मेरे लिए एक कदम काफी है – राममनोहर लोहिया

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साधन अल्पकालीन साध्य है और साध्य दीर्घकालीन साधन। लक्ष्य की पूर्ति के साधन लिए जो भी तरीके अपनाएँ जाएँ वे दूरगामी रूप में साध्य बन जाते हैं। । लक्ष्य जो भी हो, उसकी प्राप्ति के लिए अगर विवेक से काम लिया जाए तो साधन में लक्ष्य की आंशिक पूर्ति होती है। यह संभव नहीं कि झूठ से सत्य की विजय हो, राष्ट्रीय स्वतंत्रता के हनन से एक विश्व बने या तानाशाही द्वारा लोकतंत्र स्थापित हो। यह बहुत ही साफ है, क्योंकि साधन अल्पकालीन रूप में लक्ष्य है। अभी किया जानेवाला काम आगे प्राप्त होनेवाले लक्ष्य में जुड़ जाता है। इस बात को साबित करने के लिए किसी खास तर्क की जरूरत नहीं।

साधन और साध्य एकदूसरे से इस तरह गुंथे हुए हैं कि विरोधी बातें (लक्ष्य से मेल न खानेवाली) विरोधी ही रहती हैं। उनमें मेल नहीं बैठाया जा सकता। इसीलिए गांधीजी अकसर कहा करते थे– “मेरे लिए एक कदम काफी है।वाला सिद्धांत साधन और साध्य के सिद्धांत से जुड़ा हुआ है और शायद उससे बड़ा भी है। आज दुनिया में भविष्य और उसके लक्ष्यों के बारे में सोचने की प्रकृति इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि वर्तमान की बलि चढ़ा दी जाती है। जो कदम उठाया जा रहा है, उस पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। इससे एक प्रकार की रहस्यात्मकता चल पड़ी है। हम जब किसी खास और तात्कालिक कार्य के बारे में पूछते हैं कि यह लक्ष्य से किस प्रकार जुड़ा हुआ है तो उत्तर दिया जाता हैअगले

कदम की प्रतीक्षा करो।अगले कदम तक प्रतीक्षा करने पर भी उत्तर नहीं मिलता तो फिर कहा जाता हैअभी और अगले कदम की प्रतीक्षा करो।कदमों की श्रृंखला बढ़ती ही जाती है।

औचित्य हमेशा बाद के कदम में बताया जाता है, जो कभी उठता ही नहीं, बस श्रृंखला बढ़ती जाती है और सत्य तथा विश्व शांति के नाम एक बदमाशी पलती और बढ़ती है।एक कदम मेरे लिए काफी हैका सबक दुनिया जिस हद तक भूल गई है उस हद तक उसने अविवेक, गुप्त और दुष्ट ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हर कदम का औचित्य उसमें ही खोजनेवाले अर्थात् तात्कालिक औचित्य के (थियोरी ऑफ इमिडिएसी) सिद्धांत के समर्थक अपने आगे के लक्ष्य के प्रति जागरूक न हों। अभी और वर्तमान में उठाया गया कदम दूर दीखनेवाले लक्ष्य से जुड़ा हुआ है। लेकिन उसे एक गुजरनेवाला क्षणिक चरण नहीं मानना चाहिए, जिसकी ओर ध्यान देना जरूरी नहीं माना जाए।

इस बात का खतरा है कि जो लोग प्रत्यक्षानुभूति या तात्कालिक औचित्य का सिद्धांत मानते हैं, वे लक्ष्य को अपनी दृष्टि से ओझल कर दें। ऐसा करना उतना ही खतरनाक होगा जितना कि तात्कालिक कार्य की पूर्ण अवहेलना करना। कभीकभी जब मैंने गांधीजी के बारे में सोचने की कोशिश की है तो मेरे मानस पटल पर वे एक चित्र से उभरे हैंऊपर जाती हुई सीढ़ियाँ, जो एक निश्चित दिशा में बढ़ती जाती हैं। लेकिन जिनके ऊपर अभी पूरी तरह से कोई चीज नहीं बनी हैऔर एक आदमी चौक स किंतु मजबूत कदमों से इन पर चलता जाता है और अपने साथ अपने करोड़ों देशवासियों को मार्ग दिखाता जाता हैमेरे लिए एक कदम काफी है।

ऐसे दल और सिद्धांत हैं, जिनका आखिरी मंजिल के बारे में पूर्ण गठित विचार है। ये शायद अविलंब उठाए जानेवाले कदमों को अपने लक्ष्य से जोड़ने के मामले में ज्यादा अनुकूल स्थिति में हैं। ये दल और सिद्धांत कभी लक्ष्य की ओर अपने कदम इतनी तेजी से उठाते हैं कि उनके लाखोंकरोड़ों अनुयायी उनका साथ दे पाने में असमर्थ रहते हैं। पर यहाँ एक ऐसा सिद्धांत है कि जिसमें एक कदम से दूसरा कदम इस तरह बढ़ता है कि केवल एक महान् व्यक्ति ही नहीं, उसके साथ करोड़ों लोग एक निश्चित दिशा की ओर जाने वाली अंतहीन सीढ़ियों पर चलते रहते हैं। जब कभी मैंने महात्मा गांधी के बारे में सोचा है तो यही चित्र मेरे दिमाग में बना है। पर सभी चित्रों की तरह इसको भी एक पूर्ण और पर्याप्त चित्र के रूप में ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि शायद ऐसे भी कई अवसर आए हैं जब गांधीजी ने जो किया, उससे अलग कुछ उन्हें करना चाहिए था। तात्कालिक औचित्य के सिद्धांत के साथ साधन और साध्य (लक्ष्य) के इस सिद्धांत ने आधुनिक मनुष्य को एक बेमिसाल ताकत का शस्त्र प्रदान किया है। इस अस्त्र का दुनिया में प्रयोग बढ़ता ही जाता रहा है। अगर हमारे देश में इसका क्षणिक अस्त हुआ लगता है तो इस बात को याद रखना चाहिए कि एक महान् व्यक्ति के विचार और शिक्षाओं के बारे में उसकी मृत्यु के तत्काल बाद तीन या चार वर्ष की घटनाओं से निर्णय नहीं करना चाहिए, वरन् इस बात से करना चाहिए कि बाकी की शताब्दी में और उसके बाद क्या हो सकता है?

हमारे राजनीतिक और सामूहिक जीवन में इस शस्त्र के प्रयोग के पहले दुनिया ने केवल दो ही और तरीके जाने थेसंसदीय और विप्लवकारी। एक जमाने में फ्रेडरिक गोल्स ने कहा था कि इतिहास जनता बनाती है और संसदों की उपलब्धि बहुत ज्यादा सार्थक नहीं हो सकती। एंगेल्स ने सोचा कि अंततः जनता को सत्ता का परिवर्तन करने के लिए मोरचाबंदी करनी पड़ेगी। जरमन संसद् के अनुभवों और लासेले की सोशल डेमोक्रेट पार्टी की सफलताओं के पश्चात् एंगेल्स ने अपनी राय बदली और सोचा कि संसदीय तरीके पर्याप्त हो सकते हैं और क्रांतिकारियों के लिए यह उचित होगा कि वे संसद् को परिवर्तन के एक माध्यम के रूप में देखें, यूरोपीय दिमाग इन दो विकल्पों के आगे सोचने में तब तक असमर्थ रहा जब तक गांधीजी नहीं आए और उन्होंने तीसरा मार्ग नहीं दिखाया।

मैं मानता हूँ कि यह जरूरी नहीं है कि संसद् हमेशा परिवर्तन का संतोषजनक माध्यम साबित हो, यह जरूरी नहीं और मैं एंगेल्स की यह प्रतिक्रियावादी राय मानने को तैयार नहीं कि संसद् क्रांति लाने में सक्षम है। खास तौर पर यह देखने से कि आधुनिक दुनिया का दो तिहाई हिस्सा गरीबी और दुर्दशा में जकड़ा हुआ है, संसदीय तरीके अकसर अपर्याप्त ही रहेंगे। भारत तथा उसके जैसे देशों में बेकारी, छंटनी, भुखमरी और अकाल से होने वाली मौतों से यही लगता है कि केवल संसदीय तरीकों पर ही निर्भर रहना अंततः संसद्को भी समाप्त करना होगा।अगर जनता यह विश्वास करने लगे कि राजनीति सिर्फ संसद्पर ही निर्भर है तो वह ऐसे पागल राजनीतिक दलों की ओर दौड़ती हुई भागेगी जो उसे कोई दूसरा रास्ता दिखाएँ।अगर यह सुझाया जाता है कि विधानसभाओं और संसद् में पास किए गए कानूनों से ही सब प्रकार की शिकायतें और मुसीबतें चाहे बढ़ती हुई महँगाई हो या भुखमरी, दूर हो जाएँगी और एकमात्र इलाज पाँच साल में होनेवाला चुनाव है तो अधिकांश जनता धैर्य खो बैठेगी और लोगों का दिमाग अपना संतुलन गँवा देगा। ऐसे में जब कोई दल या सिद्धांत उभरकर सामने आए और कहे अब मोरचा लगाओ या मोरचा नहीं तो छुरा लो, एसिड बल्ब लो (आजकल इसी का फैशन है), पिस्तौल लो, रिवाल्वर लो, तो शायद अधिकांश जनता इन चीजों को अख्तियार करेगी या कमसेकम इन तरीकों का स्वागत करेगी।

मेरी यह पक्की धारणा है कि अगर संसद् और सांविधानिक तरीके मुक्ति के एकमात्र उपाय माने जाते हैं तो दुनिया का दो तिहाई हिस्सा उन सिद्धांतों तथा प्रणालियों की तरफ तेजी से मुखातिब होगा जिनकी बलवे या छुरे और एसिड बल्ब की हिंसा में आस्था है। यही गांधीजी का सुझाया हुआ तीसरा रास्ता विशेष रूप में कारगर होता है। भुखमरी या बड़े पैमाने पर छंटनी के शिकार लोगों के लिए यह जरूरी नहीं कि वे संसद् पर निर्भर रहें या चुपचाप अगले चुनाव की प्रतीक्षा करते रहें। उनके पास अन्याय और अत्याचार के बरदाश्त की हद पार कर जाने पर सिविल नाफरमानी का अमूल्य और बेमिसाल हथियार है। जब बुराइयों को दूर करने में सांविधानिक तरीके निकम्मे साबित हों तो जनता के लिए अन्यायपूर्ण कानूनों की अवज्ञा करने और अपने ऊपर किए जानेवाले अन्यायों और दमन का प्रतिकार करने का मार्ग खुला होना चाहिए।

कानूनों का उल्लंघन करना, गिरफ्तारी देना, सत्ताद्वारा दंड पाना यहाँ तक कि मौत की दाव देना, ही परिवर्तन का सबसे संतोषजनक तरीका है। यद्यपि मृत्युवाली बात कोई अच्छी नहीं। पर मेरा विश्वास है कि किसी भी सिद्धांत या दल को, जो कोई सार्थक चीज हासिल करना चाहता है, मृत्यु के लिए तैयार रहना चाहिए, वचन में नहीं, बल्कि जीवन की तरह एक वास्तविकता के रूप में।

विकल्प संसद् और विप्लव, गोली एवं वोट के बीच नहीं है, पर दुनिया के सामने इस जहरीले सिद्धांत को रखने की विद्वान् लोग कोशिश कर रहे हैं। वोट का अपना स्थान है और वह अपने दायरे में सर्वोपरि है। पर अन्याय और दमन के मामले में जब वे बरदाश्त की हद पार कर गए हों, तो विकल्प गोली और सविनय अवज्ञा के बीच है। लेकिन तात्कालिक औचित्य का सिद्धांत सिर्फ सविनय अवज्ञा के शस्त्र तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह और आगे जाता है। अर्थशास्त्र और राजनीति में भी यह जाता है, और जहाँ तक गांधीजी का सवाल है, उन्होंने हमें दो विचार दिए हैंएक आत्मनिर्भर ग्राम का और दूसरा ग्राम गणराज्य या ग्राम सरकार का। ये दोनों विचार विकेंद्रीकरण पर आधारित हैं। आत्मनिर्भर ग्राम एक ऐसी अर्थव्यवस्था के आधार पर चलेगा जो कमोवेश अपनी जरूरतें खुद पूरी करेगी और चरखे जैसी मशीनों या उपकरणों पर निर्भर रहेगी। ग्राम सरकार का विचार प्रथम स्तर के लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक प्रयोग है, जबकि आज की दुनिया में लोकतंत्र दूसरे स्तर का है। अगर छोटे इलाकों में, सीमित विषयों के लिए भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र की स्थापना संभव हो तो वह एक महान् उपलब्धि होगी। गांधीजी ने आत्मनिर्भर ग्राम और स्वायत्त ग्राम गणराज्य का विचार इसलिए रखा था कि जनता अपनी किस्मत का खुद फैसला करे, खुद अपने पर शासन करे, खुद अपनी अर्थव्यवस्था चलाए और उसे बाहर से मशविरे और हस्तक्षेप पर निर्भर न रहना पड़े।

गांधीजी के सोच की मोटी और प्रकट दिशा आत्मनिर्भर और ग्राम गणराज्य की ओर जाती है, इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। इसे किस प्रकार ऐसे सिद्धांत या विचार प्रणाली से जोड़ा जा सकता है, जो नई दुनिया बनाए। इसमें एक बहुत बड़ी दिक्कत उठती है। मैं नहीं समझता कि आधुनिक दुनिया में जो तमाम दोष हैं, उनके चलते वह हमें एक ऐसी दुनिया बनाने देगी जिसमें उसके तमाम उपकरण बिलकुल खत्म हो जाएँ। यूरोप और अमरीका का आदमी अकसर अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा जीवन जीने के लिए नहीं, वरन् उन चीजों को प्राप्त करने के लिए जीता है, जिन पर उसकी मिल्कियत है, रेडियो, कार, टेलीविजन, वैक्यूम कलीनर, आधुनिक आदमी या आधुनिक गृहिणी के दास नहीं, वरन् आधुनिक आदमी या आधुनिक गृहिणी इनके दास हैं। यह बात हवाई प्रतीत हो सकती है, क्योंकि हिंदुस्तान में ये चीजें उपलब्ध नहीं और जिनके पास जीवन के उपयोग की अच्छी चीजें नहीं हैं वे यह यकीन नहीं कर सकते कि इन चीजों की अधिकता होने पर लोगों को इनसे एकदम असंतोष या ऊब हो। मेरा यह उद्देश्य नहीं है कि हिंदुस्तान तथा उस जैसे देशों को भौतिक वस्तुओं के प्रति सचेष्ट नहीं रहना चाहिए। अगर वे जीवनयापन का एक अच्छा स्तर लाना चाहते हैं तो उन्हें सचेष्ट होना होगा, पर वे लोग जो पिछले 300 सालों से लगातार जीवनयापन स्तर बढ़ाने की दृष्टि से सोचते रहे हैं वे अब एक अनहोनी स्थिति में पड़ गए हैं जिनमें वे अपनी चीजों के स्वामी नहीं रहे, बल्कि चीजें अब उनकी स्वामिनी बनने लगी हैं।

इसलिए यह न बुद्धिमानी होगी और न ही उचित कि आत्मनिर्भर गाँवों और चरखे के गीत गाते जाएँ और साथसाथ कपड़ा, सीमेंट या और कुछ के उत्पादन के लिए बड़ेबड़े कारखाने भी खोले जाते रहें। भारत की जनता को आज इस स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। ग्राम गणराज्यवाली बात शायद इसी तरह की दुर्घटना की ओर बढ़ रही है क्योंकि जब गांधी के भारत की संविधानसभा भारत का संविधान बनाने के लिए बैठी तो उसने राष्ट्रपति और राज्यपाल के बीच एवं संसद् तथा विधानसभाओं के बीच अधिकारों के विभाजन तथा ऐसी बातों पर तीन सौ से अधिक अनुच्छेद बनाए, पर उसे ग्राम सरकार और ग्राम गणराज्य के विचार पर सोचने को बिल्कुल वक्त नहीं मिला। एकदम अंत में किसी को खयाल आया कि अरे! गांधीवाद का मूल आधार ही भुला दिया गया है और उसने ग्राम सरकार का एक अनुच्छेद शामिल करने का सुझाव दिया।

भारत का संविधान पढ़ने पर मालूम होगा कि 392 अनुच्छेदों में सिर्फ एक में कहा गया है कि ग्राम सरकारें बहुत अच्छी व्यवस्था हैं। यह क्या है? इसको किस प्रकार रूप दिया जाए ? किन अधिकारों का विभाजन किया जाए? ग्राम सरकार की जो बात कही गई है वह महज औपचारिक, रस्मी है तथा यह भी बाद में खयाल आने पर। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें दिमाग पर जोर डालने और सोचने की जरूरत है तथा इस मामले में गांधीजी ने जो खास हल बताए हैं, उनसे ही संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता।यहाँ केवल दिशा ही महत्त्वपूर्ण है।

दिशा विकेंद्रीकरण, विकेंद्रित अर्थव्यवस्था और विकेंद्रित राजनीतिक प्रणाली की है। इस सिद्धांत का समाजवादी प्रयोग क्या होगा? इस तरह के प्रयोग में उपकरणों का उपयोग करना पड़ेगा, जो आवश्यक नहीं कि पहले से काम आ रहे उपकरणों का ही हो, बल्कि ऐसे उपकरणों का भी प्रयोग करना होगा, जिनका आविष्कार और निर्माण करना पड़ेगा। राजनीतिक सत्ता के विकेंद्रीकरण के मामले में यह सिद्धांत एकदम सीधे व तुरंत बनाया जा सकता है कि देश की एकता और अखंडता को ध्यान में रखते हुए गाँव और शहर को अधिक से अधिक अधिकार दिए जाएँ। यह सिद्धांत एकबारगी पूरी तफसील में शायद तैयार न किया जा सके, शायद वास्तविकता में इसे पूर्णरूप से विकसित करने में बाकी की शताब्दी बीत जाए, किंतु अगर यह स्वीकार कर लिया जाए कि गाँव में प्रथम स्तर के लोकतंत्र को संचालित करनेवाले व्यक्ति को अपनी किस्मत का फैसला करने का विस्तृत अधिकार होगा तो सिद्धांत की बात तो पूरी हो जाती है।

किसी भी समाजवादी सिद्धांत को तात्कालिक औचित्य के सिद्धांत के संदर्भ में राजनीतिक प्रशासन के साथ अर्थव्यवस्था पर भी विचार करना होगा। जरूरी नहीं कि इस विषय पर चरखे और ग्राम स्वराज्य को ही लेकर सोचा जाए। शायद छोटीमशीन, जिसके लिए बहुत बड़ी पूँजी की जरूरत नहीं पड़ेगी, और स्वायत्तता प्राप्त ग्राम सरकार को लेकर सोचना होगा। मैंने जानबूझकरस्वतंत्रके बजायस्वायत्तशब्द का प्रयोग किया है।आत्मनिर्भरता के विचार को छोड़ देना बेहतर होगा।गाँव का अन्य असंख्य गाँवों से निकट का संबंध होना चाहिए और बाकी विभाज्य राजनीतिक सत्ता के विचार को इतना लचीला रखना होगा कि देश की अखंडता को ध्यान में रखते हुए, उसे लगातार फैलाया जा सके।

(राममनोहर लोहिया का भाषणहैदराबाद-1952, चौरंगी वार्त्ता, 24 मार्च, 1975)

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