— प्रो आनंद कुमार —
विजय देव नारायण साही को उनके जन्म शताब्दी वर्ष में याद करके हम अपने एक यशस्वी पुरखे की उपलब्धियों की चमक में अपने आत्मविश्वास औ रकर्तव्य–बोध को संजीवनी प्रदा कर रहे हैं. साही जी स्वाधीनोत्तर भारत के सरोकारी बुध्दिजीवियों में अनूठे थे क्योंकि उन्होंने मन–वचन–कर्म तीनों स्तर पर ‘लघु मानव‘ के साथ जीवंत सम्बन्ध बनाया. सत्ताशक्ति की बजाय लोकशक्ति में भरोसा जताया. विश्वयारी से जुड़े साहित्यिक सम्प्रदायों और नवधनाढ्य वर्गों की हितरक्षा में जुटे राजनीतिक गिरोहों को चुनौती देते हुए साही जी ने अपने को, अपनी कलम को और अपनी साहित्य–साधना को ‘लघु–मानव‘ की बेहतरी से जोड़ा. विजयदेव नारायण साही जी को बहुत लम्बा जीवन नहीं मिला. फिर भी उन्होंने कुल ५८ बरस की जीवन यात्रा में कई पहचान हासिल की. साही जी की विशिष्टताओं की चर्चा करते हुए उन्हें महत्वपूर्ण कवि, कुशाग्र आलोचक, सजग सम्पादक, और मुक्त चिंतक के रूप में याद किया जाता है. इसी में श्रेष्ठ शिक्षक, सरोकारी बुद्धिजीवी, सक्रिय नागरिक और परिवर्तन की राजनीति के अगुवा होने को भी जोड़ देना चाहिए. वह हिंदी के साहित्यकार और अंग्रेजी के आचार्य होने के साथ ही फारसी और उर्दू के भी अच्छे जानकार थे. वह ५ कविता संग्रह, ७ निबंध संकलन, ७ नाटक, और २ अनुवादों के रचयिता थे. इस सबने मिलकर साही जी के कई रूपों की रचना की थी और आज उनके शताब्दी वर्ष में सबके अपने–अपने साही जी हैं।
उनके ज्ञान साधक शिक्षक रूप को राष्ट्रीय आन्दोलन के समाजवादी महानायक आचार्य नरेन्द्रदेव ने पहचाना और काशी विद्यापीठ में अध्यापक के रूप में १९४८ में नियुक्ति दी. ‘जनवाणी‘ और ‘नव संस्कृति संघ‘ से जोड़ा. इसी दौर में साही जी वाराणसी के बुनकरों और भदोही के कालीन बनाने वाले मजदूरों की रोजी–रोटी की लड़ाई से जुड़े. महिला बुनकरों की मजदूरी बढ़वाई. बुनकर हड़ताल में जेल गए. काशी विद्यापीठ में अध्यापन के दौरान शुरू समाजवादियों से आत्मीयता इलाहाबाद में और निखर गयी.
तीन वर्ष बाद उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग का निमंत्रण मिला और तीन दशकों तक शिक्षक बने रहे. १९५७ में कंचनलता जी के साथ दाम्पत्य सूत्र में बंधे और एक छोटी सी पारिवारिक दुनिया बसायी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें १९७८ में अंगेजी विभाग में प्रोफेसर भी बनाया।
साही जी का समाजवादी चिन्तक डा. राममनोहर लोहिया के साथ विशेष अपनत्व था. दोनों में देश और दुनिया को लेकर सरोकार और बेचैनी की साझेदारी थी. साही जी को डा. लोहिया का सोच और लोहिया को साही जी की कविता पसंद थी. अपने इलाहाबाद के दौरों में लोहिया जी अक्सर कुछ समय साही जी के साथ काफी हाउ में चर्चा के लिए अलग रखते थे. इन मुलाकातों में डा. रघुवंश, लक्ष्मीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त, रामकमल राय, विपिन अग्रवाल, ओंकार शरद आदि भी शामिल हुआ करते थे. वह लोहिया के संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में १९६७ में लोकसभा के चुनाव में भी उतरे. लोहिया के १९६७ में असामयिक निधन के बावजूद साही जी जीवनपर्यंत लोहियाधारा के समाजवादियों के प्रशिक्षक और मार्गदर्शक बने रहे. १९६८ के अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन से लेकर १९७४ के सम्पूर्ण क्रान्ति आंदोलन से उनका जुड़ाव रहा. उनके राजनीतिक निबंध संकलन ‘लोकतंत्र की चुनौतियां‘ की भूमिका लोहिया के अनन्य सहयोगी मधु लिमये ने लिखी थी।
साही जी के कवि पक्ष को हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष अज्ञेय द्वारा १९५९ में ‘तीसरा सप्तक‘ में उनकी २० कविताओं को शामिल करने से एक अलग महत्व मिला. अज्ञेय जी ने ‘तीसरा सप्तक‘ में कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कीर्ति चौधरी, मदन वात्स्यायन और प्रयागनारायण त्रिपाठी को भी शामिल किया था. ‘मछलीघर‘, ‘साखी‘, ‘संवाद तुमसे‘, और ‘आवाज़ हमारी जाएगी‘ में उनकी कविता की दुनिया का विस्तार होता गया।
एक अनूठे साहित्य समीक्षक के रूप में साही जी की अपनी पहचान जायसी के मूल्यांकन, कवि शमशेर के महत्व के रेखांकन,, छठवें दशक की पड़ताल, ‘लघु मानव‘ की साहित्य संसार में स्थापना और ‘आलोचना‘ और ‘नयी कविता‘ के सम्पादन से बनी थी. ‘आलोचना‘ के सम्पादक मंडल में डा. रघुवंश, धर्मवीर भारती और ब्रजेश्वर वर्मा उनके सहयोगी थे. ‘नयी कविता‘ में जगदीश गुप्त उनके सहयोगी थे. ‘साहित्य क्यों?’, ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व‘ और ‘वर्धमान और पतनशील‘ में उनका योगदान संकलित किया गया है।
विजयदेव नारायण साही का काशी विद्यापीठ और वाराणसी के समाजवादियो से आजीवन विशेष अपनत्व बना रहा. आचार्य नरेन्द्रदेव और डा. लोहिया के देहावसान के बाद इसके निर्वाह में कृष्णनाथ जी और उनके द्वारा स्थापित ‘विचार केंद्र‘ की विशिष्ट भूमिका थी. वैसे साही जी का आचार्य बीरबल सिंह, प्रो. राजाराम शास्त्री और हमारे पितामह विश्वनाथ शर्मा के साथ पुराने समय का परिचय कायम था. अपनी यायावरी की व्यस्तताओं के बावजूद कृष्णनाथ जी सुदूर यात्राओं से वाराणसी वापसी के दौरान साही जी के सत्संग के लिए इलाहाबाद जरुर रुकते थे. साही जी भी अपनी नयी रचनाओं और संकलनों को कृष्णनाथ जी के अवलोकनार्थ भेजा करते थे।
कृष्णनाथ जी का काशी में अपना एक मित्र समाज था जिसने १९६० के दशक के अंतिम वर्षों में आधुनिकीकरण और पुनर्जागरण में बौद्धिक वर्ग की भूमिका के सवालों को बहस का मुद्दा बनाया। इसमें काशी विद्यापीठ के समाजशास्त्री रमेश चन्द्र तिवारी व हिंदी के विद्वान् युगेश्वर, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के बौद्ध चिन्तक जगन्नाथ उपाध्याय, तिब्बती उच्च बौद्ध अध्ययन संस्थान के साम्दांग रिन्पोचे, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पाली आचार्य सामतानी और काशी के चित्रकार प्रमोद गुप्त की विशेष भूमिका थी। काशी में संवाद का क्रम पूरा करने के बाद इस समूह ने विचार केंद्र के माध्यम से इस प्रश्न को राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा के लिए एक व्यापक विचारक समागम का आयोजन किया। साही जी ने इस संवाद का बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया था।
उनके विचारोत्तेजक भाषण में आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण में नकली निकटता और देशज परम्पराओं में आधुनिकता की धाराओं को पहचानने की जरूरत पर जोर दिया गया. फिर ‘बौद्धिक वर्ग‘ बनाम ‘मध्यम वर्ग‘ के अंतर्विरोध और राष्ट्रीयता, स्वराज और समाजवाद की परस्पर निर्भरता की समस्याओं की चर्चा थी. उस समय भारतीय समाज में परिवर्तन का दबाव बढ़ रहा था और आन्दोलनों के पहले का सन्नाटा पसर रहा था. इसलिए अगले दो दिन तक साही जी के बयान के इर्द गिर्द काफी आतिशबाजी हुई. बाद में इस संवाद में पढ़े गए अधिकाँश निबंध धर्मयुग (मुंबई) और क ख ग (इलाहाबाद) में छपे और बहस ने अखिल भारतीय आकार लिया।
इसी तरह १९७९ में साही जी समाजवादी युवजनों के अनुरोध पर बनारस आये. जनता पार्टी की सरकार बिखर रही थी और समाजवादी भी नरेन्द्रदेव, लोहिया और जयप्रकाश के बाद चौधरी चरण सिंह जैसे नायक की छतरी के नीचे जैसे–तैसे दिन काट रहे थे. हमलोगों के लिए सैद्धांतिक आत्ममंथन के लिए वैचारिक खुराक की जरूरत थी. सारनाथ में युवजन शिविर का आयोजन करना तय हुआ. तैयारी समिति की तरफ से हम उद्घाटन के लिए जनेश्वर जी को बुलाने इलाहाबाद गए. लेकिन उन्होंने समझाया कि हम सभी सत्ता की आंधी में से निकले हैं और मटमैले हो गए हैं. आज प्रो. विजयदेव नारायण साही जैसे सिद्ध साधकों को सुनना चाहिए. तुमलोग जाओ और हम तुम्हारी तय तारीख पर साही जी को लेकर आयेंगे।
साही जी ने सारनाथ के युवजन शिविर में ‘परिवर्तन की राजनीति में युवजनों की भूमिका‘ पर हमें सम्बोध किया. लगभग ९० मिनट तक सभी मंत्रमुग्ध सुनते रहे. पूरा शिविर उनकी कक्षा में बदल गया था. उन्होंने समाजवादी की राजनीति की प्रासंगिकता से शुरू किया और संसदवाद की सीमाओं को सामने रखते हुए युवजनों को छोटे सपनों की बजाए बड़े संकल्पों के लिए आगे आने का आवाहन किया. उन्होंने याद दिलाया कि एक समय में देश के लिए स्वराज ही सबसे बड़ा सपना था. अब स्वराज हासिल हो चुका है और व्यवस्था में अपनी जगह बनाना राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जरुरी लगता है. फिर नर–नारी समता, जाति–निर्मूलन, हिन्दू – मुस्लिम सद्भाव और भाषा स्वराज के लिए कौन जुटेगा? और किसान और गाँव की सम्पन्नता और १८ बरस की उम्र वाले सभी युवजनों के लिए मुफ्त शिक्षा या रोजगार के अधिकार के लिए कौन लडेगा ?
बिना बड़े सपनों के कोई कमजोर समाज उठ नहीं सकता. जैसे कमजोर शरीर में कई रोग घर बना लेते वैसे ही भारत की आज़ादी अभी बहुत कमजोर है और इसे स्वस्थ बनाना राजनीति को सिद्धांतनिष्ठ बनाने और समाजसेवा के भाव से लैस करने से ही सम्भव होगा. पूरे भाषण में नेताओं की कुर्सी के लिए आपसी लड़ाई, जाति और साम्प्रदायिकता से जुडी गोलबंदी, या समाजवादियो के बिखराव की कोई चर्चा नहीं थी. बड़े नामों और बड़ी किताबों का जिक्र नहीं था. साही जी का भाषण एक किताबी बुद्धिजीवी के आत्म–विलाप की जगह एक सरोकारी और सक्रिय सेनापति से आत्मबोध का निमंत्रण था. उद्घाटन सत्र के बाद साही जी ने सहभोज में हिस्सा लिया और हम एक अविस्मर्णीय उद्बोधन से प्रफुल्लित हुए।
आइए! साही जी के शताब्दी वर्ष के इस अनुस्मरण का समापन उनकी एक बहुचर्चित और बार–बार पढने लायक एक कविता के पाठ से किया जाए, क्योंकि यह रचना हर सरोकारी और सक्रिय बुद्धिजीवी के लिए धुंध में प्रकाश पुंज जैसी है:
प्रार्थना गुरु कबीरदास के लिए
परमगुरु दो तो ऐसी निडरता दो कि अंतहीन सहानुभूति की बानी बोल सकूँ और यह अंतहीन सहानुभूति पाखण्ड न लगे दो तो ऐसा कलेजा दो कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख की गांठों में मरोड़े हुए उन लोगों का माथा सहला सकूँ और इस का डर न लगे फिर कोई हाथ ही काट खायेगा दो तो ऐसी निरीहता दो कि इस दहाड़ते आतंक के बीच फटकार कर सच बोल सकूँ और इस की चिंता न हो इस बहुमुखी युद्ध में मेरे सच का इस्तेमाल कौन अपने पक्ष में करेगा इतना भी न दो तो इतना ही दो कि बिना मरे चुप रह सकूँ।