बस्तर के मुकेश में जिंदा थी पत्रकारिता!

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mukesh chandrakar

arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

त्तीसगढ़ में नक्सली संघर्ष के लिए चर्चित आदिवासी जिले बस्तर में यूट्यूब की पत्रकारिता करने वाले मुकेश चंद्राकर ने अपनी जान देकर यह साबित कर दिया कि उसके भीतर पत्रकारिता जिंदा थी। यानी झूठ की आंधी के दौर में कुछ लोगों के भीतर सच का दिया जलता रहता है। ऐसे दीयों में धन दौलत और शोहरत से कहीं ज्यादा किसी अंतःचेतना की भूमिका होती है जो तेल और बाती की तरह से काम करते हैं, यह हमें मानना पड़ेगा। हालांकि ऐसा कहने वाले भी होंगे कि स्थानीय स्तर पर पत्रकार ब्लैकमेलिंग करते हैं और उसी का परिणाम होता है कि कई बार उन्हें जान से हाथ धोना पड़ता है। लेकिन मुकेश के बारे में छत्तीसगढ़ के ज्यादातर प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने यही कहा है कि वे राज्य में ईमानदारी की साख रखने वाले एक खोजी पत्रकार थे और हत्या से पहले उन्होंने छत्तीसगढ़ सड़क परियोजना में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया था। उससे एक ठेकेदार महोदय नाराज थे और उन्हीं की संपत्ति में एक सेप्टिक टैंक में मुकेश का क्षत विक्षत शव पाया गया।

भारत में ग्रामीण पत्रकारिता के ध्वजवाहक पी साई नाथ से एक बार इस स्तंभकार ने पूछा कि उन्होंने सरकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को सिलसिलेवार तरीके से कैसे उजागर किया, तो उनका जवाब था कि वे जिस अखबार के लिए काम कर रहे थे वहां उनकी सेवा शर्तें बेज बोर्ड के नियमों से संचालित होती थीं। इसीलिए वे ऐसा कर सके। वरना आजकल ठेके की नौकरियां करने वाले पत्रकार लंबी दूरी तक खोजी पत्रकारिता नहीं कर पाते। उनके कहने का तात्पर्य यह था कि उनके पास नौकरी की सुरक्षा थी इसलिए वे बिना जोखिम के समाज की सच्चाई उजागर करने वाला काम कर सके। लेकिन सभी पत्रकार इतने भाग्यशाली नहीं होते कि उन्हें बड़ा बैनर भी मिल जाए और बेजबोर्ड की सुरक्षा मिल जाए और काम करने की आजादी मिल जाए।

आजकल इतनी चीजें इकट्ठा किसी को नहीं मिलतीं। नौकरी की सुरक्षा तो भूल ही जाइए लेकिन अगर बड़ा बैनर मिल गया तो बेज बोर्ड तो नहीं ही मिलेगा। क्योंकि वहां भी अब वह प्रणाली बंद हो चुकी है। लेकिन बड़े बैनर में भी सरकार या शक्तिशाली लोगों से टकराने की छूट बहुत सीमित हो चुकी है। जिसे कभी पत्रकारिता की आजादी कहा जाता था और जिसके तहत कई बार संपादक संप्रभु लगता था वह दौर समाप्त हो चुका है। खोजी खबर की आजादी की परिभाषा में ऐसी खबरों को रखा गया है जिनके नाते यह तो प्रमाणित होता रहे कि देखो यह समूह अपनी पुरानी खोजी परंपरा को जिंदा रखे हुए है लेकिन उस खबर से सत्ता प्रतिष्ठान का कोई नुकसान न हो। खासकर सर्वोच्च पद पर बैठे लोगों तक कोई आंच न पहुंचे। अगर चौथे पांचवें नंबर के अधिकारी के विरुद्ध कोई खबर हो भी गई बाद में कई खैरख्वाही वाली खबरों से उसकी क्षतिपूर्ति कर दी जाती है। खोजी खबरें अंतरराष्ट्रीय स्तर की भी होती हैं लेकिन उनसे किसी पर क्या फर्क पड़ा यह पता ही नहीं चलता है। वे पत्रकारिता की एकेडमिक चर्चा का मसाला बन कर रह जाती हैं।

मुकेश चंद्राकर की हत्या के बाद एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया, प्रेस क्लब आफ इंडिया और भूपेंद्र बघेल समेत विपक्ष के कई नेताओं ने इस मामले की गंभीर जांच और पत्रकारों को सुरक्षा देने की मांग की है। विडंबना है कि जो राजनीति नारद को पत्रकारों का आदिपुरुष मानती है उसने पत्रकारिता को सबसे ज्यादा असुरक्षित किया है। उसी के साथ पत्रकार भी बेहद असुरक्षित हुए हैं। अगर ऐसा न होता तो सिरसा के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या के दोषी और सजायाफ्ता डेरा सच्चा सौदा के महंत बाबा राम रहीम को बार बार पैरोल न मिलती। इस राजनीति का उसूल यह है कि या तो पत्रकार प्रचारक बन जाए नहीं तो पत्रकारिता छोड़ दे। इस राजनीति ने पिछसे 11 सालों में भारतीय पत्रकारिता को ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया जो वैश्विक स्वतंत्रता सूचकांक में काफी नीचे के पायदान पर खड़ी हो गई है। लेकिन उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि जिन राजनीतिक दलों ने पिछले आम चुनाव में संविधान को मुद्दा बनाया था उन्होंने भी पत्रकारों और पत्रकारिता की सुरक्षा के लिए कोई वातावरण निर्मित करने का प्रयास नहीं किया। संविधान पत्रकारों को कोई विशेष सुरक्षा नहीं देता। वह पत्रकारों को वही अधिकार देता है जो किसी सामान्य नागरिक को देता है। अभिव्यक्ति का यह अधिकार किसी विदेशी नागरिक को उपलब्ध नहीं है। एक ओर जहां अमेरिकी संविधान पहले संशोधन के तहत लाए बिल आफ राइट्स के माध्यम से सरकार को पत्रकारिता में हस्तक्षेप करने से रोकता है वहीं भारतीय संविधान पहले संशोधन के माध्यम से अभिव्यक्ति के अधिकार पर युक्तिसंगत निर्बंध लगाता है।

वैसे पत्रकार भारत समेत पूरी दुनिया में जोखिम उठाकर ही काम करते हैं। लेकिन तीसरी दुनिया में यह जोखिम निरंतर बढ़ता गया है। सत्ता का अधिनायकवाद, भ्रष्टाचार, युद्ध और सांप्रदायिक हिंसा पत्रकारिता और पत्रकारों के लिए सबसे ज्यादा चुनौती प्रस्तुत करते हैं। अगर हम उन देशों को इस दायरे से अलग कर दें जहां घोषित तौर पर सैनिक जुंता या राजशाही है तो उन देशों के पत्रकार भी खतरे से बाहर नहीं हैं जहां पर लोकतांत्रिक सरकारें हैं और नियमित तौर पर चुनाव होते हैं और जहां न्यायपालिका की स्वायत्तता और नौकरशाही की तटस्थता का दावा किया जाता है।

दरअसल पत्रकारिता के उद्देश्य वही हैं जो संविधान के उद्देश्य हैं या संयुक्त राष्ट्र के मानवधिकार के चार्टर के उद्देश्य हैं। स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व और न्याय यह ऐसे उद्देश्य हैं जिनसे व्यक्ति की गरिमा कायम रहती है और उन्हीं से कोई राष्ट्र सशक्त रहता है। लेकिन ध्यान से देखा जाए तो राजनीतिक और आर्थिक शक्तियां उन्हीं मूल्यों की शपथ लेकर उन्हीं को नष्ट करने पर तुली हैं। पत्रकारिता भी उन्हीं ताकतों के गिरोह का हिस्सा बनकर वैसा ही करने में लग गई है। लेकिन पत्रकारिता का जो हिस्सा संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की कोशिश कर रहा है वह अपने ही जोखिम पर कर रहा है। जैसे कि तमाम जगहों पर लिखा रहता है कि पार्किंग एट योर वोन रिस्क, वैसे ही हमारे लोकतंत्र की दीवार पर लिख दिया गया है कि सच अपने जोखिम पर ही कहें। वैसा कहने वाले पत्रकार की नौकरी असुरक्षित है, उसका परिवार असुरक्षित है और उसका जीवन असुरक्षित है। पत्रकार के पास कोई तलवार, त्रिशूल और एके 47 नहीं होती। वह अपनी कलम, मोबाइल फोन और कैमरा से अपना काम करता है। वही उसके औजार हैं और उसकी नैतिकता ही उसका कवच और कुंडल है।

लेकिन विगत तीस साल की आर्थिक नीतियों ने पहले समाज में असमानता का वातावरण निर्मित किया है और फिर उसे कायम रखने के लिए हिंसा, नफरत और दमन में यकीन करने व्यवसायी और राजनीतिक सामाजिक संगठन पैदा किए हैं। इस असमानता ने न सिर्फ समाज में तनाव पैदा किया है बल्कि लोकतंत्र को कमजोर किया है और एक किस्म की राजनीतिक अस्थिरता या असहज स्थिरता और पक्षपात का वातावरण निर्मित किया है। यह वातावरण न सिर्फ पत्रकारों के लिए घातक है बल्कि उन नेताओं और अफसरों के लिए भी घातक है जो कानून के राज में यकीन करते हैं या फिर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए आगे आते हैं। गुजरात से लेकर दिल्ली तक ऐसे अफसरों की लंबी फेहरिश्त है जिन्हें ऐसी कोशिशों में जेल की सजा भुगतनी पड़ी है। ऐसे न्यायाधीशों की अच्छी संख्या है जिन्होंने न्याय के लिए अपना करियर दांव पर लगा दिया है। ऐसे पत्रकार भी हैं जिनकी नौकरियां छीनी गई हैं या यूएपीए का सामना करना पड़ा है। सच कहने का वही जज्बा कहीं मुकेश चंद्राकर जैसे पत्रकारों को अपनी जान गंवाने की प्रेरणा देता है। राजधानी दिल्ली से लेकर राज्य की राजधानियों में लगातार दम तोड़ती पत्रकारिता के इस दौर में जब बस्तर जैसी जगह पर किसी पत्रकार की हत्या होती है तो लगता है कि देश के सबसे दूर दराज इलाके में पत्रकारिता जिंदा थी। आशा की जाती है कि लोकतंत्र की हिफाजत के लिए हुई मुकेश की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी।

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