— महेश विक्रम —
वैदिक काल से कुंभ का कोई संबंध बनता ही नहीं, प्रयाग के संगम का परिचय ही उसके बाद हुआ, तीर्थों और संगमों पर स्नान की परंपरा ही गुप्त काल से विकसित हुई और हर्ष के प्रयाग महोत्सव ने इसे विशेष स्थल बना दिया। तीर्थों पर स्नान की तिथियों का निर्धारण निस्संदेह पंडों पुरोहितों द्वारा ही हुआ लेकिन यह उन कालों में जब यातायात के साधन कम थे और व्यापार या युद्ध के अतिरिक्त केवल योगी संन्यासी ही इधर उधर विचरण करते थे तब किसी एक समय लोगों को भ्रमण के लिए प्रोत्साहित करने और अपने देश और संस्कृति से अवगत कराने का यह अच्छा उपक्रम था, तब जनसंख्या भी कम थी और कुछ सीमा तक यह व्यापार और वाणिज्य के प्रसार में भी मदद करता था।
नागा साधुओं का इतिहास भी बहुत पुराना है लेकिन बौद्ध धर्म के दुर्बल होने और राजवंशों के मंदिर केंद्रित अभिजात्यीय धार्मिक स्वरूप के बढ़ने की प्रतिक्रिया में ही आम लोगों के बीच से ही उन विद्रोही नागा साधुओं का आविर्भाव हुआ जो गुप्त या अधिकांशतः अकेले या अपने समूहों में एकांतवास करते थे और ऐसे स्नान आदि विशेष अवसरों पर ही प्रकट होते थे।इनमें श्मशान और जंगलों में धूनी रमाने, तांत्रिक सिद्धियाँ प्राप्त करने की पद्धतियाँ प्रचलित थीं, इनके ही कुछ परिष्कृत रूप नाथ आदि संप्रदायों में भी प्रकट हुए जो स्वयं में मूलतः परवर्ती बौद्ध धर्म की वज्रयानी और सहज्यानी परंपराओं का ही शैव संस्करण जैसे थे।
अकबर के काल में इलाहाबाद नगर के विकास के बाद से प्रयाग स्नान और भी प्रचारित हो गया जब अकबर ने वहाँ नागा साधुओं के स्नान की विशेष व्यवस्था की, तभी से नागाओं के शाही स्नान की बात भी चल पड़ी।