प्रेमचंद का उपन्यास ’रंगभूमि’

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Premchand's novel 'Rangbhoomi'

— शंभू नाथ

प्रेमचंद के उपन्यास ’रंगभूमि’ के सौ साल होने पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जो कहा :

1) 1925 से 2024 तक के इन सौ सालों में बहुत कुछ अनोखा घटा है। इस दौर में जो चीजें उभरी थीं, वे अब दब गई हैं और जो चीजें दबी हुई थीं वे इन सालों में उभर गई हैं! ये सौ साल देश, समाज और साहित्य में बड़ी उथल–पुथल के साल हैं।

2) हर साहित्यिक कृति सभ्यता में एक यात्रा पर होती है, कभी खो जाती हुई और कभी लड़ती हुई। हम ’रंगभूमि’ को ऐसे समय में फिर याद कर रहे हैं जब दशकों से ’गोदान’ ने इस उपन्यास को बौद्धिक पिछवाड़े में डाल रखा था। मुझे यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि ’गोदान’ एक महान कृति है, पर वर्तमान समय में ’रंगभूमि’ उससे एक अधिक अर्थपूर्ण कृति है।

3) ’रंगभूमि’ एक बहुकथापरक उपन्यास है, पर मुख्य कथा विस्थापन की है और संभवतः यह विस्थापन पर पहला भारतीय उपन्यास है। जानसेवक अपने सिगरेट कारखाने के लिए सूरदास की जमीन मुआवजा देकर लेना चाहता है। उसका एक आदमी ताहिर अली कहता है, ’मुझे शक है कि वह इसे बेचेगा भी’। जानसेवक व्यापारिक आत्मविश्वास से कहता है,’रुपए के सत्तरह आने दीजिए और आसमान के तारे मंगा लीजिए।’ अर्थात व्यापार युग में कुछ भी खरीदा जा सकता है!
’रंगभूमि’ का सबसे बड़ा संदेश है, कुछ भी नहीं खरीदा जा सकता, ’रंगभूमि’ के सूरदास को नहीं खरीदा जा सका! हमारी खुशी, हमारा प्रेम, हमारी करुणा, ’साझे जीवन–साझी संस्कृति’ में हमारे विश्वास को नहीं खरीदा जा सकता!

3) ’रंगभूमि’ उपन्यास बताता है कि किस तरह सूरदास एक भिखारी है। वह बाहर अभाव में डूबा हो, पर भीतर भाव से भरा है–प्रेम, सत्यनिष्ठा, न्यायविचार, परोपकार और साहस से। जबकि जानसेवक, राजा महेंद्र कुमार, कुंवर भरत सिंह जैसे पात्र बाहर एक से बढ़कर एक भौतिक वस्तुओं के मालिक हैं, संपत्तिवान हैं, पर इनका अंतःकरण संवेदना, विवेक, मूल्यबोध आदि से खाली है।
आज यही हालत है, सभ्यता का ऐसा आक्रमण है कि आदमी को अधिक से अधिक भौतिक वस्तुएं चाहिए, पर वह लगातार संवेदनाहीन भी होता जा रहा है!

4) ’रंगभूमि’ के संबंध में कुछ आलोचकों ने कहा है कि सूरदास उद्योगीकरण, नगरीकरण का विरोध करने के कारण सामंती व्यवस्था को लौटाने वाला एजेंट है, जबकि जानसेवक राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है और प्रगतिशील कदम उठाता है। यह धारणा इसलिए गलत है कि जानसेवक उपन्यास में राष्ट्रीय पूंजीपतियों की तरह स्वाधीनता संग्राम में सहयोग या मानवतावाद का एक भी उदाहरण उपस्थित नहीं करता। इसके विपरीत वह अंगरेजी शासक क्लार्क और राजा–जमींदारों का सहयोग लेकर सूरदास को और उसके कस्बे को नृशंसतापूर्वक मिटा देना चाहता है।

जानसेवक सूरदास की जमीन अंग्रेज सरकार से सांठगांठ करके ले लेता है और कृषकों से अन्न, तिलहन आदि की खेती को रोककर तंबाकू की खेती कराना चाहता है, अर्थात कृषि को औद्योगिक– व्यापारिक दखल में लाना चाहता है। यह दृश्य 2021–22 में कृषि के कारपोरेटीकरण के मामले में स्पष्ट है और किसान आंदोलन के बावजूद इसका खतरा बरकरार है। प्रेमचंद ने अपनी दूरदर्शिता से पहले ही यह संकट भांप लिया था!

जानसेवक कहता भी है, ’यह व्यापार राज्य का युग है’। भारत जब औपनिवेशिक राज्य से बाहर निकलकर राष्ट्र राज्य बनने के लिए छटपटा रहा था, ’व्यापार राज्य’ की नींव भी पड़ रही थी, जिसे ’रंगभूमि’ में मूर्त करना एक बड़े सभ्यतागत संकट को पहचानना है।

5) उपर्युक्त रोशनी में प्रेमचंद का उपन्यास ’रंगभूमि’ महज राष्ट्रीय रूपक नहीं, बल्कि विश्व में उपस्थित एक बड़े सभ्यतागत संकट के विरुद्ध साझी मानवता की आवाज है। जाति–धर्म के भेदभाव से ऊपर उठा एक भिखारी और संतों को गाने वाला अंधा सूरदास दुनिया की साझी मानवता का रूपक है।

6) प्रेमचंद की एक बड़ी चिंता भारत के लोगों के बीच कलह है। खासकर हिंदी क्षेत्र की सबसे बड़ी फसल गेहूं, चावल नहीं है, कलह है। लोग कलह बोते और कलह काटते हैं। इसलिए क्लार्क की गोली खाकर मरने से पहले सूरदास आखिरी बात कहता है, ’तुम मंजे हुए खिलाड़ी हो, तुम्हारा दम नहीं उखड़ता, खिलाड़ियों को मिलाकर खेलते हो। हमारा दम उखाड़ जाता है, खिलाड़ियों को मिलाकर नहीं खेलते।’ यह प्रेमचंद की हिंदी क्षेत्र के यथार्थ पर एक जबरदस्त टिप्पणी है और एक गहरी चिंता भी!

7) कई अन्य बातें हैं, पर यहां एक आखिरी बात : विस्थापन और दमन के बाद अंग्रेज शासक क्लार्क राजा साहब से कहता है, ’ मुझे आप जैसे मनुष्य से भय नहीं, भय सूरदास जैसे मनुष्य से है।’ इसका अर्थ है, जब तक लोगों में लाभार्थी बनने की चाहत है, धन–वैभव की भूख है और प्रेम, न्यायप्रियता, परोपकार, साहस, एकता आदि के भाव हाशिए पर हैं किसी सत्ता–व्यवस्था को कोई बड़ा भय नहीं है!

ये सब ’रंगभूमि’ के बड़े संदेश हैं जो सौ साल बाद भी हमसे पूछते हैं– क्या तुम वर्तमान सभ्यता के आक्रमण से अपने अंतःकरण को बचा सकते हो– अपनी संवेदना को, अपने आलोचनात्मक विवेक को, अपनी कल्पना शक्ति को? दो के पास अंतःकरण नहीं होता : एक ’भीड़’ के पास और दूसरा ’पत्थर’ में!

हो सकता है, प्रेमचंद के नाटक ’कर्बला’ और ’रंगभूमि’ का शतवर्ष अपनी– लोगों को अपनी–अपनी गुमटी से बाहर आकर कुछ नया सोचने की प्रेरणा दे, क्योंकि दोनों कृतियां ऐसे समय में आई थीं, जब आज की तरह ही पहले सत्याग्रह की विफलता के बाद एक किंकर्तव्यविमूढ़ता थी, और हमारा देश एक सांस्कृतिक चौराहे पर खड़ा था!

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