने अपनी कविताओं में बुद्ध को गहराई और विस्तार से उकेरा है। उन्होंने बुद्ध को न केवल एक ऐतिहासिक या धार्मिक व्यक्तित्व के रूप में बल्कि एक दार्शनिक और मानवतावादी दृष्टिकोण से देखा है। बुद्ध के जीवन, उनके ध्यान और मुक्ति के मार्ग को इन कवियों ने अपने विशिष्ट दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है।

– कुंवर नारायण

कुंवर नारायण की कविता में बुद्ध का विचार मुख्य रूप से मानवता, करुणा और अस्तित्ववादी प्रश्नों से जुड़ा हुआ है। उनके लिए बुद्ध केवल धार्मिक नेता नहीं हैं, बल्कि जीवन की जटिलताओं को सुलझाने का एक रास्ता दिखाते हैं। उनकी कविताओं में बुद्ध का चित्रण अक्सर जीवन के अर्थ, शांति और आत्म-ज्ञान की खोज के रूप में आता है।

“बुद्ध मुस्कराए
और देखते-देखते जंगल
विहार बन गया।
पेड़ अपनी जगह खड़े रहे
पर उनकी पत्तियों से
अलग स्वर आने लगे।
पत्तियों में जो हवा थी
उसमें एक नया संगीत था,
जो कानों से नहीं,
हृदय से सुना जा सकता था।”

इस अंश में कुंवर नारायण ने बुद्ध के मौन और उनकी शांति की शक्ति को दर्शाया है। यहाँ बुद्ध का ‘मुस्कराना’ प्रतीक है उस आंतरिक शांति का, जो उनके साथ पूरे वातावरण को बदल देती है। यह कविता बुद्ध की उपस्थिति और उनकी शिक्षाओं के शांतिपूर्ण प्रभाव को दर्शाती है।

– अज्ञेय

अज्ञेय की कविताओं में बुद्ध के प्रति गहरी आध्यात्मिक और अस्तित्ववादी दृष्टि देखने को मिलती है। अज्ञेय ने बुद्ध को उन सवालों का उत्तर देने वाला माना है, जो जीवन, मृत्यु और आत्मा के अस्तित्व से जुड़े हैं। उनकी कविताओं में बुद्ध का दृष्टिकोण एक साधक, चिंतक और यथार्थवादी के रूप में आता है जो शांति और मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं।

“बुद्ध हँसे,
जैसे सारी वेदनाएँ
धीरे-धीरे धुल जाएँ।
उनकी आँखों में था
एक शून्य,
जो भरता था
हर उस व्यक्ति के भीतर,
जो उन्हें देखता।
वह शून्यता नहीं थी,
परिपूर्णता थी।
वह मौन नहीं था,
अनंत ध्वनि थी।”

अज्ञेय की इस कविता में बुद्ध का हंसना और उनकी आँखों का शून्य उनके आत्मज्ञान और मुक्ति का प्रतीक है। अज्ञेय ने यहाँ बुद्ध की उस शांति और परिपूर्णता को दर्शाया है, जो जीवन की सभी वेदनाओं और दुखों को समाप्त कर देती है। उनके मौन को अनंत ध्वनि के रूप में चित्रित करना अज्ञेय की बुद्ध के प्रति गहरी दार्शनिकक्ष दृष्टि को दर्शाता है।

कुंवर नारायण और अज्ञेय की कविताओं में बुद्ध एक गहरे दार्शनिक और मानवीय दृष्टिकोण का प्रतीक हैं। जहाँ कुंवर नारायण बुद्ध की शांति और करुणा पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वहीं अज्ञेय उनकी आत्मिक और अस्तित्ववादी गहराई पर प्रकाश डालते हैं। दोनों कवियों के लिए बुद्ध केवल एक धार्मिक व्यक्तित्व नहीं हैं, बल्कि वे जीवन और अस्तित्व के गहरे प्रश्नों के उत्तर खोजने वाले साधक हैं।

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