जयप्रकाश का बड़प्पन

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Jai prakash narayan

— रमा मित्र —

मेरे प्रति जयप्रकाश का व्यवहार सदैव बहुत ही उदार और प्रेमल रहा है और डॉक्टर साहब (लोहिया) की मृत्यु के बाद तो और भी ज्यादा। लाख व्यस्त रहने के बावजूद दिल्ली आने पर उन्होंने मुझे हमेशा समय दिया है। जब उन्हें पता लगा कि मुझे गुरुद्वारा रकाबगंज रोड का मकान (अपनी जिंदगी में लोहिया का घर बोलकर कुछ था तो यही घर था) छोड़ना पड़ रहा है तो वह खुद मेरे पास चले आए।

लोहिया की मृत्यु के बाद मैं जयप्रकाश से जे. जे. सिंह के मकान पर मिली थी और मैंने उनसे मैनकाइंड के लोहिया विशेषांक के लिए लोहिया पर लेख माँगा। उन्होंने लिखने का वचन नहीं दिया। इसके बाद मैं उनसे गांधी शांति प्रतिष्ठान में मिली। उन दिनों वे नागरिक अधिकारियों की रक्षा के लिए नागरिक लोकतांत्रिक मंच के उद्घाटन- सम्मेलन में भाग लेने के लिए दिल्ली आए हुए थे। उन्होंने सम्मेलन में भाग लेने के लिए मुझे निमंत्रित किया। मैंने उनसे पूछा कि आपका क्या कार्यक्रम है तो उन्होंने कहा, “12 अक्तूबर से मैं कोई सार्वजनिक वक्तव्य नहीं दूँगा और न ही किसी कार्यक्रम में भाग लूँगा।” इस पर मैंने कहा कि 12 अक्तूबर लोहिया का मृत्यु दिवस भी है। वह एकाएक उदास हो गए और कुछ सोचने लगे। मैंने जयप्रकाश से यह भी कहा कि वह मुझे आप न कहें क्योंकि मैं उनसे छोटी हूँ। तो जयप्रकाश हँसते हुए कहा कि आप ही क्या राममनोहर भी मुझसे छोटा था। पिछले साल मार्च में गांधी शांति प्रतिष्ठान के राधाकृष्ण का मेरे पास फोन आया कि प्रभावतीजी की मृत्यु हो गई है। मुझे बड़ा कठिन लगता है, मृत्यु पर शोक प्रकट करना और खास कर ऐसे व्यक्ति के प्रति, जिसकी जीवन संगिनी की मृत्यु हो गई हो, फिर भी मैंने पत्र लिखा। प्रभावतीजी की मृत्यु के बाद जयप्रकाश दिल्ली आए तो मैं उनसे गांधी शांति प्रतिष्ठान में मिलने गई। वह बहुत ही बीमार और दुःखी दिखाई पड़े। मुझे लगा कि वह रो पड़ेंगे।

इस साल ऑपरेशन के लिए वेलोर जाने से पहले वह दिल्ली आए। मैंने उनसे मुलाकात करने का समय माँगा और उन्होंने समय ही नहीं दिया, वरन् कहा कि दोपहर का भोजन भी मैं उनके साथ करूँ। मैं जब उनसे मिलने गई तो वे काफी लोगों से घिरे बैठे थे। मुझे देखते ही वह दरवाजे के पास चले आए और प्रेम से भीतर आने को कहा। मैंने उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “राममनोहर को जो तकलीफ थी, वही मुझे है। ऑपरेशन करना जरूरी है।” मैं यह सुनकर घबरा गई कि किसी ने उन्हें विलिंगडन अस्पताल में ऑपरेशन कराने का सुझाव दिया था। इस पर उन्होंने मुझे कहा कि रामनाथ गोयनका ने वेलोर में ऑपरेशन कराने का इंतजाम किया है। थोड़ी देर रुककर वह बोले ‘रमाजी, कया यह अजीब बात नहीं कि हमारे यहाँ जितने भी अच्छे अस्पताल हैं, वे विदेशी मिशनों के ही हैं।’ इस बीच जनसंघ के सेक्रेटरी नानाजी देशमुख आ गए। जयप्रकाश ने उनसे मेरा परिचय करवाया तो मैंने उनसे (नानाजी देशमुख से) कहा, ‘आप लोग (जनसंघ वाले) यहाँ राजधानी में कुछ क्यों नहीं करते?’ इस पर देशमुख ने हँसते हुए कहा, ‘हम क्या कर सकते हैं?’ मैंने कहा, ‘क्यों नहीं? दिल्ली नगर निगम, दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र यूनियन पर जनसंघ का प्रभुत्व है ? इसका नानाजी देशमुख ने कोई जवाब नहीं दिया।

जयप्रकाश की शिष्टता और भद्रता असाधारण है। वह विदाई के वक्त मुझ जैसी नाचीज तक को हमेशा बाहर छोड़ने आते। उन्होंने उस वक्त सभी उपस्थित लोगों से मेरा परिचय करवाया। इसके बाद हमने भोजन किया, जो बहुत ही सादा था। भोजन के बाद मुझे जयप्रकाश से 30-40 मिनट एकदम अकेले में बातचीत करने का मौका मिला। मैंने उन्हें बताया कि मैं जो पढ़ाती हूँ, वह कितना निरर्थक है और मेरा कॉलेज (मिरांडा हाउस, जिसे मैं अपने ढंग से चाहती हूँ और जिसमें 1949 से पूरी ईमानदारी के साथ काम कर रही हूँ) कैसा है, मैंने उन्हें यह भी बताया कि संसोपा से मैं एकदम निराश हो गई हूँ।

वह मेरी बातों से सहमत थे। मैंने उनसे एकाएक कहा आप आज जो कुछ कर रहे हैं, वही आपने 7-8 साल पहले क्यों नहीं किया? इस पर उन्होंने कहा, “तब जनता शायद इतना साथ नहीं देती।” मैंने कहा: नेता तो जनता को रास्ता दिखा सकते थे। वह इस बात से सहमत जान पड़े। मैंने बिहार आंदोलन के कार्यक्रम के बारे में पूछा तो संक्षिप्त में उन्होंने कार्यक्रम की रूपरेखा बताई। मैंने उनसे पूछा कि बिहार आंदोलन के लिए मैं क्या करूँ? इस पर उन्होंने कहा, ‘आपको जो कुछ करना है, दिल्ली से ही कीजिए। दिल्ली में आपको लोग जानते हैं, हालाँकि यह सही नहीं है। मैं खुद दिल्ली में कुछ काम शुरू करता, पर दिल्ली के युवकों के बीच मेरा कोई आधार नहीं है।’

इस वक्त जयप्रकाश औरइंदिरा गांधी के बीच मुलाकात और समझौता करवाने की काफी चेष्टयाएँ चल रही थीं और मुझे इस बात का डर था कि कहीं ये सफन न हो जाए। मैंने अपनी आशंका प्रकट की तो उन्होंने कहा: एक संसद् सदस्य (जयप्रकाश ने नाम लिया) मेरे और इंदिराजी के बीच मध्यस्थता करने की कोशिश कर रहे हैं। मैंने उनसे कह दिया कि यह सब काफी हो गया। इसकी भी एक हद होती है। मैं किसी से मिलने से इनकार नहीं करता। वह मिलना चाहें तो आकर खुशी-खुशी मिल सकती हैं।’

मैंने उनसे कहा, “भ्रष्टाचार तो नेहरू के जमाने से ही तेज हो गया था। हाँ, अब वह सारी हदें पार कर गया है। मगर संसदीय व्यवस्था को चालू रखना है तो दलविहीन लोकतंत्र की बात से मैं सहमत नहीं हूँ।” जेपी मेरी बात से सहमत हुए। उन्होंने कहा कि चुनाव-प्रणाली में सुधार की जरूरत है। पश्चिम जर्मनी की तरह हमारे देश में भी ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि मतदाता उम्मीदवार को वोट देने के साथ-साथ पार्टी को भी वोट दे और चुने हुए प्रतिनिधियों को निकम्मा साबित होने पर वापस बुलाया जा सके।

इस मुलाकात के वक्त मैंने जयप्रकाश से आखिरी सवाल नेहरू से हुई उनकी एक मुलाकात के बारे में पूछा। मुझे किसी ने बताया था कि नेहरू 17, यार्क प्लेस का मकान छोड़कर ब्रिटिश राज के सेनापति के बहुत बड़े आलीशान भवन ‘त्रिमूर्ति’ में रहने चले आए तो जयप्रकाश ने कहा था कि इतने बड़े मकान में रहने की क्या जरूरत है। वे जवाहरलाल से इस बारे में बात करेंगे। जयप्रकाश ने नेहरू से इस सिलसिले में अपनी बातचीत के बारे में मुझे बताया- “जवाहरलालजी ने कहा कि देश की इज्जत रखनी पड़ती है। यार्क प्लेस के पोरटिको में जब रूसी दूतावास की बड़ी शानदार कार आती है तो मुझे शरम आती है।” इस पर मैंने (जयप्रकाश ने) कहा कि आपने (जवाहरलाल) 1927 की रूस-यात्रा के विवरण में लिखा था कि यह जानकर कि लेनिन क्रेमलिन के एक बहुत छोटे से कमरे में रहते थे, आप बहुत प्रभावित हुए थे।

क्या गांधीजी की घुटनों तक धोती के कारण भारतीय राज्य की प्रतिष्ठा घटती है? यह कहकर जयप्रकाश रुक गए और फिर बोले, “जवाहरलालजी ने मुझे इसका जो जवाब दिया, वह आपको बताने में मुझे शरम आती है।” इस जवाब के बाद मैंने उनसे इस विषय पर बातचीत करना व्यर्थ समझा। जवाहरलालजी ने गांधीजी के बारे में सरोजिनी नायडू से स्नेह में जो कहा था, उसे तोड़-मरोड़कर अपने अनुकूल बनाकर रख दिया-सरोजिनी नायडू ने कहाथा कि गांधी की प्रतिष्ठा को कायम रखने में बिड़ला के करोड़ों रुपए लगते हैं।

वेलोर में ऑपरेशन के बाद जयप्रकाश बिहार के संघर्ष में एकदम कूद पड़े। वह 5 जुलाई को कलकत्ता आए। उनकी ट्रेन लेट थी। मैं उनके घर में उनका इंतजार कर रही थी। हावड़ा स्टेशन पर लोगों ने उन र ‘प्रेमपूर्ण हमला’ ही कर डाला। भीड़ और मालाओं के कारण वह बेहद थक गए थे। उन्हें थका देखकर मैंने अपना टेलीफोन नंबर उनके सेक्रेटरी को दे दिया कि जब फुरसत हो, तब मुझे बुला लें। अगले दिन ही सुबह उनके सेक्रेटरी का फोन आया कि मैं चार बजे जयप्रकाश से मिल सकती हूँ। मैं कुछ पहले ही चली गई-जयप्रकाश माकपा के नेताओं से बातचीत कर रहे थे। उन्होंने मुझे भीतर बुलाया और माकपा के नेताओं से मेरा परिचय करवाया तो मैंने जयप्रकाश से कहा, ‘इन लोगों से मुझे डर लगता है।’ इस पर जयप्रकाश हँसते हुए कहा, ‘आप किसी से डरती भी हैं?’

मुझे पता नहीं, उस दिन क्या सूझा, मैंने माकपा की आलोचना शुरू कर दी। कहा कि उसने इंदिरा गांधी से दोस्ती कर कितना नुकसान किया। लोहिया ने ऐसी गलती कभी नहीं की और 1967 व 1969 में माकपा ने स्वर्णिम अवसर खो दिया। छोटे-छोटे कारखानों का घेराव किया, जबकि बड़े-बड़े लोगों, जैसे बिड़लों आदि को छोड़ दिया। इस पर ज्योति बसु ने कहा, ‘बिड़ला यह सुनकर खुश होंगे।’ प्रमोद दास गुप्त ने कहा, ‘अब चीजें बदल रही हैं और पहले जैसी बात नहीं होगी।’ इस पर मैंने कहा, ‘मेरे जीवनकाल में तो नहीं।’ जयप्रकाश ने पूछा, ‘आपकी उम्र कितनी है?’ तो मैंने कहा, ‘कुछ दिनों में 55 की हो जाऊँगी।’ प्रमोद दास गुप्ता ने कहा कि आप इतनी चिंता क्यों करती हैं?

दोनों माकपा नेताओं के जाने के बाद जयप्रकाश ने मुझे कहा कि ‘आपको जेल नहीं जाना है, क्योंकि आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है और दूसरे आपको अपना अनुसंधान का काम पूरा करना है’ (मेरे कॉलेज ने ‘समाजवादी आंदोलन का इतिहास’ 1952-74) लिखने के लिए मुझे दो वर्ष की छुट्टी (अध्ययन-छुट्टी) दी है। बातों-बातों में मैंने जयप्रकाश को कहा कि मैं चूल्हा-चक्की की पार्टी में शामिल नहीं हो सकती। जयप्रकाश मेरी ओर ताकने लगे तो मैंने कहा, ‘भाक्रांद के महान् नेता औरत का यही काम समझते हैं, वह औरतों को अधिकारी बनने लायक नहीं समझते।’ जयप्रकाश के महाजाति सदन में नागरिक समिति की सभा में जाने का वक्त हो रहा था। मैं एक दूसरी कार में उनके पीछे- पीछे सभा में गई।

महाजाति सदन भरा हुआ था। मुझे इस बात से निराशा हुई कि जयप्रकाश अंग्रेजी में बोले। अपने भाषण में उन्होंने स्टालिन की चर्चा की और कहा कि अगर लेनिन कुछ दिन और जिंदा होते तो रूस की स्थिति भिन्न होती इतिहास बदला हुआ होता। भाषण के बाद मैं जयप्रकाश के घर गई। मैंने उनसे कहा कि बुराई तो लेनिन से ही शुरू हुई थी। मैंने उन्हें रोजा लक्जेमवर्ग और लेनिन के बीच मतभेद की बात याद दिलाई और बताया कि किस प्रकार लेनिन ने संगीन की नोक पर संविधान सभा भंग करवाई थी। मैंने कहा बुराई तो काल मार्क्स से ही शुरू हो गई थी। जयप्रकाश हँसते रहे और उन्होंने कहा, “मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ।”
जयप्रकाश को कलकत्ता में काम करते देख मैं काँप गई। इतनी व्यस्तता, इतनी भागदौड़ और इतनी खराब तबीयत।

(5-12 अगस्त, 1974)

चौरंगी वार्ता

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