— रमाशंकर सिंह —
भारतीय सभ्यता के प्राथमिक वैदिक काल में जब तक ईश्वर या अवतार की कल्पना नहीं पैठी थी , क्या हम सहिष्णु/ असहिष्णु थे? इस पर गंभीरता से विचार व अध्ययन ज़रूरी है! भारत में ही सनातन धर्म की जन्मना जाति प्रथा के विकास के साथ ही अपने ही लोगों के प्रति यथा शूद्रों व स्त्रियों के लिये कभी भी संवेदनशील व सहिष्णु नहीं रही थी ? भारत की बहुसंख्य आबादी शूद्रों के लिये मनु के विधान व नियम हद दर्जे की असहिष्णुता, जिसे अमानवीय कहना ज़्यादा उचित होगा, दिखाते और व्यवहार करते रहे थे / हैं।
बौद्ध धर्म जब भारत में फैला तो क्या अन्य धर्मों व धर्मावलंबियों के लिये सहिष्णु / असहिष्णु रहा ? इस विषय पर कितने प्रामाणिक अध्ययन हैं? जानकार बतायें!
जब जैन धर्म फैला तब उसकी बुनियाद में ही ऐसे जीवन सिद्धांत थे कि वे संभवतः हिंसा, असहिष्णुता नहीं कर सकते थे या कि कहीं भी सत्ता पोषित जैन धर्म ने वैसा करने का प्रयास किया?
कालांतर में बौद्ध और जैन धर्म के मंदिरों और मूर्तियों तक को सनातनधर्मियों ने शंकराचार्य के प्रभाव में आकर चुन चुनकर ध्वस्त कर दिया ! शंकराचार्य के विचार या पुरोहितों के अमानवीय आदेशों व जाति प्रथा के व्यवहार ने रंगून से वियतनाम तक फैल रहा सनातन धर्म जल्दी ही ख़त्म कर दिया और सब बौद्ध बन गये। क्या तब सनातन धर्मी मंदिर बने व टिके रहे जब तक कि अमेरिकी बम वर्षक जहाज़ों ने दक्षिण पूर्वी एशिया के मंदिर समूहों पर ख़ास तौर कम्पूचिया वियतनाम में नापाम बम गिराकर बर्बाद नहीं कर दिये? विश्व का सबसे बडा अंगकोर वाट मंदिर भी इसी बमबारी में तबाह कर दिया गया। यह कथित रूप से लोकतांत्रिक देश अमेरिका की सहिष्णुता है जो आज तक इसी रूप में विद्यमान है – युद्ध पिपासु देश । चाहे रिपब्लिकन आयें या डेमोक्रेट अकारण युद्ध व नरसंहार के बगैर उनका काम नहीं चलता !
बाहरी मुस्लिम आक्रमणकारी जब भारत में जीतकर राज करने लगे तो मौजूदा संस्कृति धर्म पूजा पद्धति सब पर हमला अवश्यंभावी हुआ और बड़े पैमाने पर सत्ता के दवाब में धर्मांतरण शुरु हुआ। मंदिरों महलों किलों व सार्वजनिक स्थानों की मूर्तियों को तोड़ दिया गया। यह सनातन, बौद्ध व जैन धर्म पर समान रूप से हुआ। यह भी पूर्व के कालखंडों की भाँति घनघोर कट्टर अमानवीय असहिष्णुता का प्रदर्शन था !
यही व्यवहार गोवा कोंकण में पॉंच सदी पहले पुर्तगाली हमलावरों ने स्थानीय हिंदू और मुसलमान प्रजा पर किया और मस्जिदों मंदिरों को नष्ट कर चर्च बनाने शुरु कर दिये , धर्मांतरण हुआ !
मुगल राज में ही कुछ ऐसे छोटे कालखंड आये जब सहिष्णुता पनपनी शुरु हुई। भक्तिकाल और सूफ़ी संस्कृति की कुछ सदियों के समय में गुरु नानक , गोरखनाथ, कबीर , रैदास, मीरा, बुल्लेशाह , निजामुद्दीन औलिया एवं अन्य प्रभावशील संतों सूफ़ियों के प्रभाव में सहिष्णुता की सोच व संस्कृति पनपी लेकिन बहुत बडे पैमाने पर विकसित नहीं हो पायी कि सत्ता का असहिष्णु रूप नहीं बदल सका।
अंग्रेजों के साथ पादरी व धर्मांतरण भी आया । अंग्रेजों का बाह्य घोषित रूप समावेशी , उदार , समानता व सभ्य व्यवहार का था पर अंदरूनी रूप से स्वयं की श्रेष्ठता के अंहकार से लबालब था। भारत को ग़ुलाम बना कर लूट कर धनसंपत्ति अपने देश इंग्लैंड को समृद्ध करते रहे। इतिहास दृष्टांतों से भरा पड़ा है कि अंग्रेज किस हद दर्जे के शोषक , अमानवीय और असहिष्णु रहे।
महात्मा गांधी ने अपने पूरे जीवन भर आज़ादी की लक्ष्य प्राप्ति को अंतरधार्मिक उदारता व सहिष्णुता से जोड़कर काम किया लेकिन संघर्ष ही करते रहे । कहीं भी सहिष्णुता का गांधी विचार मॉडल मजबूत जड़ें नहीं पकड़ पाया सिवाय कुछ अलग थलग पड़े एकाकी आश्रमों के। महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनके अधिकॉंश अनुयायी तत्कालीन सत्ता के वित्तपोषित जीवन शैली के अनुगामी हो गये और सिर्फ़ अपने परिसरों में “ अल्लाह ईश्वर तेरो नाम “ गाते रहे।
आज़ादी के बाद सहिष्णुता का राजनीतिक चुनावी उपयोग शुरु हुआ जिसकी बुनियाद में ही कमजोरी आ गई और जब जैसी राजनीतिक ज़रूरत समझी गयी वैसी चुनिंदा असहिष्णुता देखने को मिलती रही। कभी मुसलमानों के खिलाफ और कभी सिखों के ! मुस्लिम बहुल कश्मीर में हिंदू पंडितों ने यह असहिष्णुता झेली। यहॉं यह भी भूलना नहीं चाहिये जब कश्मीरी पंडित वहॉं अपने राजनीतिक धार्मिक उत्कर्ष पर रहे तब बहुसंख्य मुसलमानों से अछूत वाला बर्ताव करते रहे थे।
जब जब धर्म व सत्ता का गठजोड़ मज़बूत रहता था / है , असहिष्णुता अपने सबसे बदसूरत रूप में सामने आती है !
विश्व मे रंगभेद , नस्लभेद, लिंगभेद, पूजापद्धति पर भेद , धन व संपत्ति के आधार पर भेदभाव आदि तमाम असहिष्णु तत्व अभी मिटे नही है तो सहिष्णुता कैसे आ सकती है ? एक तरह की असहिष्णुता जाती है तो दूसरी तरह की पनपने लगती है।
मानवीय सभ्यता का इतिहास ही भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में असहिष्णुता , कट्टरता, धर्मांन्धताजन्य अन्याय, अत्याचारों व युद्धों का रहा है। जब तक दुनिया में कट्टर धर्म या कोई विभाजक तत्व रहेंगे सहिष्णुता कैसे पनप सकती है। एक दिन के लिये सहिष्णुता दिवस बनाना मज़ाक़ भर है।