— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
दिल्ली विधानसभा के चुनाव का शोरगुल उफ़ान पर है। विचारधारा, सिद्धांत, नीति की जगह कपड़ा बदलने की तरह सियासत का हल्ला चारों तरफ सुनाई दे रहा है। पता नहीं कौन नेता, कार्यकर्ता कब अपनी पार्टी का झंडा कूड़ेदान में डालकर दूसरी पार्टी की टोपी पहन ले। चुनाव के मौके पर पहले पार्टियां अपना घोषणा पत्र जारी करती थी अब घोषणा पत्र की जगह सिर्फ और सिर्फ, बड़ी शान से मुफ्त बांटो की रस्साकशी चल रही है। एक जमाने में राजनीतिक कार्यकर्ता,खादी का कुर्ता पजामा,धोती पहनने पर फख्र महसूस करता था अब उसको देखकर आम आदमी अच्छी नजर से नहीं देखते हैं, और क्यों ना देखें एक जमाने में पार्टियों के स्थानीय नेता कई बार नगर निगम, विधानसभा, लोकसभा के सदस्य मंत्री बनने के बावजूद साधारण जिंदगी जीते थे। आज के चमकदार नेता तिकड़म, जात, मजहब, क्षेत्रीयता, पैसे, चमचागिरी के आधार पर टिकट पाकर जब मंत्री विधायक बन जाते हैं तो सबसे पहला परिवर्तन उनकी शक्ल सूरत, पहरावे में यकायक जबरदस्त चमक दिखाई देने लगती है।
दौलत जमीन जायदाद के इजाफे देखते ही बनते हैं। नए युग के इन क्रांतिकारीयो के संघर्ष का रिकॉर्ड भी मजेदार है, जो एक दो बार एक-दो घंटे पुलिस घेरे में थाने में बैठकर या जेल होकर आया हो, बड़े फख्र के साथ ऐलान करते हैं, हम तो क्रांतिकारी, संघर्ष करके आए हैं। इस तरह के नेताओं से किसी विषय पर चर्चा तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि जब विचारधारा की पढ़ाई लिखाई, शैक्षणिक शिक्षण हुआ ही नहीं तो विचारधारा किस चिड़िया का नाम है जानते ही नहीं। सियासी हल्को में एक नारा चलता है, पहले खर्चा, फिर चर्चा, और बाद में पर्चा। भारतीय जनता पार्टी का तो एकमात्र घोषणा पत्र, एजेंडा हिंदू मुसलमान है। आप पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल जैसा चतुर सुजान, कोई नेता हिंदुस्तान में पैदा ही नहीं हुआ। यह केजरीवाल हैं, जो चुनाव में वोटो के हिसाब किताब को लगाकर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और भगत सिंह का फोटो लगा लेते हैं, परंतु जब कभी कोई परेशानी होती है तो फौरन राजघाट गांधी समाधि पर पहुंच जाते हैं। जी हजूरिये पसंद करने वाले केजरीवाल जी को सोशलिस्ट प्रोफेसर आनंद कुमार जैसे पाक दामन, उच्च कोटि के विद्वान, अजित झा जैसे समर्पित संगठनकर्ता रास नहीं आए।
दिल्ली में कांग्रेस पार्टी का आलम यह है कि उनके पिछले प्रदेश अध्यक्ष मरहूम रामबाबू शर्मा ने कांग्रेस संगठन का जो ढांचा, पदाधिकारी नियुक्त किए थे, 2009 में उनका इंतकाल होने के बाद से अभी तक दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के कई अध्यक्ष बनाए गए परंतु संगठन का नया ढांचा आज तक नही बना। हाई कमांड और केंद्रीय दफ्तर की हाजिरी लगाने से फुर्सत मिले तो दिल्ली के संगठन को बनाने की सोचे। दिल्ली शहर की राजनीति की सबसे बड़ी त्रासदी यह भी है कि राजधानी होने के कारण सभी पार्टियों के राष्ट्रीय नेता दिल्ली में ही रहते हैं, जो स्थानीय कार्यकर्ता, नेताओं की जी हजूरी, परिक्रमा मैं लग जाता है वहीं चुनाव में टिकट भी पा जाता है। नेताओं से व्यक्तिगत नजदीकी पाने के लिए कैसे-कैसे तरीके अख्तियार करता है, बाजार से खरीदे हुए देसी घी को, नेता को ले जाकर कहता है यह मेरे घर पर तैयार हुआ है, आपके लिए है, दिल्ली के करीम होटल से खरीदा हुआ गोश्त का व्यंजन नेताजी को ले जाकर कहता है, मेरी बीवी ने खास तौर से आपके लिए तैयार किया है।
हालांकि हर पार्टी में विचारधारा से बंधे कार्यकर्ताओं की भी कोई कमी नहीं है, परंतु वे हाशिये पर ही रहते हैं। पार्टी का उम्मीदवार बनने के लिए आज के दौर में सबसे बड़ी योग्यता चुनाव जीतने की कुव्वत है। भले ही पुलिस थाने में अपराधियों की लिस्ट में उसका नाम हो।वह सुबह किसी पार्टी का सदस्य रहा हो, शाम को उसका नाम पार्टी के उम्मीदवारों की लिस्ट में टेलीविजन में पढ़ने को मिल जाता है।
आज भी मैं दिल्ली की मुख्तलिक पार्टियों के अनेक कार्यकर्ताओं को जानता हूं, जिन्होंने तमाम उम्र कभी समझौता नहीं किया। कैसी भी दुश्वारियां,मुश्किलें, खतरे, लालच उन पर आए पर वे डिगे नहीं। उनकी अपनी शख्सियत भी कोई दूसरे दर्जे की नहीं रही। लेकिन पार्टी संगठन तक ही उनकी अहमियत रही, किसी विधायी पद पर उनको बैठाने की जरूरत नहीं समझी गई।
सोशलिस्ट तहरीक के कई उच्च शिक्षित, समर्पित कार्यकर्ता, कोई एक पार्टी न होने के बावजूद पार्टी के सिद्धांतों और उसके चिंतकों के विचारों के प्रचार प्रसार में सभा सेमिनार, साहित्य प्रकाशन, पुरखे चिंतकों की जयंतियां, सीमित साधनों के बावजूद बड़ी शिद्दत के साथ दिल्ली शहर में मनाते रहते हैं।
दिल्ली विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार पद पर मेरे मुखालिफ रहे साथी हर चरण सिंह जोश, जिनकी सारी जिंदगी कांग्रेस में खपी है, 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद सिखों की बेहद सख्त नाराजगी कांग्रेस पार्टी के साथ थी, इसके बावजूद भी आज तक कांग्रेस का झंडा ढोते है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी दिल्ली के बड़े नेता मेरे सहपाठी जोगिंदर शर्मा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के पद को छोड़कर पार्टी के पूर्णकालिक कार्य में जुट गए। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की अखिल भारतीय सेक्रेटरी तथा मेरे कॉलेज जीवन की अलग विषय की सहपाठी अमरजीत कौर का सारा जीवन पार्टी के संघर्षों, आंदोलन में गुजर गया।
राजकुमार भाटिया भाजपा के उन नेताओं में है, जिनके साथ मैंने छात्र जीवन में बरसों बरस अलग विचारधारा, संगठन में कार्य करने तथा एक साथ लंबा जेल जीवन बिताया है। उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की नींव दिल्ली में जमायी और अरुण जेटली जैसे कार्यकर्ताओं को इससे जोड़ा। जिस वक्त वह राष्ट्रीय सचिव थे, नरेंद्र मोदी गुजरात राज्य स्तर के उनके संगठन मैं कार्यरत थे। भाटिया चाहते तो किसी भी बड़े पद की दावेदारी ठोक सकते थे परंतु मैं देखता हूं कि अभी भी वे अपने संगठन के कार्य में लगे रहते हैं। प्रोफेसर शिवमंगल सिंह कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट) के दिल्ली में नेता है। दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के आंदोलन में एक साथ नारा लगाने वालो, को अभी भी आप गरीब तबको, झुग्गी झोपड़ियां में पार्टी के छोटे-छोटे पर्चे बांटतें हुए देख सकते है।
चुनाव के मुद्दे आज महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार वगैरह ना होकर नेताओं के जबान लडाऊ, दूसरों पर कीचड़ फेंकने के इर्द-गिर्द ही घूम रहे है। दिल्ली की सरहद पर किसानो की वाजिब मांग के लिए अनशन कर रहे जगजीत सिंह डल्लेवाल जिंदगी मौत के बीच झूल रहे हैं, पर किसी भी पार्टी ने उनका जिक्र तक नहीं किया। मूल्क की राजधानी होने के बावजूद पीने के साफ पानी मैं सीवर मिला पानी पीने को आता है। साफ हवा का वायु प्रदूषण 400 तक के जानलेवा खतरनाक हालात तक पहुंचा हुआ है। नैतिकता, उसूल शब्द बेमानी हो गए।
जब तक वैचारिक निष्ठावान कार्यकर्ताओं का निर्माण राजनीतिक शिक्षण, आदर्श गठन नहीं होता तब तक राजनीति से सांप्रदायिकता, अवसरवाद, भ्रष्टाचार, दल बदल से निजात नहीं पाया जा सकता। नारेबाजी, ड्रामेबाजी कितनी भी कर ली जाए समाज में बुनियादी परिवर्तन नहीं आ सकता, राजनीति एक तिजारत ही बनी रहेगी।