आज़ादी कभी झूठी नहीं होती है?

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Dhruv Shukla

— ध्रुव शुक्ल —

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत का बयान सुनकर चौंक गया। उन्होंने कहा है कि —–‘ राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के दिन मिली थी भारत को सच्ची आज़ादी ‘! यानी २२ जनवरी २०२३ को। इससे पहले भी तो किसी ने कहा था कि भारत २०१४ में आज़ाद हुआ है! जबकि इतिहास यही बताता है कि भारत १९४७ में फिरंगियों से आज़ाद हुआ। भारत के लोगों ने आज़ादी के पचहत्तर साल होने को याद भी किया है। देश तो आज़ाद है। कहीं इन आज़ादियों के फ़िजूल हल्ले में लोकतंत्र का मंदिर न ढह जाये।

भारत की आज़ादी मुझसे पाॅंच साल बड़ी है। मुझे तो यही खयाल है कि मेरा जन्म उस आज़ाद भारत में हुआ जिसे १५ अगस्त १९४७ को ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्ति मिली। जब प्राइमरी स्कूल में पढ़ने गया तो वहाॅं मैंनै बचपन से ही प्रात:कालीन प्रार्थनाओं में ‘रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम ” प्रतिदिन गाया और अब तक अपने आपको स्वतंत्र अनुभव करते हुए जिया। हमारे गुरु जी ने हमें गांधी जी की आश्रम भजनावलि दी थी। इस छोटी-सी पुस्तिका में सब धर्मों की प्रार्थनाओं के साथ तुलसीदास की रामचरित मानस से संकलित की गयी कई चौपाइयाॅं भी थीं जो मुझे बचपन से यही सिखाती रहीं कि —– अपने मन को जीतो और किसी से बैर मत करो। इस उपाय से विषमता का भाव खो जाता है। सबके शोक चले जाते हैं और सब हर्ष से भरे रहते हैं।

आज़ादी के आंदोलन में आध्यात्मिक, राजनीतिक और सामाजिक जीवन की अगुवाई करते हुए महात्मा गांधी से बड़ा राम भक्त तो शायद ही कोई हुआ हो। जब उनके प्राण लिये जा रहे थे तब यही राम-नाम उनके होंठों पर था। राजघाट पर स्थापित उनकी समाधि पर भी यही नाम लिखा है— हे राम! गांधी जी किसी ऐतिहासिक राम को नहीं भजते रहे। वे उस राम निरञ्जन के तात्विक विस्तार को पहचान गये जिसमें बिना किसी भेदभाव के सबको जगह मिली हुई है। उनकी राष्ट्र की समझ भी यही रही कि जिसमें सबका बहु विश्वासी जीवन फलता-फूलता रह सके उसी को राष्ट्र कहा जाना चाहिए।

गांधी जी का एक किस्सा भी मशहूर है — उन्हें यह देखकर ताज़्जुब हुआ कि सबके दुख के साथी ग़रीब नवाज़ राम को उनके मंदिर में मखमल की लकदक भड़कीली पोशाखें पहनायी जाती हैं। उन्होंने कामना की थी कि मेरे राम को तो खादी के कपड़े पहनने चाहिए। मुझे याद है कि मेरे सागर शहर के जानकीरमण मंदिर में राम, सीता, लक्षमण, भरत, शत्रुघ्न और हनुमान जी को भी खादी के वस्त्र पहनाये जाने लगे थे। गांधी जी ने ख़ुद भी अपने पहनावे के लिए ग़रीबों की बुनी खादी को ही चुना था।

अभी जो राम मंदिर में अकेले राम की प्राण प्रतिष्ठा हुई है, उनकी प्रतिमा पर तो स्वर्ण आभूषणों और महॅंगी पोशाखों की ही झलक दिखायी देती है। अधूरे मंदिर की चकाचौंध में राम अकेले खड़े हैं। उनके वामाङ्ग में जानकी भी नहीं हैं। उनके साथ उनके भाई भी नहीं हैं। वे मंदिर में उनसे कहीं दूर बैठे हैं। राम अपनी खोयी हुई सीता को साथ लेकर अयोध्या लौटे थे फिर वे अपने मंदिर में उनके बिना अकेले कैसे प्रतिष्ठित हो गये? तात्विक रूप से राम चेतना हैं, सीता प्रकृति हैं —- हमें सच्ची स्वतंत्रता का बोध हमारी देह में चेतना और प्रकृति की सहधर्मिता से ही होता है — सिया राम मय सब जग जानी —- रामायण भी यही कहती है।

स्वतंत्रता तो सबको जन्मजात मिली हुई है, वह झूठी कैसे हो सकती है। उसकी तात्विकता से विच्छिन्न होकर उसे धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचारधाराएं अपनी हदों में बांधने की चेष्टा करती हैं। जीवन को परतंत्र बनाती हैं। सदियों से यही चल रहा है। आज़ादी झूठी नहीं होती। वे लोग अक्सर झूठे साबित होते हैं जो सांगठनिक और वैचारिक ज़िदें बांधकर किसी राष्ट्र के जीवन को विभाजित करके उसे परतंत्र बनाये रखने की रणनीतियाॅं बनाते रहते हैं।

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