कैसे आ गयी इतनी बेख़बरी

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Dhruv Shukla

— ध्रुव शुक्ल —

किसी के देखने को
क्यों अपना मान लेते हो
ख़ुद क्यों नहीं देख लेते
सबके लिए खुला है आसमान

क्यों मान लेते हो
किसी के कहे को अपना कहा
ख़ुद क्यों नहीं कहते
सबके लिए मिली है जुबान

क्या किसी के कहने से
निकलता है चांद
क्या किसी के कहने से
उगता है सूरज
क्या नहीं दिखती किसी को
सबके करीब आती रौशनी

क्यों इंतज़ार करते हो
कोई कहे तब मानोगे
कोई राह दिखाये
तब ही चल सकोगे
सबके लिए फैला है संसार

मुक्तिधाम का पता बताने वाले
पापों की मुआफी़ करवाने वाले
जन्नत का नक्शा दिखाने वाले
ज़िन्दगी का सौदा पटाने वाले
कैसे आ गये इतने बिचौलिए
सबके जीवन में

कैसे आ गयी इतनी बेख़बरी
किसी को क्यों नहीं रही अपनी ख़बर


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