— गोपाल राठी —
(महात्मा गांधी 10 मार्च 1925 से वाइकोम, वर्कला तथा त्रिवेंद्रम की यात्रा पर थे। वाईकोम में मंदिर परिसर से दलितों के आने जाने पर लगा प्रतिबंध को हटाने के लिए लगभग एक साल से सत्याग्रह चल रहा था। पूर्व में एक पोस्ट में मंदिर के न्यासियों के साथ महात्मा गांधी जी की चर्चा का वृतांत दिया था। उसके बाद महात्मा गांधी जी ने त्रावणकोर की महारानी तथा वरकला में संत नारायण गुरु से हुई मुलाक़ात के बाद कट्टरपंथियों तथा धर्म के मसले पर वरकला में दिए भाषण का सार निम्न है);
कट्टरपंथियों ने जो स्थिति अपनाई है वह गलत, भ्रांतिपूर्ण, अनैतिक और पापमय है। लेकिन यह मेरा और आपका दृष्टिकोण है- कट्टरपंथियों का नहीं।
एक समय था जब हमारे पूर्वज मानव-बलि चढ़ाया करते थे। हम जानते हैं कि यह राक्षसी कृत्य था, अधर्म था, लेकिन हमारे पूर्वज ऐसा नहीं मानते थे। उन्हें यह ठीक ही लगता था और उन्होंने इस दुर्गुण को गुण मान रखा था।
मैं चाहता हूँ कि आत आज के कट्टरपंथियों को भी इसी दृष्टि से देखें। उन्हें अपनी ही बात निर्दोष लगती है, मैं यह बात कटु अनुभव से कह रहा हूँ। मैं यह बात अपने घरेलू -जीवन के अनुभव से कह रहा हूँ। मैं अपनी प्रिय पत्नी के चारों ओर पूर्वग्रहों की खड़ी हुई दीवार को अभी तक हटा नहीं पाया हूँ, लेकिन मैं उसके प्रति अधीर भी नहीं होता। उसके प्रति ज़्यादा से ज्यादा लिहाज़, ज़्यादा से ज़्यादा सौजन्य और अधिक स्नेह संभव हो तो अधिक स्नेह के बल पर उसे अपने विचारों से सहमत करना मैं अपना कर्तव्य मानता हूँ। अपने निजी आचरण के प्रति मैं पूरी पूरी कठोरता बरतता हूँ वहीं अपनी पत्नी के प्रति उदार होना चाहिए।
इसी प्रकार मैं आपसे अपेक्षा करता हूँ कि आप कट्टरपंथियों के प्रति अन्यथा भाव नहीं रखेंगे। यही सच्चे धर्ममय जीवन का रहस्य है।
स्वामीजी (स्वामी नारायण गुरु जी) ने कल मुझसे कहा कि धर्म एक है। मैंने इस विचार का विरोध किया और मैं आज भी उसका विरोध कर रहा हूँ। जब तक अलग अलग-अलग मनुष्य हैं तब तक भिन्न भिन्न धर्म रहेंगे, लेकिन सच्चे धार्मिक जीवन का रहस्य एक दूसरे के धर्म के प्रति सहिष्णुता बरतने में है। कुछ धार्मिक प्रथाओं में जो चीज हमें बुरी लग सकती है, वह उस प्रथा को माननेवालों को भी बुरी लगे, यह ज़रूरी नहीं है।
मैं वर्तमान मतभेदों की तरफ से आंख बंद नहीं करना चाहता। मैं चाहूँ तो भी उन भेदों को मिटा नहीं सकता, लेकिन उन भेदों को जानते हुए, मैं उन लोगों से प्रेम करूँगा जो मुझसे भिन्न मत रखते हैं। हम जिस पेड़ की छाया में बैठे हैं, उसकी कोई भी दो पत्तियाँ एक समान नहीं है, हलांकि वे एक ही मूल से पैदा हुई हैं, लेकिन जिस प्रकार पत्तियाँ आपस में पूरी तरह हिलमिल कर रहती हैं उसी प्रकार हमारा मानव-समाज अपनी समस्त भिन्नताओं के साथ देखनेवाले को एक सुंदर समष्टि के रूप में दिखना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब अपनी भिन्नताओं के बावजूद हम एक दूसरे के प्रति प्रेम रखना और परस्पर सहिष्णुता बरतना शुरू करें।
अतः यद्यपि मैं विवेकशून्य कट्टरवादिता में निपट जड़तापूर्ण अज्ञान देखता हूँ, फिर भी उस कट्टरता के प्रति असहिष्णु नहीं बनता; इसलिए मैने दुनिया के सामने अहिंसा का सिद्धांत प्रस्तुत किया है।
मैं कहता हूँ कि जो व्यक्ति इस धरती पर धार्मिक जीवन व्यतीत करना चाहता है और जो इसी जन्म में इसी पृथ्वी पर आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहता है उसे हर रूप में, हर प्रकार से और अपने हर कृत्य में अहिंसक रहना चाहिए।
मेरा विश्वास है कि विचार कर्म की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली होते हैं। हमारे कर्म हमारे विचारों की अधूरी सी प्रतिकृति होते हैं।
13 मार्च 1925
स्त्रोत: संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड 26 पृष्ठ: 291-93