कुम्भ के मेले में इन धर्म संकटों पर विचार कीजिए

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mahakumbh

Dhruv Shukla

— ध्रुव शुक्ल —

म भारत के लोग धर्म, राजनीति, व्यापार, आबादी और पर्यावरण के क्षेत्रों में संकटग्रस्त है और इनमें ऐसा आपसी घालमेल हो गया है कि किसी एक पर अंगुली रखकर कुछ समझ नहीं आता। ये संकट देश के समूचे जीवन पर भारी पड़ रहे हैं। साधु पुरुषों को ज्ञान के सागर से उठे हुए मेघों की उपमा दी गयी है जो बिना किसी भेदभाव के सबके जीवन पर बरसकर उसे तृप्ति और मुक्ति प्रदान करते हैं। ज्ञानीजन कहते हैं कि सबके मानस में सुमति और कुमति की भूमि होती है —- ज्ञानरूप मङ्गलकारी जल सुमति की भूमि को समृद्ध करे क्योंकि उसी से नाना प्रकार की ज्ञान-साधन संपदा सबके जीवन के लिए प्राप्त होती है और लोग अपने-अपने स्वधर्म का पालन करते हुए अपने मन को जीतकर किसी से बैर नहीं करते। विषमता घटने लगती है और जीवन में समता आती है।

आयातित धर्म निरपेक्षता और भारत में अर्जित धर्म की धारणा के बीच राजनीतिक द्वंद्व चलता रहता है। इस द्वंद्व से देश के जीवन में मानसिक अस्थिरता और एक-दूसरे पर दोष लगाकर गैरजिम्मेदारी बढ़ रही है। भारत में धर्म कोई कौमी धारणा नही है। संसार के सब आदमी अपने जन्मजात स्वभाव के अनुरूप अपने स्वधर्म से संचालित हैं। काम, क्रोध, लोभ के मनोभाव आदमी को अहिंसक मनोभूमि पर स्थिर बने रहने के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं। यह बाधा हटाने की जिम्मेदारी खु़द पर है किसी राज्य व्यवस्था पर नहीं। यह जिम्मेदारी निभाना ही धर्म है।

भारतीय दर्शन में ऐसे कोई ईश्वर ढूंढें नहीं मिलते जो किसी को जीते जी विषयासक्ति से होने वाले क्लेशों से मुक्त करते हों या मरने के बाद कोई जन्नत बख्शते हों। तब तो सारी जिम्मेदारी अपने आप पर ही आ जाती है। भारत में धर्म अपने-अपने स्वभाव को परखकर परस्पर आश्रय में सहकार की कला रचने जैसा है। वह सिखाता है कि हम ही अपने कर्म के प्रस्तावक है, हम ही अनुमोदनकर्ता हैं और हम ही उनके परिणामों के भोक्ता हैं। हम ही हम में खेल रहे हैं। कोई हमें कठपुतली की तरह नचा नहीं रहा।

आश्चर्य होता है यह देखकर कि जो हमारे धर्म के प्रामाणिक पीठाधीश्वर आज धर्म पीठों पर विराजमान हैं वे भारतीय समाज को इस लोक हितकारी धर्म का मर्म समझाने का कोई अभियान क्यों नहीं छेड़ते? उनकी नज़रों के सामने रोज़ नये पाखण्डी पैदा हो रहे हैं। उन्होंने धर्म को भ्रमित करने वाले चमत्कारों के धंधे में बदल दिया है। वे असहाय, अशिक्षित आर्त जनों को ठग रहे हैं। आर्त जनों की भीड़ दुर्घटनाओं में अकाल मृत्यु का शिकार हो रही है। वे पाखण्डी अपराधी प्रवृत्ति के भी हैं और सजा भी काट रहे हैं। क्या इस भयानक पतन के विरुद्ध हमारे पीठाधीश्वर कोई उपाय नहीं करेंगे?

कौन नहीं जानता कि धर्म क्षेत्र में बढ़ते इस पाखण्ड से राजनीतिक लाभ कमाने वाले लोग इसे संरक्षण भी प्रदान कर रहे हैं। हमारी राजनीति संवैधानिक नीति-निर्देश पर आधारित स्वाबलम्बी नागरिक धर्म का मार्ग प्रशस्त नहीं कर पा रही जबकि यही उसका प्रमुख कर्तव्य है। वह असहाय और अशिक्षित आबादी को समर्थ बनाकर देश की समृद्धि में भागीदार बनाने की बजाय मुफ़्तखोरी सिखा रही है। राजनीतिक सत्ता का बढ़ता लोभ, देश के जीवन में कामनाओं की पूर्ति न होने के कारण बढ़ता क्रोध और अराजक होते व्यापार में बढ़ती अश्लीलता और लूट के कारण प्राकृतिक संसाधनों का निरंतर होता क्षय भारतीय धर्म दृष्टि में अधर्म ही कहे जायेंगे।

देश की आबादी बढ़ रही है और प्राकृतिक संसाधन लूट का शिकार होकर क्षत-विक्षत हो रहे हैं। फिर भी दायित्वहीन अधिकारों की मांग बढ़ती जा रही है। इसका परिणाम यह है कि धरती चाहे जब कांपने लगी है। सागर गुस्से से भरकर उफान पर है। पर्वत अपना धीरज खोकर दरक रहे हैं। नदियां कीचड़ से भरती जा रही हैं। सूर्य का ताप असहनीय होता जा रहा है। आसमान में स्वार्थपूर्ण कुतर्कों का शोर भरता जा रहा है। लगता है कि जैसे देश के जीवन की रंगशाला में विनाश का लीला नाट्य चल रहा है। प्रकृति विरोधी भौतिक दुर्गति के कारण पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि का ही धर्म ख़तरे में पड़ गया है। दुर्भाग्य है कि धर्म के पीठाधीश्वर, देश के राज्यकर्ता, व्यापारी और नागरिक अपना-अपना लाभकारी मौन साधकर न जाने किस ख़्वाब में खोये हुए हैं? सनातन सत्ता का निवास स्थान तो प्रकृति ही है। पंच तत्वों को मैला करके जीवन को उजला कैसे बनाया जा सकता है?

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