— अरुण कुमार त्रिपाठी —
भारतीय संविधान की हीरक जयंती पर संसद में चली चर्चा ने बहुत निराश किया। यह कल्पना करके सिहरन होती है कि अगर इस संसद को संविधान बनाना होता तो वह कैसा बनता। अगर हम संविधान सभा की बहसों के सामने आज की बहसों को रखकर देखें तो मौजूदा बहस चुनावी लगती है और बचकानी भी। उसमें वे दार्शनिक तत्व नदारद हैं जो सीएडी यानी संविधान सभा की बहसों में शिखर छूने वाले थे। संविधान सभा में विभाजन के कारण पैदा हुई तल्खी के बावजूद समय समय पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने राजनीतिक सिद्धांतों की जो व्याख्याएं कीं या डा भीमराव आंबेडकर ने दुनिया भर के संविधानों के माध्यम से संविधानवाद का जो दार्शनिक पक्ष रखा उसे मौजूदा बहस में छुआ भी नहीं जा सका।
मद्रास(आज का चेन्नई) के प्रसिद्ध वकील दीवान बहादुर सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर का हस्तक्षेप, केटी शाह की व्याख्याएं, मौलाना हसरत मोहानी के सवाल और मौलिक अधिकारों की कमेटी में सरदार पटेल की अल्पसंख्यकों के प्रति दर्शाई गई उदारता, मानवीय गरिमा को देश की एकता अखंडता से आगे रखने का केएम मुंशी का आग्रह, हिंदी के प्रति पुरुषोत्तम दास टंडन का दृढ़ रवैया और चुनाव आयोग की स्वायत्तता के लिए सिब्बन लाल सक्सेना का सुझाव यह सब हमारी संविधान सभा के वे क्षण हैं जो भारत के दार्शनिक इतिहास की गंभीर बहसों की विरासत को आगे बढ़ाते हैं।
कई बार तो लगता है कि वे दैवीय प्रतिभाएं थीं जो औपनिवेशिक दासता से क्षतविक्षत इस देश का नए सिरे से निर्माण करने के लिए स्वर्ग के उतर आई थीं और हमें एक ऐसी किताब देकर चली गईं, जिसके आधार पर हम दो तिहाई सदी तक एकजुट रह पाए। अगर इस संसद में हुई संविधान पर बहस के समक्ष श्याम बेनेगल द्वारा बनाए गए धारावाहिक संविधान को रखकर देखें तो मौजूदा संसद को शरम भी आएगी और हम भारत के लोगों की चिंताएं बढ़ जाएंगी।
चिंताएं इसलिए बढ़ जाएंगी कि आज संविधान को चलाने वाले लोगों के पास ज्ञान और नैतिकता का वह स्तर नहीं है जिसकी अपेक्षा संविधान करता है। मौजूदा बहस में सबसे बड़ी दिक्कत यह हुई है कि वह अक्सर आरोपों प्रत्यारोपों में फंस कर रह गई है। जब बहस विचारों पर करनी होती तो वह व्यक्तियों पर बहस करने लगती थी और जब इतिहास पर बहस करनी होती थी तो वह मिथकों को आगे कर देती थी। बड़ी दिक्कत तब हुई जब संविधान पर सावरकर के विचार को लेकर बहस हुई। दरअसल हमारे राजनेताओं के पास वह विवेक और कौशल ही नहीं है कि वे विचार और व्यक्ति को अलग कर सकें या किसी व्यक्ति के जीवन के उत्तरार्ध और पूर्वार्ध को अलग कर सकें। सावरकर के जीवन का पूर्वार्ध बलिदानी है लेकिन उनके जीवन का उत्तरार्ध समझौता परक और एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए किसी काम का नहीं है।
वास्तव में सावरकर धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाले समतामूलक नागरिकता के विरोधी हैं। राहुल गांधी ने संविधान के बारे में उनके विचारों को उद्धृत करके सही काम ही किया। वास्तव में सावरकर हिंदू राष्ट्र चाहते थे और उनके हिंदू राष्ट्र के लिए मनुस्मृति एक संवैधानिक ग्रंथ की तरह से काम करने वाली किताब थी। सावरकर की हिंदुत्व की विचारधारा मौजूदा संविधान के एकदम विपरीत है। वे मानते थे हिंदुत्व एक धर्म नहीं एक विचारधारा है जिसके अनुसार इस देश का भरोसेमंद नागरिक वही हो सकता है जिसके लिए भारत न सिर्फ पितृभू हो बल्कि पुण्यभू भी हो।
यानी जिसके लिए भारत न सिर्फ पुरखों की भूमि है बल्कि वह उनके धर्मों की उद्गम स्थली भी है। ऐसे में इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले लोग भारत के वास्तविक नागरिक नहीं हो सकते। जबकि हमारा संविधान टेरेटोरियल नेशनलिटी को मानता है। यानी इस भूभाग पर जो भी रह रहा है वह बिना धर्म, भाषा और जाति के भेदभाव के इस देश का नागरिक हो सकता है। उनके हिंदू राष्ट्र के इसी विचार के प्रति डॉ आंबेडकर ने भी आगाह किया था और कहा था कि वह भारत के लिए बहुत बुरा दिन होगा जिस दिन यह हिंदू राष्ट्र बनेगा।
नागरिकता की यह अवधारणा भारत की महान समन्वयवादी परंपरा की विरासत है। महात्मा गांधी इसकी व्याख्या करते हुए कहते थे भारत के ज्यादातर मुसलमान और ईसाई तो पहले हिंदू ही थे। वे धर्म परिवर्तन करके दूसरे धर्मों में गए हैं। लेकिन इससे वे यहां की नागरिकता से वंचित नहीं हो जाते। वे उदाहरण देकर कहते थे कि जिस तरह मेरा बेटा हरिलाल मुसलमान हो गया तो क्या वह भारत का नागरिक नहीं रहेगा? उनका उत्तर होता था कि वह नागरिक तो यहीं का रहेगा भले ही उसने दूसरा धर्म ग्रहण कर लिया है।
इसी आधार पर कहा जा सकता है कि वास्तव में इस देश में न तो मुसलमान जाति व्यवस्था से परे हैं और न ही ईसाई। उन्होंने भले ही धर्म बदल लिया हो। इसी आधार पर दलित बौद्धों को बाद में आरक्षण का लाभ मिलना शुरू हुआ जो कि आंबेडकर द्वारा धर्म परिवर्तन के बाद छिन गया था। दलित मुस्लिम और दलित ईसाई आज भी उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं।
इंडिया गठबंधन अगर जाति जनगणना की मांग कर रहा है तो वह पिछले दरवाजे से ईसाइयों और मुसलमानों को आरक्षण देकर देश को विभाजित करने के लिए नहीं कर रहा है। वह वास्तव में भारत की जाति व्यवस्था को बदलने की एक व्यापक योजना के तहत ऐसा कर रहा है।
जो लोग भारत की जाति व्यवस्था के अस्तित्व को पहले नकारते हैं फिर उनका वोट के लिए इस्तेमाल करते हैं वे 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए गए डॉ भीमराव आंबेडकर के उस भाषण को भूल जाते हैं जिसमें उन्होंने न सिर्फ सामाजिक और आर्थिक बराबरी के माध्यम से सामाजिक न्याय के लिए चिंता जताई थी बल्कि यह भी कहा था कि भारत की गुलामी की वजह उसकी जाति व्यवस्था रही है। उन्होंने इतिहास के तमाम हमलों का जिक्र करते हुए यह आशंका प्रकट की थी कि क्या भारत फिर से गुलाम हो सकता है। अगर भारत में जातिगत विभेद कायम रहा तो ऐसा होने की आशंका है। क्योंकि अतीत में इसी व्यवस्था ने भारत को कमजोर किया था। इसलिए भारत की एकता और अखंडता के लिए जो चीज जरूरी है वह है जाति विभेद का समूल नाश।
वास्तव में व्यक्तियों पर आरोप लगाने या उनकी प्रशंसा में अपनी बात को केंद्रित करने से विचार पीछे छूट जाते हैं। संविधान के बहाने व्यक्तियों को आगे करने की राजनीति इन्हीं सीमाओं में कैद हो जाती है। इस कैद से निकल कर द्रमुक के नेता ए.राजा ने जो बात कही वह संविधान के छह बुनियादी तत्वों को स्पष्ट करती है। उनका कहना था कि भाजपा सरकार ने जिन छह तत्वों को नष्ट किया है वे हैं—लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, कानून का राज, समता, संघवाद और न्यायिक स्वायत्तता।
हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में संविधान के मूल चरित्र की हिफाजत को मुद्दा बनाकर विपक्षी दलों ने अच्छा काम किया और उसी का परिणाम है कि संविधान पर निरंतर एक दूसरे को राजनीतिक दल घेरने लगे हैं। लेकिन यह बहस दूर तक जानी चाहिए। केवल किताब लहराने और इतिहास पुरुषों के प्रतीकवाद पर बहस करने से काम नहीं चलने वाला है। संविधान का एक मूल उद्देश्य है सामाजिक क्रांति। उसके लिए समता और स्वतंत्रता के दर्शन को आगे रखना होगा लेकिन ध्यान रहे कि बंधुता को भूलना उचित नहीं है। अगर पूंजीवादी अमेरिका ने स्वतंत्रता पर बहुत ज्यादा जोर देकर समता को तिलांजलि दे दी तो साम्यवादी देशों ने समता पर बहुत अधिक जोर देकर स्वतंत्रता को दफन कर दिया। कहने के लिए दोनों में राष्ट्रीय बंधुता है लेकिन वह स्वाभाविक नहीं है। भारत के पास अवसर है कि वह स्वाभाविक बंधुता के साथ लोकतंत्र के उच्च लक्ष्यों को हासिल करे। यह काम अगर राजनीतिक दलों के स्वार्थ के कारण नहीं हो पा रहा है तो हम भारत के लोगों को करना होगा। क्योंकि संविधान में सर्वोपरि तो वही है।