लोकतंत्र में नागरिकों की भीड़ को कई बार वोट बैंक में तब्दील करने की कोशिश को ही लोकतंत्र का सच्चा मायने लोग समझते हैं। लोहिया को भी इसी तरह बहुत से अनुयायियों की भी इसी तरह के तंत्र में जरूरत थी।उनमें सत्ताविमुखता नहीं थी लेकिन सत्तापरकता की वाचाल चाहत भी नहीं थी। वह सत्तापरस्ती को नागरिक जनशक्ति की आवाज के सामने संयत कर देने की भी जुगत बिठाते रहते थे। लोहिया की रणनीति तो वैसे ठीक ही थी। उन्होंने अपनी बिसात भी ठीक से बिछाई थी। उनके जो दावेदार थे या उनकेे जो प्रयोग या व्यावहारिक कदम थे, वे ठीक से उठा नहीं पाते थे। उनकी रणनीति में इसे एक तरह की कमी या खोट के रूप में समझा जा सकता है। धीरे-धीरे उनमें जम्हूरियत को समझकर विकसित करने के नैतिक अहंकार या आत्मसम्मान पर चोट के कारण भी कांग्रेस का विकल्प मुखर हो रहा था। उन्हें देखकर लगता था राजनीति का कोई विज्ञानवेत्ता अपनी ही थ्योरी का प्रैक्टिकल किसी प्रयोगशाला में बैठकर कर रहा है। उस प्रयोगशाला का नाम हिंदुस्तान है।
मसलन एक ओर गांधी ने खादी, दांडी मार्च, चरखा और चंपारण सत्याग्रह वगैरह की युक्तियों की वजह से अपने आपको योद्धा संत राजनीतिज्ञ की श्रेणी में ऊध्र्व गति से लाकर खड़ा कर दिया था। उसके बरस लोहिया ब्रिटिश मूर्तियों को तोड़ो या अंगरेजी हटाओ या दाम बांधो में तरह तरह के कई राजनीतिक नारों को देते स्थायित्व हासिल नहीं कर पाए। लोगों को उनके आह्वान में भी कुछ न कुछ शगल, मनोरंजन या विध्वंस भी नजर आता रहा। फिर भी लोहिया पढ़े लिखे शीर्ष राजनीतिज्ञ से कहीं ऊपर मौलिकता के मनुष्य प्रतिष्ठान की तरह थे। उनसे मिलने से अखबारों को अगले दिन की सुबह के लिए हेडलाइन मिल जाती थी, क्योंकि लोहिया हर बार अनोखा, नया, अप्रत्याशित और मौलिक कह सकने की रणनीति बनाने की रचना की क्षमता और विश्वास रखते थे। उनकी असफलता का एक कारण और भी था।
भारत जैसे बड़े देश में ढीले ढाले लोकतंत्र में मायूस और पस्तहिम्मत फितरत के लोगों का बहुमत है। वहां मौखिक रूप से अहिंसक कहलाती क्रांति को लोहिया कुछ ऐसे उग्र तरीकों से लाना चाहते थे जो ऊपरी तौर पर लोगों को हिंसक दिखाई देते थे। छात्रों को सीधी मुठभेड़ के लिए कहना, चुनाव के समय शक्ति प्रदर्शन करना और कई मुद्दों पर पिकेटिंग करना वगैरह झटपट गतिविधियों, हरकतों या लाक्षणिकताओं के चलते लोहिया कोई सुव्यवस्थित तरीके या ऑर्गेनिक विकास के जरिए परिणामयुक्त रणनीति का प्रदर्शन नहीं कर सके। अपने जीवनकाल में पूरे विपक्षी दलों में लोहिया ही सबसे मुख्य और आकर्षक चेहरा थे जिनसे भविष्य के इतिहास को उम्मीदें बंधती थीं।
लोहिया लोकप्रचारित समझ के अर्थ में धार्मिक नहीं थे। खुद को नास्तिक घोषित करते, हालांकि व्यापक इन्सानी संवेदनशीलता के आधार पर सच्चे अर्थों में साधु पुरुष थे। सामाजिक जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि में रहकर भी लेकिन एकान्तिकता या एकाकीपन लोहिया की नियति बन गया था। उन्हें दरिद्रनारायण की पीड़ा से बेसाख्ता मोहब्बत और सरोकार था। अपनी सारी विनोदप्रियता के बावजूद लोहिया का जीवन संवेदना से सराबोर रहा। मजबूत कूटनीतिक व्यूहरचना के बावजूद लोहिया हथकंडों की राजनीति कारगर नहीं कर पाये। अपनी असफलताओं के बावजूद वे संभावनाओं के जननायक रहे हैं। यदि और जीते रहते तो परिस्थितियों के बदलाव ने उनके लिए इतिहास में बेहतर जगह मुकर्रर की होती। उसका आभास लोकसभा में उनके प्रवेश से हो चला था।
आखिरी दिनों में वे उपेक्षित और अनुद्घाटित सवालों के अनाथालय बन जाने से मजाक या चुटकुले का पर्याय नहीं समझे गये। अपने ‘क्राॅनिक‘ कुंवारेपन से उपजे तीखेपन के बावजूद लोहिया गंभीरता से कुबूल हो चले थे। मरणासन्न और मरणोत्तर लोहिया में ही भारत की पीढ़ियां अपना भविष्य धुंधलाता देख सकीं। यही देश का दुर्भाग्य हुआ।