— प्रो. आनंद कुमार —
1. बेमिसाल और अनुकरणीय समाजवादी
समाजवादी चिंतक, सप्तक्रांति के सिद्धांतकार और पिछड़ों को विशेष अवसर के जरिए समाज के क्रांतिकारी नवनिर्माण के पथ प्रदर्शक डा. राममनोहर लोहिया का यह अटल विश्वास था कि वोट, फावड़ा और जेल के संतुलित सदुपयोग से भारतीय समाज में समाजवादी राजनीति का दौर आएगा और नया नेतृत्व निखरेगा। समाजवादी जननायक कर्पूरी ठाकुर की रोमांचक जीवन यात्रा इस मान्यता की बेहतरीन मिसाल है। 1924 में बिहार के एक अति पिछड़े परिवार में जन्मे और भारत छोड़ो आंदोलन के जरिए समाजवादी परिवार की अगली कतार में जगह बनाने वाले इस जननायक ने 1948 से 1988 के चार दशकों में अपने को अविस्मरणीय बना लिया। बिहार की लोकस्मृति में लोकनायक जयप्रकाश के बाद जननायक कर्पूरी ठाकुर को जगह मिली है।
उन्होंने दो बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी अपने गांव के घर को नहीं सजाया-संवारा लेकिन गांव वालों ने पूरे गांव को ही कर्पूरी ग्राम का नाम दे दिया है। उनके गांव के नजदीक के रेल स्टेशन का नया नामकरण किया गया है कर्पूरी ठाकुर स्टेशन। यह मोतिहारी और समस्तीपुर के बीच बनाए गए बापूधाम और खुदीराम बोस स्टेशन के बाद का पड़ाव है। बिहार में पिछले 75 साल में अनेकों मुख्यमंत्री हुए लेकिन अपनी सादगी, सहजता, सदाचार और शासनक्षमता के कारण कर्पूरी ठाकुर की अलग चमक है। देश के अनेकों राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन, समाजवादी आंदोलन और संपूर्ण क्रांति आंदोलन में योगदान किया है लेकिन अधिकांश की जिंदगी में संघर्ष के मोर्चे से सत्ता के मंच पर पहुंचने के बाद सैद्धांतिक फिसलन, संतति-संपति के सरोकार और कंचन-कामिनी का आकर्षण प्रबल हो गया। चमक चली गई। कथनी और करनी में अंतर होता चला गया। सहयोगी और सलाहकार बदल गए। भाषा, भूषा, भोजन और भवन तक में तब और अब का शर्मनाक फर्क हो गया। मार्क्सवादी शब्दावली के अनुसार ‘वर्ग चरित्र’ में परिवर्तन आ गया। समाजवादी महानायक मधु लिमए का मानना था कि सत्ताधारी होने पर अधिकांश
राजनीतिज्ञ ‘पुत्र रोग’ से पीड़ित हो जाते हैं। लेकिन कर्पूरी जी इन दोषों से मुक्त रहे। इसमें उनके समाजवादी होने का बड़ा योगदान रहा। इस मायने में वह समाजवादी परिवार के 1934 से अबतक के सबसे अनुकरणीय उदाहरण सिद्ध हुए हैं। दूसरे शब्दों में, उनके 1988 में देहांत से अबतक की तीन पीढ़ियों में आए बदलाव को देखने के कारण यह बात फैल गई है कि समाजवादी हो तो कर्पूरी ठाकुर जी जैसा हो नहीं तो न हो! यह अनायास नहीं हुआ कि कर्पूरी ठाकुर जी के बारे में पहला शोध ग्रंथ काशी विश्वविद्यालय में डा. नरेन्द्र पाठक नामक राजनीतिशास्त्री ने लिखा है।
2. लोकतंत्र और समाजवाद के महानायक
वह भारत की लोकतांत्रिक क्रांति का प्रमाण थे जिसने साम्राज्यवाद और सामंतवाद की एकजुटता को राष्ट्रीयता और समाजवाद की दुहरी क्षमता से लैस जनशक्ति के बल पर चुनौती दी। वह समतावादी सपनों के प्रतीक बने जिन्होंने जातिवाद के अखाड़े में समाजवादी पार्टी का झंडा गाड़ा। चुनाव जीतने के लिए जाति जोड़ो के जरिए यथास्थितिवाद की राजनीति करनेवाले नेताओं को समाजवादी जाति नीति के कार्यक्रमों से बेनकाब किया और अपनी लोकप्रियता को दांव पर लगा कर आरक्षण की समावेशी योजना का कार्यान्वयन किया। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के जुड़वां अभियान के अंतर्गत छोटे किसानों को लगान से मुक्ति के लोहियामंतर को लागू किया। बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर अंग्रेजी की अनिवार्यता का बोझ हटाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया।
उन्होंने आचार्य नरेन्द्र देव की सिखावन को चरितार्थ करने में अपने को खपा दिया और स्वराज रचना और समाजवादी नवनिर्माण की दुहरी जिम्मेदारी उठायी। वह डा. लोहिया के द्वारा बनाई कसौटी पर खरे उतरे क्योंकि उनकी समाजवादी राजनीति में बदलाव के लिए सौ बरस का धीरज और तत्काल सत्ता संभालने की तैयारी का जबरदस्त संतुलन रहा। वह सत्याग्रह से लेकर सरकार चलाने तक आजीवन समाजवादी कार्यकर्ता समूह के पथ-प्रदर्शक रहे। उन्हें लोहिया की गैरकांग्रेसवाद की रणनीति के श्रेष्ठतम शिल्पी और जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के प्रथम प्रतीक मानना अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसीलिए एक तरफ वामपंथी राष्ट्रीयता से जुड़े संगठनों में और मार्क्स, गांधी और अंबेडकर के अनुयायियों में वह आजीवन लोकप्रिय रहे। दूसरी तरफ सामंती और पूंजीवाद समर्थक जमातों और व्यक्तियों ने उन्हें हमेशा निशाना बनाया। लेकिन हर षड्यंत्र के बाद उनका कद और बढ़ा। पीछे मुड़कर देखने पर यह लगता है कि 1977, 1979 और 1984 में हुए राजनीतिक संक्रमण के दौरान देश की बागडोर संभालने के लिए राष्ट्रीय सरकार चलाने के असली हकदार जननायक कर्पूरी ठाकुर जी ही थे। लेकिन हमारी निगाह उन पर नहीं गयी और राष्ट्र निर्माण अभियान अवरुद्ध हो गया।
3. तात्कालिकता के प्रति सजग कुशल रणनीतिकार
यह हमारा सौभाग्य था कि हमने कर्पूरी ठाकुर जी को नजदीक से देखा और जाना। मुझे उनके नेतृत्व में चुनाव, आंदोलन और समाजवादी संगठनों में काम करने का सौभाग्य मिला। हमने 1973 में उनके साथ जनसभाओं में भाषण दिया। 1974 में बिहार आंदोलन के दौरान उनका अपनत्व पाया। वह हमारे निमंत्रण पर 1980 में समाजवादी युवजनों के राष्ट्रीय शिविर का उद्घाटन करने आए। उन्होंने मुझे एक से ज्यादा मौके पर अपना विश्वसनीय संदेशवाहक बनाया। मैं उनकी अंतिम यात्रा में भी अपार जन समुदाय के साथ शामिल रहा।
हमारे परिवार की तीन पीढ़ियों से उनका संबंध था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में साहस दिखाते हुए लंबी कैद के कारण बिहार में चर्चित हुए युवाओं में कर्पूरी ठाकुर जी ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेतृत्व का ध्यान खींचा था। तब काशी विद्यापीठ राष्ट्रीय आंदोलन की एक महत्वपूर्ण धुरी थी और हर उम्र के आंदोलनकारियों का आचार्य नरेन्द्र देव, डा. संपूर्णानंद, श्री श्रीप्रकाश आदि से मार्गदर्शन के लिए बनारस आना-जाना था। हमारे पितामह विश्वनाथ जी इन नेताओं के 1921 से ही निकटतम सहयोगियों में से थे। समाजवादी साहित्य के प्रकाशन के संचालक थे।
हमारे ताऊजी श्रीनाथ और पिता जयनाथ 1942 से बनारस से जुड़े युवा समाजवादी देशभक्तों के भूमिगत सूत्रधारों में से रहे और काशी विद्यापीठ आनेवाले कार्यकर्ताओं की देखभाल के जिम्मेदार थे। इसलिए कर्पूरी जी का इन सबसे परिचय होना स्वाभाविक था। तब उनका दायरा सीमित था। वह राजनारायण, भोला पासवान शास्त्री, बसावन सिंह, बी. पी. कोईराला, किशुन भट्टराई, प्रभु नारायण, रामायण राय और रामधन जैसे उल्लेखनीय नहीं हो पाए थे लेकिन 1948 और 1957 के बीच उन्होंने अपनी पहचान बना ली थी।
हमारे एक चाचा डा. रंगनाथ 1953 में समाजवादी युवजनों के राष्ट्रीय संयोजक बने और 1956 से 1960 तक डॉ. लोहिया के समर्थकों द्वारा बनाई गई सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री रहे। इन भूमिकाओं में बिहार के काम में कर्पूरी ठाकुर जी का सरोकारी होना स्वाभाविक था।
लेकिन उनकी विशेष आत्मीयता हमारे छोटे चाचा प्रो. कृष्णनाथ जी से थी क्योंकि उन्होंने बिहार के आदिवासी समुदायों में समाजवादी संगठन निर्माण के अभियान में अपने को झोंक दिया था। अकाल पीड़ित आदिवासियों को लेकर पलामूं में सिविल नाफरमानी
को लेकर एक तरफ डा. लोहिया ने पटना से लेकर कोलकाता और हैदराबाद में देश को जगाया और दूसरी तरफ कर्पूरी ठाकुर जी ने बिहार विधानसभा में सरकार को झकझोर दिया। संविद सरकार के कार्यकाल (1967-69) और अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में यह निकटता बढ़ी। बनारस – पटना के बीच वैसे भी खास दूरी नहीं थी। डा. लोहिया के 1967 में देहांत के बाद के समाजवादी बिखराव के समाधान के प्रयास में 1972-73 में उन्होंने कर्पूरी ठाकुर जी और राजनारायण जी के साथ मिलकर भारतीय लोकदल का नीति वक्तव्य और कार्यक्रमों का दस्तावेज तैयार किया।
तीन पीढ़ियों की इस निरंतर बढ़ती निकटता और हमारी समाजवादी युवजन सभा में 1966 से सक्रियता के बावजूद मैंने श्री कर्पूरी ठाकुर जी के नेतृत्व कौशल और सैद्धांतिक निष्ठा के प्रति 1974 तक कोई समझ नहीं बनायी थी। हमारी पीढ़ी की निगाह में ‘डा. लोहिया के बाद कौन?’ का सवाल जरूर था। लेकिन कर्पूरी ठाकुर जी दृष्टि से ओझल थे। राजनारायण, मधु लिमए, एस. एम. जोशी, किशन पटनायक और जार्ज फर्नांडिस बहुचर्चित नेतागण थे। बिहार आंदोलन में उनके दूरदर्शितापूर्ण योगदान के पहले तक हमारे मन में कर्पूरी ठाकुर जी की एक प्रादेशिक समाजवादी नेता की छबि थी जो बिहार विधानसभा में विपक्ष के मुखर नेता थे। लेकिन 1971 और 1984 के दौरान कर्पूरी जी ने हमें अपना मूल्यांकन बदलने के लिए मजबूर कर दिया। इस दौरान हमने श्री राजनारायण और श्री चंद्रशेखर के नेतृत्व में काम किया जिससे कर्पूरी ठाकुर जी के तौर तरीकों की तुलनात्मक समीक्षा का दुर्लभ अवसर मिला। आज श्री कर्पूरी ठाकुर हमें सभी चर्चित समाजवादी नायकों और नायिकाओं से कम सूझ-बूझ वाले नहीं लगते हैं। क्यों?
इस नयी समझ के ठोस आधार हैं। एक तो उनमें अनुपात की बेहतर समझ दिखाई पड़ी। तमाम निराशाओं के बावजूद उन्होंने न तो सक्रिय राजनीति से किनारा किया, न अपनी बनाई मूर्तियों को खुद तोड़ा और न अपने को अपने प्रशंसकों के बनाए घरौंदे में सीमित किया।
दूसरे, उनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था और जनशक्ति में प्रबल आस्था थी। इसलिए हर नेता की तरह उनमें भी आत्मविश्वास भरपूर था लेकिन वह आत्ममुग्ध नहीं थे। इससे वह दूसरों से सहयोग के लिए तत्पर रहते थे। दूसरों को नेता मानने में संकोच नहीं करते थे। इसलिए डा. लोहिया के देहांत के बाद उन्होंने क्रमशः राजनारायण जी, चौधरी चरण सिंह और अंततः लोकनायक जयप्रकाश नारायण में संभावना तलाशी।
तीसरे, समाजवादी सिद्धांतों को समयानुकूल कार्यक्रमों और आंदोलन में ढालना
उनके नेतृत्व कौशल का प्रबल पक्ष था। इससे सिद्धांत की प्रासंगिकता बनी रही और कार्यक्रमों में ताजगी कम नहीं हुई। इसी के समांतर वह समाज और समाजवादी नीतियों के रिश्ते को लेकर सजग भी रहे। समाज से प्रतिकूल प्रतिक्रिया जैसे चुनाव में समाजवादी उम्मीदवारों की पराजय के बावजूद संवाद बनाए रखने की जिम्मेदारी निभाने में धैर्य के साथ जुटे रहे।
जननायक कर्पूरी ठाकुर जी को जन्मशती समापन के अवसर पर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए एक बेहद तकलीफ़देह प्रश्न की उपेक्षा नहीं की जा सकती। कालचक्र की तरफ से सवाल यह है कि एक कुशल रणनीतिकार और जबर्दस्त सूझबूझ से संपन्न होने के बावजूद श्री कर्पूरी ठाकुर तीन आत्मघाती राजनीतिक दुर्घटनाओं के विदुर की तरह निरुपाय साक्षी या भीष्म की तरह वचनबद्ध साझीदार बनने को विवश क्यों दीखते हैं – 1) डॉ. लोहिया के निधन के बाद 1968-69 में गैरकांग्रेसवाद की दिशाहीनता और 1971-72 में! समाजवादी परिवार का सफाया, 2) इमरजेंसी राज के भयावह दौर के समाधान के लिए बनायी गयी जनता पार्टी और सरकार की 1979 में अकाल मृत्यु और 1980 में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की वापसी, और 3) भारतीय समाजवादी आन्दोलन की बिहार में मजबूती के बावजूद प्रादेशिक दलों के दलदल में समाजवादी धारा का लुप्त हो जाना। वैसे इसका जवाब कर्पूरी ठाकुर जी से ज्यादा उनकी उंगली पकड़कर राजनीति में दखल बनाने में सफल हुए हम सभी को खोजना चाहिए। यही हमारी इस अद्वितीय जननायक को सही श्रद्धांजलि होगी।
कर्पूरी ठाकुर अमर रहें। समाजवादी धारा पुनः प्रवाहमान बने।
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