— अरुण कुमार त्रिपाठी —
हिंसक, अनैतिक और आधी अधूरी दुनिया में इसी तरह का शर्मनाक और हास्यास्पद नाटक चलेगा जैसा कि इस वक्त भारत, अमेरिका और कनाडा के बीच एक आतंकवादी की हत्या, दूसरे की हत्या के प्रयास और उसमें भारत के उच्च अधिकारियों और एक आपराधिक गैंग की संलिप्तता को लेकर हो रहा है। वैश्विक संबंधों की गरिमा, मर्यादा और नैतिकता के लिहाज से देखें तो आंखें फटी की फटी रह जाती हैं कि हमारी सरकारें क्या क्या करती हैं और तब जाकर हमें सुरक्षा का अहसास होता है और हमारा राष्ट्रवादी अहम गर्व से ऊंचा हो सकता है। टेक्नोलॉजी और पूंजी के माध्यम से हमने बीसवीं सदी से ही वैश्विक गांव का निर्माण शुरू कर दिया था। लेकिन इन घटनाओं की पर्तें जैसे जैसे खुल रही हैं वैसे वैसे अहसास हो रहा है कि हमने तो ऐसा वैश्विक गांव बना डाला जिसमें अलग अलग टोले के मुखिया जो काम खुले आम नहीं कर पाते उसे अपराधियों से करवाते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका और कनाडा ने पंजाब के खालिस्तानी आतंकवादियों को पनाह देकर अस्सी और नब्बे के दशक में भारत को बहुत क्षति पहुंचाई है। इस मामले में इन देशों की नीति दोगली रही है। उनके राष्ट्रीय हितों की पहुंच पूरी दुनिया में है और विकासशील देशों के राष्ट्रीय हित उनके अपने देश में भी संरक्षित नहीं है। लेकिन अस्सी और नब्बे के दशक की स्थितियों को अगर बीती हुई बात मान लें तो आज भारत का पंजाब खालिस्तानी आंदोलन और आतंकवाद से मुक्त है। फिर उस मामले को लेकर सरकार ने इतना नीचे गिरकर क्यों किसी अपराधी की कथित हत्या से इतना विवाद पैदा करवाया?
इस सवाल का उत्तर कठिन नहीं है। अगर हम सरकार के तमाम अधिकारियों और पूर्व अधिकारियों के बयान और इंटरव्यू देखें तो उनमें दो तीन बातें मिलती हैं। एक बात तो कनाडा और अमेरिका के आरोपों को झूठा, प्रमाणविहीन और राजनीति प्रेरित बताने वाली होती हैं। दूसरी बात यह होती है कि अमेरिका जो ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकी को मारने के लिए पाकिस्तान के भीतर घुस कर कर सकता है और उसका सहयोगी देश इजराइल हमास और हिजबुल्लाह के आतंकियों को मारने के लिए सीरिया, लेबनान पर बमबारी कर सकता है तो उन्हें भारत पर आरोप लगाने का क्या हक बनता है? इस दलील का परोक्ष रूप से यही कहना है कि अगर वे दूसरे देश में अपने देश के अपराधी को घुस कर मार सकते हैं तो हम क्यों नहीं मार सकते। तीसरा तर्क यह है कि दरअसल भारत ने न तो युक्रेन के मामले में और न ही इजराइल के मामले में पश्चिमी देशों का खुलकर साथ दिया। इसलिए यह भारत सरकार पर दबाव डालने के लिए एक साजिश रची गई है।
यह तीनों तर्क किसी ऐसे देश या व्यक्ति की ओर से दिए जाते हैं जिसमें या तो साहस की कमी है या सच्चाई की कमी है या फिर नैतिकता की कमी है। इसके अलावा किसी ऐसे व्यक्ति या देश द्वारा दिए जाते हैं जो अपने को किसी और शक्तिशाली देश की नकल करते हुए उसकी क्षत्र छाया में बड़ा होना चाहता है। वास्तव में अमेरिका और उसके खेमे के अन्य युरोपीय देश अपने देश के बाहर एक क्रूर और हिंसक नीतियां चलाने में विश्वास करते हैं। यह वही नीति है जो औपनिवेशिक काल के दौरान ग्रेट ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, हालैंड, पुर्तगाल जैसे देश चलाया करते थे। इन नीतियों का हश्र दो विश्व युद्धों के रूप में हुआ और उम्मीद थी कि दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर और मुसोलिनी की मौत के बाद अब दुनिया में वैसे तानाशाहों की पुनरावृत्ति नहीं होगी। उसी सोच के साथ एक नई विश्वव्यवस्था के निर्माण के लिए संयुक्त राष्ट्र का गठन हुआ।
जिसमें राष्ट्रों को आत्मरक्षा का अधिकार तो दिया गया लेकिन यह सीमा भी निर्धारित कर दी गई कि वे किस हद तक कार्रवाई कर सकते हैं। लेकिन राष्ट्र राज्य नामक संस्थाओं ने न तो आत्मरक्षा की सीमा पहचानी और न ही मानवाधिकारों का आदर किया। इस नाते आज दुनिया में दर्जनों हिटलर तैयार हो गए हैं।
इस बीच फ्रांसिस फुकुयामा जैसे विद्वानों ने `एंड आफ हिस्ट्री’ जैसी अवधारणाओं के माध्यम से पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों के मजबूत होने की जो संभावना जताई थी वह भी धराशायी हो गई। अगर पूर्वी युरोप में कुछ देशों में लोकतंत्र बहाल हुआ और एशिया और अफ्रीका के कुछ और देश रंगभेद और दूसरे किस्म की तानाशाहियों से आजाद हुए तो नए किस्म के तानाशाही शासकों ने तथाकथित सभ्य देशों को जकड़ लिया। जब अमेरिका और हंगरी जैसे देश में डोनाल्ड ट्रंप और विक्टर ओरबन जैसे तानाशाह उभर सकते हैं तो अफ्रीका और एशिया के देशों का तो इस तरह `हक’ ही बनता है।
अमेरिका और युरोप के कथित सभ्य देशों के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि वे अपने नागरिकों के अधिकारों का तो अधिकतम सम्मान करते हैं लेकिन जो उनके देश के नागरिक नहीं हैं उन्हें वे कीड़े मकोड़ों से थोड़ा ही ऊपर मानते हैं। वे उनका इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय राजनय में मानवाधिकार के बहाने करते हैं, कभी कभी उन्हें भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी मामलों में राहत भी पहुंचाते रहते हैं लेकिन वे उन्हें अपने नागरिकों के बराबर नहीं मानते।
अगर उन्होंने अपने देश में रंगभेद और नस्लवाद काफी हद तक घटाया है तो वे एशिया और अफ्रीका के देशों के प्रति बढ़ते नस्लवाल को रोकने में आगे नहीं आए हैं। शरणार्थी समस्या पर उन देशों का रुख देखकर नहीं लगता कि कहीं से भी समतामूलक और भाईचारे पर आधारित दुनिया या विश्व का निर्माण हो रहा है। डैरोन एसीमोगलू और जेम्स एक रोबिनसन जैसे नोबल विजेता अर्थशास्त्री(और व्हाई नेशन्स फेल के लेखक) भले ही पिछड़ेपन और असमानता के लिए विकासशील देशों की संस्थाओं को दोषी ठहराएं लेकिन इसके पीछे विकसित और अमीर देशों की संस्थाओं की अनैतिकता और हिंसक प्रवृत्तियां कम जिम्मेदार नहीं हैं।
विकसित देश न तो कोविड-19 के समय अपने व्यावसायिक हितों से समझौता करने को तैयार थे और न ही जलवायु रक्षण के लिए पेरिस समझौते को मानने के लिए। उनके लिए डब्ल्यूएचओ और डब्ल्यूटीओ के बीच दूसरे वाले के उद्देश्य को साधना जरूरी था। यानी वे एक आधी अधूरी और पाखंडी अंतरराष्ट्रीयता का ध्वज लहराते रहते हैं और जब इजराइल गाजा पट्टी के साथ संयुक्त राष्ट्र के ठिकानों पर हमला करता है तो मौन साधे रहते हैं।
लेकिन अमेरिका और युरोप जैसा बनने की होड़ में भारत ने अपनी स्थिति हास्यास्पद करा ली है। आज तक भारत के गृहमंत्री पर इस हद तक नीचे उतर कर किसी आपराधिक गिरोह से हत्याएं कराने का ऐसा आरोप तो नहीं लगा था। इसका मतलब यह नहीं कि भारत से ऐसा करते रहने की उम्मीद नहीं है क्योंकि पाकिस्तान तो ऐसे आरोप लगाता रहा है। ऐसे आरोप नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के गैर सरकारी सूत्रों की ओर से भी लगे हैं। लेकिन पाकिस्तान के एक बदमाश राज्य होने के कारण उसके आरोपों में वह गंभीरता नहीं रहती थी जैसी कि कनाडा और अमेरिका की सरकारों के आरोपों में दिखाई पड़ रही है।
भारत जैसे राष्ट्र राज्य की दिक्कत यह हुई है कि वह स्वाधीनता आंदोलन में महात्मा गांधी द्वारा दिए गए एक नैतिक और अहिंसक विश्व के सभी सुझावों को कूड़ेदान में फेंक चुका है। उसका राष्ट्र राज्य और उस पर काबिज नेता अपने अहंकार के चलते कोई भी नेक और नैतिक सुझाव सुनने को तैयार नहीं हैं। वे न तो विदेश नीति के गंभीर मामलों में विपक्ष को विश्वास में लेते हैं और न ही संसद को। जबकि इंदिरा गांधी जैसी राजनेता ने बांग्लादेश के निर्माण और पाकिस्तान से युद्ध छिड़ने से पहले जयप्रकाश नारायण जैसे सर्वोदयी नेता को पूरी दुनिया में घुमवाया था।
भारत की दूसरी दिक्कत यह है कि उसके राष्ट्र राज्य पर जो लोग हावी हैं और वे देश और दुनिया के भीतर जिस तरह के संबंधों का निर्माण कर रहे हैं उसकी नीति अनैतिकता, नफरत और हिंसा के गारे को आधार बनाकर निर्मित हो रही है। जिसे राष्ट्रीय हित का नाम दिया जाता है। हमारे राष्ट्रीय स्तर के नेता सोचते हैं कि उन्होंने जिस तरह से गुजरात में फर्जी मुठभेड़ें करवाईं और आजकल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जैसी मुठभेड़ें करवा रहे हैं वैसी ही मुठभेड़ें वे कनाडा और अमेरिका में करवा सकते हैं। उन्होंने पश्चिमी देशों के विपरीत न तो अपने नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करना सीखा और न ही अपनी संस्थाओं को स्वायत्तता दी। भारतीय नेतृत्व यह समझता है कि जिस तरह हमारे देश में सब कुछ राजनीतिक तरीके से नियंत्रित हो जाता है वैसा ही अमेरिका और कनाडा में भी होता होगा। लेकिन वहां की स्थितियां वैसी नहीं हैं।
वहां की पुलिस और जांच एजेंसियों के पास एक तरह की स्वायत्तता है और वे अपनी संसद के प्रति जवाबदेह भी हैं। वहां के राजनेता साफ साफ झूठ बोलकर बच नहीं सकते। जबकि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं के बारे में जो आकलन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए जा रहे है उनमें सभी पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं हैं। यहां की कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया जितना अल्पसंख्यक विरोधी, बहुसंख्यकवादी हो चुका है और उसी को राष्ट्रवाद समझता है उसे यहां के लोग भी महसूस कर रहे हैं। ऐसे में जब कोई आरोप बाहर से लगता है और सरकार कुछ साफ जवाब नहीं देती तो जनता के मन में अपनी सरकार पर संदेह गहराता है।
हिंसा, नफ़रत, अनैतिकता और विनाश की प्रेरणा पर आधारित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और हथियारों के प्रति समय समय पर मानवता को आगाह करने वाले लोग आए हैं। कभी कभी उनकी चर्चा भी होती थी और देश से लेकर विश्व से स्तर पर उन बातों को उठाने वाले लोग भी सक्रिय थे। लेकिन अब उनकी ओर न तो राजनेता ध्यान दे रहे हैं और न ही बौद्धिक और संचारक।
आज हमने जिस तरह की दुनिया का निर्माण कर दिया है उसमें एक बार फिर से रवींद्र नाथ टैगार की उन बातों को दोहराना प्रासंगिक होगा जो उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले 1941 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान `सभ्यता के संकट’ नामक निबंध में व्यक्त किया थाः—–
“बर्बरता के दैत्य ने सारे आवरण उतार फेंके हैं और अपने नंगे विषदंतों सहित आ खड़ी हुई है। वह मानवता को बर्बादी के नंगे नाच में ले जाकर चीथ देना चाहती है। दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक घृणा के विषाक्त धुएं ने वातावरण को काला कर दिया है। हिंसा की भावना जो अब तक पश्चिम देशों के मस्तिष्क में सोई पड़ी थी वह अब जाग उठी है एवं मनुष्य की मूल भावना को अपवित्र कर रही है। मुझे एक बारगी ऐसा विश्वास था कि सभ्यता का सोता युरोप से फूटेगा। लेकिन जब मैं दुनिया छोड़ने वाला था तो यह विश्वास लगभग दिवालिया होने के कगार पर है जब मैं चारों ओर देखता हूं तो मैं गौरवशाली सभ्यताओं के टूटे हुए अवशेष पाता हूं। लगता है वे जैसे निरर्थक ढेर हों। फिर भी मैं मनुष्य में विश्वास न करने का पाप नहीं करूंगा।”
राष्ट्रवाद और राष्ट्र राज्य की कमियों का गहरा अहसास टैगोर को था। तभी उन्होंने कहा थाः—-
देशभक्ति मेरा आखिरी आध्यात्मिक सहारा कभी नहीं बन सकती, मेरा आश्रय मानवता है। मैं हीरे के दाम में ग्लास नहीं खरीदूंगा। जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा।
राष्ट्रवाद के खतरनाक पहलू पर टैगोर की यह कविता भी ध्यान देने लायक हैः—
सदी का सूर्यास्त
सदी का आखिरी सूरज
पश्चिम के रक्त-लाल बादलों और नफ़रत के बवंडर के बीच डूब रहा है
राष्ट्रों के नग्न प्रेम का जुनून, लालच के नशे में चूर
इस्पात की टक्कर और प्रतिशोध की चीखती हुई कविताओं पर नाच रहा है
राष्ट्र की भूखी आत्मा अपने ही बेशर्मी भरे भोजन से क्रोध की हिंसा में फट जाएगी
क्योंकि उसने संसार को अपना भोजन बना लिया है
और उसे चाटते हुए, कुतरते हुए और बड़े बड़े निवालों में निगलते हुए
यह फूलता ही रहता है
जब तक कि उसके अपवित्र उत्सव के बीच में अचानक स्वर्ग का बाण
उसके स्थूल हृदय को छेदता हुआ जाता है
भारत पर नजर रखो
उस पवित्र सूर्योदय के लिए अपनी पूजा की भेंटें लेकर आइए
इसके स्वायत्त का पहला भजन
अपनी आवाज में बजाएं और गाएं
आओ शांति, हे ईश्वर की महान पीड़ा की पुत्री
अपने संतोष के खजाने
धैर्य की तलवार के साथ आओ
और नम्रता तेरे माथे पर मुकुट होगी
लेकिन टैगोर ने जिस भारत और पूरब में शांति के सूर्योदय की उम्मीद की थी वह तो पश्चिम जैसा निकला। फरीद जकरिया ने पूरब के जिस आर्थिक उदय को ‘राइज आफ द रेस्ट’ कहा था वह तो विश्व व्यवस्था को कहीं से भी सुधारने लायक पहल करता हुआ दिख ही नहीं रहा है। वह या तो फिर अमेरिका और युरोप का प्यादा बन बैठा है या फिर उनके प्रतिरोध का एक ध्रुव। उसके मूल्य न तो परमाणु बम के बारे में भिन्न हैं और न ही हिंसा के बारे में। उनके राष्ट्र राज्य का अहंकार भी वैसा ही है जैसा युरोपीय देशों का।
आज इस बात की बहुत चर्चा की जाती है कि भारत सरकार युरोपीय विचारों और सिद्धांतों की बजाय भारतीय विचारों और सिद्धांतों का तवज्जो दे रही है। लेकिन कनाडा और अमेरिका से हुए ताजा विवाद से लगता है कि वह तो वही कर रही है जो अमेरिका और उसके सहयोगी देश करते रहते रहते हैं। भारत न तो आंबेडकर का ध्यान रखते हुए बुद्ध के विचारों को अपनाने का प्रयास कर रहा है और न ही गांधी की नैतिकता को समझने की कोशिश कर रहा है। यही वजह है कि कथित सभ्य राष्ट्रों के बीच वह भी बादशाह वाला पारदर्शी वस्त्र पहनकर खड़ा है।
महात्मा गांधी ने 2 अप्रैल 1947 को दिल्ली में हुए अंतर एशियाई संबंध सम्मेलन में पश्चिम की तुलना में एशिया से उम्मीद जताई थी। उन्होंने कहा, “ जो बात मैं आपको समझाना चाहता हूं वह एशिया का संदेश है। उसे पश्चिम के दृष्टिकोण से या परमाणु बम की नकल करके नहीं सीखा जा सकता। अगर आप पश्चिम को कोई संदेश देना चाहते हैं तो वह प्रेम और सत्य का संदेश होना चाहिए।……’’
असल में अहिंसा, शांति और प्रेम का सिद्धांत नागरिक और राज्य के संबंधों और नागरिक नागरिक के संबंधों से लेकर राष्ट्र राज्य और नागरिक के सबंधों तक के बीच होता है। इसी व्यापक सिद्धांत को अमेरिकी राजनीति शास्त्री ग्लेन डी पेज ने `नॉन किलिंग ग्लोबल पोलिटिकल साइंस’ में व्यक्त किया है। इसका हिंदी अनुवाद `राजनीतिशास्त्र का हिंसा मुक्त स्वरूप’ के रूप में राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय ने करवाया है।
वे अहिंसक समाज को परिभाषित करते हुए कहते हैः——
“अहिंसक समाज का क्या अर्थ है? यह एक ऐसा मानव समुदाय है जिसमें छोटे से लेकर बड़े तक, स्थानीय से लेकर विश्व स्तर तक कोई भी न तो किसी मनुष्य मारता है और न ही मारने की धमकी देता है। मनुष्यों को मारने के लिए न तो हथियार बनाए जाते हैं, न ही उनके प्रयोग का कोई औचित्य होता है। समाज का कोई भी स्वरूप भय पर टिका नहीं होता है। इसी प्रकार समाज में परिवर्तन लाने तथा इसका स्वरूप यथावत रखने के लिए मारक शक्ति का सहार नहीं लिया जाता।’’
हिंसाविहीन समाज की कल्पना बहुत आगे की और उच्च स्तरीय कल्पना है। वह वहीं संभव है जहां पर असमानता और शोषण कम से कम हो और भाईचारे का भाव ज्यादा से ज्यादा। लेकिन आतंकवाद और राष्ट्र राज्य की प्रतिहिंसा की जड़ में राष्ट्र राज्य का अहंकार बड़ी वजह है। वह अहंकार कई बार राज्य को अमेरिका और इजराइल बना देता है तो कई बार भारत जैसा हास्यास्पद। इससे बड़ा हास्यास्पद क्या हो सकता है कि जी-20 सम्मेलन में जब भारत वसुधैव कुटुम्बकम के मूल मंत्र को चरितार्थ कर रहा हो तब एक सदस्य देश का प्रधानमंत्री भारत सरकार द्वारा अपने नागरिक की हत्या की शिकायत कर रहा हो।
अनैतिक और आधी अधूरी हिंसक दुनिया का यही हास्यास्पद हश्र होना है जो आज हो रहा है।