जयप्रकाश नारायण

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यप्रकाश नारायण अमेरिका से डॉक्टर की डिग्री लेकर वापस आये और डॉक्टर लोहिया जर्मनी से दोनों वापस आकर गाँधी के काम में लग गये. दोनों का गाँधी से मतभेद था लेकिन गाँधी से ही दिल – लगी थी. गाँधी का साथ कभी छोड़ा नहीं. समाजवादी पार्टी को जन्म देने में दोनों अग्रणी थे. देश में कांग्रेस का एक छत्र राज्य रहने से लोकतंत्र कमजोर हो गया और नेता आरामतलब और खुदगर्ज़ हो गये.

1967 में डॉक्टर लोहिया ने एक ही पार्टी के देशव्यापी वर्चस्व को तोड़कर लोकतंत्र में जान डालने की कोशिश की. सभी विपक्षी दलों ने अपने घरौंदो को तोड़कर प्रांतों के चुनाव लड़े. साम्यवादी और फ़ासीवादी सब साथ आये. एक-दलीय वर्चस्व टूटा. लेकिन डॉ लोहिया की मृत्यु हो गई. नेतृत्व के बिना कहानी वहीँ रुक गई.

संसदीय लोकतंत्र को नई ऊर्जा से भर देने के प्रयास को महज गैर -कोंग्रेसवाद के नारे में समेट दिया गया. लोहिया अंत तक तोड़ते जोड़ते भी समाजवादी पार्टी में बने रहे और समाजवादी रहे. जयप्रकाश जी ने समाजवादी पार्टी छोड़ दी थी और समाजवादी विचारधारा से अलग होकर सर्वोदय दर्शन को स्वीकार किया. विनोबा के साथ, दलीय लोकतंत्र से आगे जाकर राज्यशक्ति पर लोकशक्ति के नियंत्रण की स्थापना के आंदोलन में लग गये. समय आने पर लोकशक्ति के बल पर तानाशाही राज्य को पराजित किया और सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा के जनक बन गये. लोकशक्ति के इस सफल प्रयोग में 1967 की तरह वामपंथी शक्तियां साथ आईं तो सांप्रदायिक हिन्दुत्वावादी भी साथ थे.

यह जो लोकतंत्र के प्रयोग हुए 1967 और 1977 के उनमें कुछ बुनियादी अंतर थे. इस बुनियादी अंतर को ऐसे समझा जाय कि 1967 में डॉक्टर लोहिया का प्रयोग संसद के अंदर के दलों की ताकत से संबंधित था, जब कि जेपी का 1977 का प्रयोग संसद से बाहर लोगों की ताकत से संबंधित था.

डॉ लोहिया इस बात को जरूर समझते होंगे कि जहाँ संसद के अंदर दलों का होना संसदीय लोकतंत्र को दलिय लोकतंत्र में बदल देता है वहीं सांसदों को जनता के प्रतिनिधि की जगह दलों का प्रतिनिधि बना देता है. संसदीय लोकतंत्र के जनक देश, इंग्लैंड के कुछ विद्वान यह मानते हैं कि पार्टियां लोकतंत्र के खिलाफ एक षड्यंत्र हैं जो संसद के जनतान्त्रिक चरित्र को बदल कर उसे विभिन्न दलों के सत्ता संघर्ष का अखाड़ा बना देते हैं. डॉक्टर लोहिया इन विचारों से भी परिचित रहे होंगे.

लेकिन संसदीय लोकतंत्र के व्यामोह को वे छोड़ नहीं सके. यदि उनकी मृत्यु नहीं हुई होती तो वे निश्चित रूप से नया कुछ सोचते.
जेपी इस बात को समझ चुके थे कि संसदीय लोकतंत्र का रास्ता एक अंधी गली है जिसमें एक दूरी तक जाकर लोकतंत्र ठिठक जाता है और वह वह बड़ी आसानी से तानाशाही के रूप में बदल जाता है. इस रास्ते को छोड़ वे ग्राम स्वराज्य के रास्ते पर चल पड़े और माना की राजनीति का जवाब लोकनीति में है. जेपी की संवेदनशीलता उनकी सोच को विकसित करती रही है और नई सोच के अनुसार वे रास्ता बदलते रहे हैं|.

अपने कड़वे अनुभवों पर के आधार पर उन्हें लगा कि लोक नीति तभी आगे बढ़ सकती है जब वह राजनीति का मुकाबला करे. अपने वर्चस्व के लिये हमेशा बेताब रहने वाली राजनीति के बगल से बचकर रास्ता निकाल लेना संभव नहीं है.
जेपी का यही निष्कर्ष, आंदोलनों के प्रति एक अलग एप्रोच को जन्म देता है जो कि लोकनीति के प्रणेता विनोबा के एप्रोच से भिन्न है. यही एप्रोच उन दोनों के बीच मतभेद का कारण था. हम जैसे लोग 1974 से 1977 तक के जन संघर्ष को इसी दृष्टि से देखते हैं.

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