— चंद्रभूषण —
अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव नतीजों का इतनी बेसब्री से इंतजार पहले शायद ही कभी हुआ हो, और इसकी अकेली वजह यह कि इतने लंबे समय तक दो बड़ी लड़ाइयों का बोझ बर्दाश्त करना दुनिया के लिए मुश्किल साबित हो रहा है। डॉनल्ड ट्रंप की छवि एक शांतिप्रिय राजनेता जैसी कभी नहीं रही लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध जल्दी रुकवा देने के उनके चुनावी बयान से यह उम्मीद जरूर बनी कि नाटो पक्ष की ओर से इस दिशा में कुछ बात तो शुरू होगी।
दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप अपने बयान से मुकर भी सकते हैं। कथनी और करनी को जोड़कर चलने की बाध्यता उन्होंने आजतक नहीं महसूस की है। लेकिन उनका जनाधार यूक्रेन के मोर्चे पर मामला ठंडा करने के पक्ष में है। विवेक रामास्वामी से लेकर इलोन मस्क तक कई महत्वपूर्ण रिपब्लिकन नेता और समर्थक इसकी जोरदार वकालत करते रहे हैं। लिहाजा संभावना यही है कि ट्रंप के शपथ ग्रहण के साथ इस दिशा में कुछ हरकत होने लगेगी।
ऐसी कोई बात दूसरी लड़ाई, यानी फिलस्तीनी इलाकों और लेबनान में जारी इजराइल की सैन्य कार्रवाइयों को लेकर नहीं कही जा सकती। डॉनल्ड ट्रंप की नीति शुरू से इजराइल को फिलस्तीनी अरब बस्तियों पर हमले की खुली छूट देने की रही है। अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने इजराइल स्थित अमेरिकी दूतावास को वहां की राजधानी तेल अवीव से येरुशलम ले जाने का फैसला किया था, जो एक तरह से संयुक्त राष्ट्र के फैसले को खारिज करते हुए इस प्राचीन शहर पर पूरी तरह से इजराइल का कब्जा घोषित करने जैसा था।
इस बार ट्रंप की वापसी का इजराइल-फिलस्तीन युद्ध पर इतना ही असर हो सकता है कि पिछले कई दिनों से ईरान की ओर से इजराइल पर जवाबी हमले की तैयारियों की जो खबरें आ रही हैं, वे शायद गलत साबित हों और ईरान अपने इस इरादे को हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में डाल दे। उसने ऐसा नहीं किया तो उसे पहले से कहीं ज्यादा बड़े अमेरिकी दखल के लिए तैयार रहना होगा। यूं भी ट्रंप का रुख ईरान पर अधिक सख्ती बरतने का रहा है और उनकी वापसी से इस देश को भारी समस्या हो सकती है।
एक महत्वपूर्ण पहलू दुनिया की दोनों शीर्ष आर्थिक शक्तियों के आपसी रिश्ते का है। चीन से होने वाले आयात पर टैक्स की दरें बढ़ाकर उसके खिलाफ व्यापार युद्ध की शुरुआत डॉनल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दूसरे साल से ही कर दी थी। हाल के अपने चुनावी भाषणों में उन्होंने इस मामले में और ज्यादा सख्ती दिखाने के संकेत दिए हैं। लेकिन चीन के प्रति जोसफ बाइडन की नीति भी ट्रंप से निरंतरता बरतने की ही रही है, लिहाजा किसी नाटकीय बदलाव की कल्पना करना कठिन है।
चीन द्वारा अमेरिका को किया जाने वाला निर्यात आज भी बहुत बड़ा है, लेकिन ज्यादा टैक्स के बल पर उसमें एक झटके में कोई बड़ी कटौती करने पर अमेरिका में महंगाई का मुद्दा बहुत तीखा हो जाएगा। कई चीजें ऐसी हैं जो अमेरिका में बनाने पर चीनी आयात की तुलना में कई गुना महंगी हो जाती हैं। इसके बावजूद, ट्रंप को अमेरिकी बाजारों में चीन का दखल घटाना है तो इसके लिए बयानों से आगे बढ़कर उन्हें लंबी तैयारी करनी पड़ेगी।
पिछले कार्यकाल में ट्रंप के सबसे खराब रिश्ते यूरोपीय संघ से थे और यह व्यापारिक, रणनीतिक और निजी, सारे ही पहलुओं से था। सबसे तीखा टकराव यूरोप की सरकारों द्वारा रक्षा के मद में बहुत कम खर्च किए जाने को लेकर था। दरअसल, कई दशकों से वे यह मानकर चल रही थीं कि यूरोप की सुरक्षा की जिम्मेदारी सबसे बढ़कर अमेरिका पर है, जिसकी एटमी मिसाइलों और राडारों के लिए जगह मुहैया करा देने के बाद उन्हें कुछ विशेष चिंता करने की जरूरत नहीं है।
यूक्रेन-रूस युद्ध के दौरान उनकी यह सोच अचानक उनके गले पड़ गई है। आर्थिक रूप से भी इस लड़ाई ने यूरोपीय देशों की हालत काफी खराब कर रखी है। ऐसे में अमेरिका पर हर लिहाज से उनकी निर्भरता बहुत बढ़ गई है और ट्रंप इसका फायदा उठाने का कोई मौका नहीं चूकने वाले। अभी यह सोचना किसी के लिए भी शायद बहुत आसान न हो, लेकिन ट्रंप की वापसी से सबसे ज्यादा बेचैनी यूरोप के राष्ट्राध्यक्षों को ही हो रही होगी।
रही बात ट्रंप के नए कार्यकाल में भारत और अमेरिका के व्यापारिक और कूटनीतिक रिश्तों की तो ऊपर से इसमें कोई समस्या नहीं लगती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डॉनल्ड ट्रंप के साथ बहुत अच्छे निजी संबंध रहे हैं। लेकिन जोसफ बाइडन ने जैसे मजबूरी वाले माहौल में भारत से नजदीकी बनाने की कोशिश की थी, रूस पर हजारों प्रतिबंध लगाने के बावजूद भारत को उससे तेल आयात करने और उसका शोधन करके पेट्रो पदार्थ यूरोप और अफ्रीका को बेचकर भरपूर फायदा कमाने की छूट दी थी, उस राह पर चलने की कोई बाध्यता ट्रंप के सामने नहीं होगी।
भारत की रणनीतिक दिशा पिछले कुछ सालों से तलवार की धार पर चलते हुए विरोधी खेमों को साधे रहने की रही है। ट्रंप का मुंहफट राजनय अगले कुछ महीनों में ही इसमें कई मुश्किल उलटफेर जरूरी बना सकता है। ऐसा एक बड़ा मामला डी-डॉलराइजेशन, यानी डॉलर के प्रभुत्व से हटकर एक समानांतर ग्लोबल वित्तीय और व्यापारिक प्रणाली के निर्माण का है।
ब्रिक्स की तरफ से कुछ शुरुआती कदम इस दिशा में उठाए जा चुके हैं और अगले साल ब्राजील में इनके और जोर पकड़ने की उम्मीद है। ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान डॉलर से दूर जाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की धमकी दी थी। लेकिन दुनिया भर में अगर डी-डॉलराइजेशन की ललक देखी जा रही है तो इसके पीछे कोई साजिश नहीं है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की हालत अब विश्व-अर्थव्यवस्था की अकेली धुरी जैसी नहीं रह गई है। कोई चमत्कार न हुआ तो ट्रंप के कार्यकाल में ही डॉलर की चमक पहले जैसी नहीं रह जाएगी।