— विनोद कोचर —
(टिप्पणीकार और संकलक: मधु लिमये)
बकौल मधुलिमये,”..गांधी-इरविन करार के बाद गांधीजी, इंग्लैंड में हुए1931के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में राष्ट्रीय सभा के अकेले प्रतिनिधि के नाते उपस्थित थे।नए संवैधानिक सुधार के ढांचे पर उन्होंने अपने विचार अत्यंत निर्भयतापूर्वक व्यक्त किए।गांधीजी संघ राज्यीय ढांचा(फेडरल स्ट्रक्चर)कमेटी के भी सदस्य थे।हिन्दवी संघ राज्य के संघ राज्यीय (फेडरल) या सर्वोच्च अदालत (सुप्रीमकोर्ट) के स्वरूप के बारे में उन्होंने अपने जो विचार इस कमेटी के सामने रखे, उसका यह महत्वपूर्ण अंश है-
‘…..मेरे लिए संघ राज्यीय न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय है जिसके परे किसी भी किस्म की कोई अपील नहीं हो सकती।
यही मेरी प्रिविकाउंसिल(इस इंग्लिश संस्था की ज्यूडिशियल कमेटी के सामने,आजादी के पहले ब्रिटिश साम्राज्य की अंतिम अपील होती थी)है और यही स्वतंत्रता का आधारस्तम्भ भी है।यह वो अदालत है जहाँ हर अन्यायग्रस्त व्यक्ति, न्याय पाने के लिए जा सकता है।जब मैं कम उम्र का था और इस क्षेत्र में नया नया था तब ट्रांसवाल के एक बहुत बड़े विधिवेत्ता के पास–और ट्रांसवाल तथा दक्षिण अफ्रीका में साधारणतः निस्संदेह बड़े बड़े विधिवेत्ता हो गए हैं–मदद हासिल करने के लिए जाया करता था।एकबार एक बहुत कठिन मुक़दमे के सिलसिले में उन्होंने मुझसे कहा,”हालाँकि तत्काल कोई उम्मीद न हो लेकिन मैं आपको ये बताता हूँ कि यह एक बात हमेशा मेरी पथ प्रदर्शक रही है जिसके बिना शायद मैं वकील नहीं बन सकता था, और वो ये कि हम वकीलों को कानून ये सिखाता है कि ऐसा कोई भी अन्याय नहीं है जिसका हल न्यायलय में नहीं खोजा जा सकता हो, और अगर न्यायाधीश ये कहते हों कि कोई रास्ता नहीं है तो ऐसे न्यायाधीशों को तुरंत हटा देना चाहिए।लार्ड चांसलर साहब, पूरे अदब के साथ मैं आपसे यह बात कह रहा हूँ।”
(संपूर्ण गांधी वाङ्गमय, पेज323-24,खंड48)