संस्कृति के चौराहे पर लोहिया का दिशा-संचालन

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Ram Manohar Lohiya

— विनोद शाही —

प निवेशों की आजादी के साथ दुनिया से साम्राज्यवादी दौर का अंत हो गया। परंतु उस इतिहास की विरासत अभी नव साम्राज्यवाद के दौर के रूप में दुनिया को अपने शिकंजे में कसे हुए है। आजाद हुए मुल्क अभी इतने ताकतवर नहीं हुए कि दुनिया को उपभोक्ता मंडियों से बदलकर नई तरह के गुलामी पैदा करनेवाले इस नव साम्राज्यवादीकरण का मुकाबला कर सकें। इन मुल्कों के एक शक्ति बनकर उभरने के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट है इनका विभाजन, जो इन्हें आपसी झगड़ों में उलझाए रखता है और पड़ोसी देशों के साथ इनके प्राकृतिक भौगोलिक रास्तों को बंद करता है। भारत और कोरिया का विभाजन इस लिहाज से इन एशियाई मुल्कों में एक शक्ति बनकर उभर सकने की संभावना को मुल्त्वी करता है। प्राकृतिक व्यापार मागों के बंद होने से यहाँ जो आथक विकास रोक दिया गया, उसने पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जो हालात पैदा किए, वे बंद पोखर के पानी के सड़ जाने का उदाहरण है।

इससे वह आतंकवाद पैदा हुआ, जिसने मौजूदा दुनिया को हिलाकर रख दिया है और उलटकर सबसे ताकतवर इन नव-साम्राज्यवादी मुल्कों को ही चुनौती दे डाली है। इसलिए भविष्य में अगर मानव जाति एक विकास-सिद्ध दुनिया चाहती है और अपने इस पिछले इतिहास की उपजी बीमारियों का इलाज भी चाहती हैं तो सिवाय इसके कि विभाजित देशों का एकीकरण हो सके, दूसरा रास्ता बचा दिखाई नहीं देता।

भारत विभाजन के समय आविंद घोष ने भारत और पाकिस्तान के दोबारा एक हो जाने की संभावना के चरितार्थ होने तथा बहुत से देशों की एक साथ कई नागरिकताओं वाले वाले भूमंडलीकृत मानव-समाजोंवाले एक एक नए विश्व की परिकल्पना कल्पना की थी। भारत-पाकिस्तान के एक-दूसरे में विलय की बात से केवल ‘सांप्रदायिक सोच रखनेवाले’ ही भयभीत होते हैं। यहाँ राममनोहर लोहिया की एक परिकल्पना विचारणीय है। लोहिया ने भारत, पाकिस्तान और कश्मीर के एक महासंघ को भारत-विभाजन के व्यावहारिक विकल्प की तरह देखा था।

उन्हें अपने जीवन के अंत तक लगता रहा कि यह मुमकिन है। इसके लिए वे किसी हद तक जाने को तैयार थे-पाकिस्तान के भारत में विलय की संभावना के लिए ही नहीं, भारत के पाकिस्तान में विलय की अनैतिहासिक परिणति तक के लिए भी कश्मीर को स्वायत्तता देकर इसी महासंघ का हिस्सा बनाए रखा जा सकता है। (पॉल ब्रास को ‘न्यूजवीक’ के लिए दिए गए साक्षात्कार से) तो अगर यह मुमकिन हो कि पाकिस्तान, कश्मीर और हिंदुस्तान का कोई ‘पाकरा हिंद’ जैसे नामवाला महासंघ बन सके तो इस मुल्क की सीमाएँ चीन, अफगानिस्तान और ईरान के साथ खुल जाती हैं। भौगोलिक निकटता से व्यापार का नया नेटवर्क बनने के हालात पैदा हो सकते हैं और आतंकवाद के पनपने के लिए वजह, तकरीबन खत्म ही हो जाती है।… इससे पूरे विश्व के लिए आतंकवाद के खतरे से मुक्त एक नए दौर की शुरुआत की भूमिका बन सकती है।

स्पष्ट है कि जिसे हम दुनिया का अगला दौर कहते हैं, उसकी बुनियाद इस एकीकरण की नींव पर ही रखी जा सकती है। भारत- विभाजन की वजह से इसलाम पर आधारित सांप्रदायिकता को एक भौगोलिक व ठोस रूप दिया जा चुका है, जिसके निरस्त होने से ही इसलाम व हिंदू सांप्रदायिकता के पैरों तले की जमीन खिसकाई जा सकती हैं। यानी अगर हमारे यहाँ यह एकीकरण किसी तरह या किसी रूप में मुमकिन होता है तो यह एक नए सांस्कृतिक आंदोलन की भूमिका या वजह बनता है। हमारे इस दक्षिण एशियाई क्षेत्र में एक नए सांस्कृतिक आंदोलन के आरंभ होने की संभावना के अर्थ भी खासे जटिल व व्यापक हैं।

हमारे यहाँ सांस्कृतिक रूपांतर का अर्थ होगा- मध्य युग की पूरी मानव जाति के द्वारा विकसित किए गए अधिकांश धर्मों की विरासत का रूपांतर। इसमें इसलाम, बौद्ध धर्म और हिंदू धमाँ की मुख्य भूमि‌का रहेगी; परंतु इतने बड़े रूपांतर या समन्वय से ईसाई और यहूदी भी अछूते नहीं रह पाएँगे, क्योंकि भारत में उनसे ताल्लुक रखनेवाले लोगों का भी एक बड़ा जन समूह है। एक और बात जो इस तरह के महान् सांस्कृतिक आंदोलन के शुरू हो सकने के हालात् व इतिहास से ताल्लुक रखती है, ध्यान में रखनी जरूरी है। भारत में पिछली अनेक सहस्त्राब्दियों में अनेक सांस्कृतिक आंदोलन, सिलसिलेवार रूप में, समय-समय पर प्रकट हुए हैं। वह इतिहास हमारी जमीन और हमारे बोध का

हिस्सा है। इसलिए एक दफा ऐसी प्रक्रिया के आरंभ होने की देर है, बाकी काम भारत की जातीय एवं सामूहिक स्मृतियाँ खुद-ब-खुद कर लेंगी, इस बात में कोई संदेह नहीं है।

राममनोहर लोहिया के चिंतन क्रम में धर्म राजनीति के सार की तरह आते हैं। उनके मुताबिक, धर्मों का मकसद समाज को एकता में बाँधना तथा उसके आचरणों-व्यवहारों का शुद्धीकरण करना होता है। एकता से समाज का गठन होता है और उसके भूगोल की सीमाएँ निर्धारित होती हैं। सामाजिक रूपांतर से व्यक्तित्व बनता है, जो किसी समाज को बेहतर या पिछेड़ा हुआ बनाता है। धर्म की बाबत लोहिया के विचार राष्ट्रवादी होते हुए भी पूरी मानव जाति के सार व भविष्य की खोज से जोड़ते हैं। हमारे मौजूदा दौर के बहुलतावादी परिदृश्य में वे और भी मौजू हो जाते हैं, क्योंकि जन समूहों की एकता से उनका मतलब ‘सत्ता के दूद्वारा लगाई जानेवाली एकरूपता’ नहीं है। उनके लिए बहुलता के सम्मानवाली चेत्ना असल में एकता व अखंडता का आधार बनती है। अपने इन विचारों को वे भारत की संस्कृति के जमीनी व ऐतिहासिक अध्ययन के मार्फत पाते हैं और फिर वे उनका अपने समय की जरूरतों के मुताबिक विकास करते हैं।

लोहिया की ‘बहुलतावादी एकता’ उनकी राम को कृष्ण के करीब खींच चलाने की की कोशिशों का नतीजा है। इसीलिए यह माओ-त्से-तुंग की सांस्कृतिक क्रांति के इस कंथन में अलहदा है कि ‘हुजारों फूलों को एक साथ खिलने का मौका दिया जाएँ’। माओ की यह बहुलतावादी- एकता सत्तामूलक है। वहाँ अन्य विमर्श के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं है और इसीलिए ‘जंगल में खिलनेवाले फूल’ भी माओ के बगीचे में नहीं उग सकते हैं; जबकि लोहिया जाते ही जंगल की सरहदों की तरफ हैं। उनके लिए राम और फिर पांडवों के द्वारा उनके वनवास में किए गए कार्य ज्यादा अहमियत रखते हैं; क्योंकि उन्हीं से भारत के इतने विविध बहुल समाज में एकता की सांस्कृतिक चेतना का गठन मुमकिन हो पाता है। दूस्री तरफ चीन लोहिया के लिए पूँजीवादी विकास के रास्ते पर चल निकलने को तैयार ऐसा मुल्क है जो रूस से अलग निकल जाने की होड़ में अपने मार्क्सवाद की चरितार्थता पाता है और भारत के तिब्बत को हड़प जाने की वजह से एक साम्राज्यवादी देश जैसा व्यवहार करता दिखाई देता है। समाजवाद, लोहिया के लिए ज्यादा व्यापक व मानवीय संस्कृति-चेतना का ठोस रूप है।

लोहिया का संस्कृति-चिंतन हमें भारतीय इतिहास की पुनर्व्याख्या तक ले जाता है और उसका इस्तेमाल करके हम मौजूदा भारत और विश्व के नव-सांस्कृतिक रूपांतर के नक्शे बनाने की ओर एक कदम आगे बढ़ सकते हैं। लोहियो राम और कृष्ण को भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि केंद्रीय प्रतीक व्यक्तित्व मानते हैं; क्योंकि राम त्रेता में उत्तर भारत को दक्षिण से जोड़ने का और कृष्ण दूवापर में पश्चिमी भारत को पूर्व से समन्वित करने का एक असंभव मालूम पड़नेवाला काम कर दिखाते हैं। लोहिया की इन मान्यताओं की तर्कसंगत व्याख्या मुमकिन है। त्रेता और दुवीपर को हम भारतीय समाजेतिहास के उत्तरोत्तर विकसित होनेवाले युग-चरण मान सकते हैं। राम उठते हुए यो विकासोन्मुख कृषि-केंद्रित सभ्यतावाले चरण पर आए और उनका सामना खुद को बचाती कबीलाई जंगल सभ्यता से हुआ, जो अब तक पतनशील हो चुकी थी। इस राक्षसी सभ्यता का अंत राम के हाथों हुआ और वे श्रम-विभाजन पर आधारित् वर्णों-जातियोंवाले समाज की नई व्यवस्था को उत्तर से दक्षिण तक ले गए। अब हैं।

इस व्याख्या को जेहन में रखते हुए लोहिया की कृष्ण संबंधी मान्यता पर् आते लोहिया के मुताबिक, कृष्ण ज्यादा जटिल समाज में काम कर रहे थे। कंस और जरासंध को चुनौती देने का उनका मकसद था पश्चिम में मौजूद पूर्व के पतनशील भौतिकवादी चेतना के प्रतिनिधियों को चुनौती देना। पश्चिम में अपनी सत्ता कायम करके भी कृष्ण निरापद नहीं होते हैं और ‘रणछोड़’ की भूमिका अदा करते हुए वे पूर्व तक चले जाते हैं, जहाँ दूवारिका को वे अपना कार्यक्षेत्र बनाते हैं। इस तरह उत्तर-पश्चिम की ‘कुस-धुरी को वे पूर्व की ‘मगध-धुरी’ से जोड़ देते हैं। इसलिए आज भी मणिपुर, असम, बंगाल आदि क्षेत्रों में कृष्ण जनमानस के केंद्र में ज्यादा है, हालाँकि शेष भारत अभी तक राम-केंद्रित चेतनावाला ही मालूम होता है। इसे पूर्व से ‘हरि’ या ‘कृष्ण’ भारत के दक्षिण में भी प्रवेश करते हैं। कृष्ण की वजह से मथुरा-वृंदावन का अंतःविस्तार दुद्वारिका तक हो जाता है।

परंतु जिस गुत्थी को अपने इस पूरे विवेचन में लोहियाजी सुलझा नहीं पाते हैं, वह है- खुद राम के कृष्ण से समन्वय की गुत्थी। इस समन्वय के अभाव में उन्हें भारत दो समाजों या दो दुनियाओं में बेटा-सा लगता है। राम-केंद्रित समाज मर्यादाधर्मी है, परिश्रमी व्यवस्था व नैतिक आचरण के खास बोध से बँधा दिखाई देता है, जबकि कृष्ण वर्ण-जातियों के बंधन से बाहरवाले समाज से भी मुखातिब हैं। वे क्षत्रिय उतने नहीं जितने अहीर हैं; गृहस्थ उतने नहीं जितने प्रेमी नायक हैं और गीता-ज्ञानवाले दार्शनिक गुरु जैसे उतने नहीं जितने सहज बोध से संचालित मुरली के संगीत को ही दर्शन का विकल्प बना डालनेवाले। लोहिया कृष्ण को ऐसा आदमी मानते हैं. हैं, जो ‘दर्शन को गीत में ढालता’ है और ‘मर्यादा को रस-बोध में।

परंतु कृष्ण कर्की परंपरा इस ‘अंदरूनी समन्वय’ की अभिव्यक्ति नहीं करती। परंपरा में राम की मर्यादा सत्ता की क्रूरता तक बन जाती है और कृष्ण की रसवत्ता आलस्य और स्वच्छंद आचरण का पर्याय। फिर भी राम की परंपरा सत्तावादी भारत के लिए उपयोगी बनी रहती है और कृष्ण बेहद जटिल समन्वय के पर्याय होकर भी भविष्य भी वस्तु बने रह जाते हैं। दूसरे, राम के साथ भारत का उत्तर-पश्चिम आदर्शवाद की धुरी पर घूमता है, जिसका पूर्व की भौतिकवादी चेतना से मिलन नहीं हो पाता। इसलिए पूर्व गहरे में कृष्ण का भी नहीं, बुद्ध का प्रदेश ही साबित होता है। ये तमाम बातें गहराई में समझने लायक हैं।

लोहिया एक उदाहरण से अपनी दुविधा प्र रोशनी डालते हैं। राजस्थान में पद्मिनी जौहर करके अपने पतिव्रता होने का सबूत देती है और मीरा पूर्व-जन्म के प्रेमी कृष्ण के लिए दीवानी होकर गृहस्थ की मर्यादाओं का त्यागु करती है। लोहिया कृष्ण से पूछते हैं कि भारत में पद्मिनी और मीरा का समन्वय किसी एक नारी व्यक्तित्व में क्यों मुमकिन नहीं?

जिसे लोहिया ‘कृष्ण का द्वापर’ कहते हैं, वह दरअसल कृषि-मूलक सभ्यता के विकास चरण के पतनशील हो जाने का दौर हैं। इसके बाद पुराणों का कलिकाल है, जो विदेशी आक्रांताओं के सामने किसी तरह खुद को बिखने से बचाने के संघर्ष में मुबैतिल नजर आता है। मौर्य और गुप्त साम्राज्य संभावित बिखराव से भारत को बचाने के दो मुहानू उप्क्रम-काल हैं। खुद को बना सकने का यह उपक्रम हर्ष के काल तक-यानी आठवीं सदी तक चलता है, जिसके बाद बिखराव को रोकना अत्यंत कठिन होता जाता है। फिर भी, तेरहवीं-चौदहवीं सदी से पहले का दौर् ऐसा है, जिसमें भारत का अंतुवकास, किसी-न-किसी रूप में, जारी रहता है। इसके बाद एक के बाद एक विदेशी हमलावर भारत में आकर अपना साम्राज्य स्थापित करते जाते हैं। यही वह दौर है, जिसमें राम और कृष्ण की भक्ति भारतीय जनमानस के भीतर केंद्रीय स्थान बना पाने में कामयाब होती है। दसवीं सदी से दक्षिण में और तेरहवीं सदी से उत्तर भारत में राम और कृष्ण के साथ जो गहरा ‘भक्तिमूलक रिश्ता’ जुड़ता है, उससे भारत के जनमानस के आधुनिक चित्त की अंदरूनी निरंतरता दिखाई देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि राममनोहर लोहिया के संस्कृति-चिंतन के केंद्र में इसी ‘अंदरूनी निरंतरता’ की समझ अभिव्यक्ति पाती है।

भारत के दूसरे ज्यादातर संस्कृति-चिंतकों की भी यही समस्या है। वे दसवीं या तेरहवीं सदी से हमारे समय तक चली आई सांस्कृतिक निरंतरता के आईने में ही, भारत के कुल सांस्कृतिक इतिहास को ढाल देना चाहते हैं, जबकि राम या कृष्ण की भक्ति का मौजूदगी के सबूत नारायणी या पंचरात्री साधना-पद्धतियों और दर्शनों के रूप में- इससे पहले मौजूद तो हैं, परंतु भक्तिकाल की तरह अति-व्याप्त नहीं हैं। भारत के सांस्कृतिक इतिहास को राम और कृष्ण की भक्ति के आईने से देखने का नतीजा यह निकलता है कि जिसे वे त्रेता-द्वापर के बाद का कलिकाल कहते हैं- यानी ईसा पूर्व आठवीं सदी के बादवाला मौर्य-गुप्त- कनिष्कों आदि का काल- उसकी महान् दार्शनिक धरोहर और उस दौर का अभूतपूर्व वैज्ञानिक विकास-हाशिए की चीजें हो जाते हैं।

इससे हम तेरहवीं सदी से पहले तक के नाथों, सिद्धों, योगियों, जैनों, बौद्धों आदि के संस्कृति कर्म को जन-चेतन के सार की तरह देख पाने से चूक जाते हैं, जिससे बाद के दौर के सूफियों-संतों के योगदान या अवदान की व्याख्या भी ठीक से नहीं हो पाती। हालाँकि लोहिया के चिंतन में कृष्ण के बहुलताधर्मी व्यव्हार के लिए खास प्रशंसा भाव है, तथापि इस पूरे इतिहास बोध से रिश्ता न बना पाने की वजह से वे बुल्लेशाह की तरह कृष्ण और रांगों या मंसूर की एक ही मंच पर साथ-साथ मौजूद देख पानेवाली चेतना की हद तक समन्वय साधने की हिम्मत नहीं दिखा पाते। हमारी जन-चेतना के भीतर से भले ही हम ‘रामनाथ’ या ‘रामदीन’ जैसे नामवाले बहुत से लोगों को अकसर अपने बीच देखते हों, पर व्यापक इतिहास-बोध के अभाव में कभी नहीं सोचते कि यहाँ तो रामनाथ परंपरा या सूफी परंपरा का हिस्सा होकर हमारे सामुने आ खड़े हुए हैं।

यह हुआ कैसे और उस परंपरा से हमारा रिश्ता कैसे टूट गया? इस तरह के सवालों को यहाँ उठाने के पौछे हमारा जो मकसद है, उसे विवेचन पूर्व स्पष्ट हो जाना चाहिए। हम यहाँ इस तलाश में निकले हैं कि अगर हम लोहिया के महासंघ पाकरा-हिंद’ जैसे किसी देश को हकीकत में देखना चाहते हैं तो हमें वैष्णववादी-हिंदूवादी त्रीके के संस्कृति-चिंतन से उबरकर लोहिया जैसे मौलिक विचारकों के काम को आगे बढ़ाना और गहराना होगा। लोहिया का संस्कृति-चिंतन भले ही इस लिहाज से कुछ अधुरा मालूम पड़ता है, परंतु वह दकियानूसी तरीके से यथास्थितिवादी न होकर वैज्ञानिक पुनुवचार की जरूरत को रेखांकित करता है-कुछ पहल लोहिया ने की, कुछ हिम्मत हमें दिखानी है। राममनोहर लोहिया ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के द्वारा बनारस के पंडों-ब्राह्मणों के पाँव धोने की बात का मजाक उड़ाते हुए उनका खुलकर विरोध किया। यहाँ हम भुक्ति-भाव और जातिवादी मानसिकता के बीच के गठजोड़ को पहचान सकते हैं।

शूद्र और नारी को दोयम दर्ज की हालत में डाले रखने के लिए यह भक्तिवादी संस्कृति कहाँ तक जिम्मेवार है, इसे लोहिया समझ रहे थे। इसीलिए उनका संस्कृति-चिंतन राम और कृष्ण को लेकरे भी श्रद्धा-भक्तिवाली भावुकता से मुक्त दिखाई देता है। राम और कृष्ण की बाबत समझ का विकास करने के लिए वे ‘कथा के सामाजिक विमर्श पर निगाह जमाते हैं और फिर हिंदी में बेहद विरल ‘कथा की अर्थ-मीमांसा’ करने की कोशिश करते हैं। कथा और समाजेतिहास को एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह देखते हुए वे कथा की गहराई में उतर जाते हैं। इस तरह लोहिया हिंदी साहित्य एवं हिंदी पट्टी की मानसिकता में पैठ बना चुकी भक्ति के सिंहासन को उलट देने की हद तक जा पहुँचते हैं।

भक्ति काल में राम और कृष्ण कथा के साथ जो दुर्घटना घटी, उसे समझे बिना लोहिया की मार्फत होनेवाली कथा की वापसी का अर्थ और प्रयोजन पकडू‌ना कठिन होगा। वाल्मीकि और वेदव्यास के महाकाव्यों में राम और कृष्ण कथा-नायक हैं। भक्तिकालीन कृतियाँ उन्हें दैवी बनाती हैं और इस तरह कथा के विकास को मन‌चाही परिणतियों तक ले जाती हैं। कक्ष का मूल ढाँचा जिन स्थितियों के ताने-बाने गाने से बुना जाता है, उन्हें यह दैवी आरोप लीला में बदल देता है। इस तरह एक स्थिति के भीतर से दूसरी का तथा एक घटना के भीतर से अन्य का विकास रुक जाता है। हर स्थिति लीला बनकर स्वायत्त हो जाती हैं। हर स्थिति अपने आप में पूर्ण कथा होने की कोशिश में प्रतीक बनती जाती है। प्रतीक का मतलब होता है कि अब कथा की व्याख्या, उसके भीतर मौजूद स्थितियों-घटनाओं के सिलसिले से न होकर कहीं किसी बाहरी तत्त्व (प्रतीकार्थ) के आधार पर आप में ‘परमे अर्थ’ की उ‌द्घाटक हो र की जाएगी। प्रतीकार्थ में मौजूद हो जाता है और इसकी मौजूदगी ही अपने ऐसे परम अर्थों सत्य में यकीन रखता है। इस तरह उसके लिए कथा के अर्थ, समाज और उसके इतिहास से टूट जाते हैं। लोहिया इसी भक्तिवादी मानसिकता को तोड़ते हैं और कथा के समाजेतिहास के सहारे वर्तमान के लिए अतीत की उस अर्थवत्ता को दोबारा उपलब्ध कराने की कोशिश करते हैं, जो भार्तीय समाज की बौद्धिक जड़ता की वजह से खो गई है। यह जड़ता लोहिया को विक्षुब्ध करती है, जिसे लेकर वे भारत के राष्ट्रपति तक के विरोध में खड़े हो सकने की वजह पाते हैं।

लोहिया राम और कृष्ण के दैवी अर्थों में सुराख करने के लिए कुछ धारणाओं का विकास करते हैं। उन्हें लगता है कि राम मनुष्य से देवता हो जाने की यात्रा है और कृष्ण एक देवता के मनुष्य हो सकने की समझ । कृष्ण पर लिखे अपनें निबंध में वे अपने इस तर्क को कृष्ण के पक्ष में खड़े होने के लिए आधार बनाते हैं। हो सकता है कि लोहिया की ये धारणाएँ उनकी इस हताशा की उपज हों कि राम और कृष्ण को पूरी तरह उनके दैवत्व से आह्लाद करके उन्हें समाजेतिहास के लिए पूरी तरह समुपत करना उन्हें मुमकिन न लगता हो। दूसरे, अगर हम देवता को मनुष्य की संभावना मानते हों तो उनकी इन धारणाओं के अर्थ उलट जाते हैं, तब राम सही दिशा में जाते हुए मालूम पड़ेंगे और कृष्ण को देवता होते हुए।

मनुष्य होने का उपक्रम एक अभिनय हो जाएगा और उसके पीछे चोर-द्रवाजे से व्ही लीला और वही भक्ति-भाव फिर से इस धारा में प्रवेश कर जाएँगे, तथापि अपनी इन धारणाओं के सहारे लोहिया मनुष्य और उसके सामा‌जिक इतिहास को दैवी अर्थ-विधान का एक हिस्सा बनाने की दिशा में एक सार्थक पहल कदमी जरूरी करते हैं। इस चिंतनधारा को गहराना मुमकिन है, अगर हम एक कदम उठाकर देवता को समाजेतिहास के आदर्श सार-विकल्प की तरह देखने की तरफ और थोड़ा आगे बढ़ें। ऐसा करने पर हम भक्तिवादी प्रतीकों को ‘डीकोड’ करने में कामयाब हो सकते हैं। ऐसा करने पर हमें भक्तिधारा में मौजूद प्रतीक्-रूप राम् और कृष्ण उस समय के समाजेतिहास के उस सार-विकल्प की तरह दिखाई देंगे, जिसे उस वक्त के यथार्थ ने रोका या मुल्तवी किया था।

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